जिस वक्त भारत में आजादी के आंदोलन चल रहे थे, उस वक्त समान सामाजिक हकों के लिए भी आवाजें उठ रहीं थीं. कानूनी रूप से हक मिले भी, लेकिन देश आज भी छुआछूत के खेल में फंसा हुआ है.
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विश्व के महान धर्मों के मानने वालों में यहूदी, पारसी और हिन्दू अन्य धर्मावलंबियों को अपनी ओर आकृष्ट करके उनका धर्म बदलने में कोई रुचि नहीं रखते. लेकिन दुनिया में संभवतः हिन्दू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो अपने मानने वालों के एक बहुत बड़े समुदाय को अपने से दूर ठेलने की हरचंद कोशिश करता है और उन्हें अपने मंदिरों में न प्रवेश करने की इजाजत देता है, न देवताओं की पूजा करने की. उल्टे वह इन्हें अछूत बताकर इनकी छाया से भी दूर रहने की कोशिश करता है और इस क्रम में उन्हें बुनियादी मानवीय अधिकारों से पूर्णतः वंचित करके लगभग जानवरों जैसी स्थिति में रहने के लिए मजबूर करता है.
आज भी छुआछूत
और यह सब जाति के नाम पर किया जाता है. मंदिर में प्रवेश करने और पूजा-अर्चना करने का अधिकार केवल सवर्ण हिंदुओं यानि ऊंची जाति के हिंदुओं को ही है. अछूत समझी जाने वाली जातियों (जिन्हें अब दलित कहा जाने लगा है) को यह अधिकार नहीं है. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत के विभिन्न हिस्सों में उठ खड़े समाज सुधार आंदोलनों का एक लक्ष्य इन स्थिति को बदलना भी था. इसीलिए 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में केरल और कई अन्य राज्यों में मंदिर प्रवेश आंदोलन चले और अनेक जगहों पर दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार मिला. आजादी मिलने के बाद देश ने अपने लिए संविधान स्वीकार किया, उसमें सभी नागरिकों की बराबरी के सिद्धांत को दृढ़ता से स्थापित किया गया और छुआछूत को गैरकानूनी करार दे दिया गया.
क्या उच्च शिक्षा केवल अमीरों के लिए?
दुनिया भर में 10 से 24 साल की उम्र के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में उच्च शिक्षा अब भी गरीबों की पहुंच से दूर लगती है. फिलहाल विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था में सबकी हिस्सेदारी नहीं है.
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मेडिकल और इंजीनियरिंग के और भी ज्यादा उत्कृष्ट संस्थान शुरू करने की घोषणा की है. आईआईएम जैसे प्रबंधन संस्थानों के केन्द्र जम्मू कश्मीर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और असम में भी खुलने हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे और फैकल्टी की कमी की चुनौतियां हैं. यहां सीट मिल भी जाए तो फीस काफी ऊंची है.
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देश के कई उत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी फिलहाल 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हैं. नासकॉम की रिपोर्ट दिखाती है कि डिग्री ले लेने के बाद भी केवल 25 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और लगभग 15 प्रतिशत अन्य स्नातक आईटी और संबंधित क्षेत्र में काम करने लायक होते हैं.
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कोटा, राजस्थान में कई मध्यमवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए भेजते हैं. महंगे कोचिंग सेंटरों में बड़ी बड़ी फीसें देकर वे बच्चों को आधुनिक युग के प्रतियोगी रोजगार बाजार के लिए तैयार करना चाहते हैं. इस तरह से गरीब बच्चे पहले ही इस प्रतियोगिता में बाहर निकल जाते हैं.
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने फ्रांस दौरे पर युवा भारतीय छात्रों के साथ सेल्फी लेते हुए. सक्षम छात्र अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं. लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे ये सपना नहीं देख सकते. भारत में अब भी कुछ ही संस्थानों को विश्वस्तरीय क्वालिटी की मान्यता प्राप्त है.
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मार्च 2015 में पूरी दुनिया में भारत के बिहार राज्य की यह तस्वीर दिखाई गई और नकल कराते दिखते लोगों की भारी आलोचना भी हुई. यह नजारा हाजीपुर के एक स्कूल में 10वीं की बोर्ड परीक्षा का था. जाहिर है कि पूरे देश में शिक्षा के स्तर को इस एक तस्वीर से आंकना सही नहीं होगा.
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राजस्थान के एक गांव की कक्षा में पढ़ते बच्चे. 2030 तक करीब 14 करोड़ लोग कॉलेज जाने की उम्र में होने का अनुमान है, जिसका अर्थ हुआ कि विश्व के हर चार में से एक ग्रेजुएट भारत के शिक्षा तंत्र से ही निकला होगा. कई विशेषज्ञ शिक्षा में एक जेनेरिक मॉडल के बजाए सीखने के रुझान और क्षमताओं पर आधारित शिक्षा दिए जाने का सुझाव देते हैं.
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उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल खुद को दलित समुदाय का प्रतिनिधि और कल्याणकर्ता बताते रहे हैं. चुनावी रैलियों में दलित समुदाय की ओर से पार्टी के समर्थन में नारे लगवाना एक बात है, लेकिन सत्ता में आने पर उनके उत्थान और विकास के लिए जरूरी शिक्षा और रोजगार के मौके दिलाना बिल्कुल दूसरी बात.
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भारत के "मिसाइल मैन" कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम देश में उच्च शिक्षा के पूरे ढांचे में "संपूर्ण" बदलाव लाने की वकालत करते थे. उनका मानना था कि युवाओं में ऐसे कौशल विकसित किए जाएं जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मददगार हों. इसमें एक और पहलू इसे सस्ता बनाना और देश की गरीब आबादी की पहुंच में लाना भी होगा.
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लेकिन कानून बनाने से हजारों सालों से चली आ रही मानसिकता नहीं बदलती. इसलिए आज भी दलित द्वारा पकाए खाने को स्कूल के बच्चों द्वारा न खाने, दलितों को उनकी औकात बताने के लिए उन्हें नंगा करके घुमाने, हिंसा और बलात्कार का शिकार बनाने, उनके घर फूंकने और उनकी सामूहिक हत्या करने की घटनाएं होती रहती हैं.
कुमारी शैलजा का वाकया
इसलिए जब पिछले दिनों संसद में भारतीय संविधान के निर्माता माने जाने वाले दलित नेता और विचारक भीमराव अंबेडकर की 60वीं पुण्यतिथि पर संविधान दिवस मनाया गया, तब राज्यसभा में हुई चर्चा के दौरान कांग्रेस की नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने अपने साथ हुआ एक वाकया बयान किया और कहा कि 2013 में जब वह द्वारका गई थीं, तो वहां मंदिर में पुजारी ने उनसे उनकी जाति पूछी थी.
कुमारी शैलजा दलित हैं और उन्हें इस घटना ने इतना आहत किया कि वे इसकी जानकारी देने के क्रम में अपने आंसू नहीं रोक सकीं. हैरानी की बात यह थी कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उनके बयान का विरोध किया और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने तो इसे उसी तरह का बनावटी बयान बता डाला जैसा वित्त मंत्री अरुण जेटली की राय में उन लेखकों और कलाकारों का विरोध था जिन्होंने देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ अपने पुरस्कार वापस किए थे. बाद में स्थिति स्पष्ट होने पर उन्होंने अपने बयान पर खेद प्रकट किया.
ठंडे पड़ चुके आंदोलन
हकीकत यह है कि आजादी के लिए हुए संघर्ष के दौरान जो सामाजिक जागरूकता और आधुनिक चेतना पैदा हुई थी, आज उसकी चमक काफी कुछ फीकी पड़ चुकी है. संविधान में प्रदत्त अनेक अधिकार केवल कागज पर ही धरे रह गए हैं. उन पर अमल करने में न तो समाज की ही कोई विशेष रुचि है और न ही राज्य की. समाज सुधार आंदोलन अब ठंडे पड़ चुके हैं. इसलिए समानता के मूल्य के प्रति सम्मान भी समाप्त होता जा रहा है. पारंपरिक रूढ़िग्रस्त चेतना की वापसी हो रही है और इसका प्रमाण खाप पंचायत या उस जैसी ही अन्य पारंपरिक सामाजिक संस्थाओं का बढ़ रहा प्रभाव है. ये संस्थाएं और संगठन आधुनिकता के बरक्स परंपरा को खड़ा करके परंपरा के संरक्षण की बात करती हैं क्योंकि उनकी राय में उसके साथ संस्कृति और धर्म का गहरा नाता है. राजनीति में जातिवाद के बढ़ रहे प्रभाव के कारण भी इस प्रकार की चेतना को बल मिलता है.
सच्ची पूजा
भारत में हर दिन मंदिरों में कई टन फूल चढ़ाए जाते हैं और बाद में इन्हें नदियों में बहा दिया जाता है जिससे नदियों को बहुत नुकसान होता है. इसे बदलने के लिए एक गैर सरकारी संगठन ने नया रास्ता निकाला गया है.
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अकेले राजधानी नई दिल्ली में ही छोटे बड़े 23,000 मंदिर हैं. इन मंदिरों के बाहर फूल वालों की दुकान एक आम दृश्य है.
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दिल्ली के मंदिरों से हर दिन 20,000 किलोग्राम फूल कचरे बन जाता है. यह शहर के जैविक कचरे का पचास फीसदी है.
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इनमें से 80 प्रतिशत फूल यमुना नदी में बहा दिए जाते हैं. यमुना की सफाई पर सरकार 27 अरब डॉलर खर्च चुकी है.
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ओआरएम ग्रीन नाम के एनजीओ ने नदियों को गंदगी और प्रदूषण से बचाने का एक अच्छा विकल्प निकाला है.
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एनजीओ ने फूल पत्तियों को प्रोसेस करने की मशीन तैयार की है. उससे जैविक ईंधन बनाया जा सकता है.
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भारत में लोग नदी को पवित्र मानते हैं, लेकिन फिर भी वे गंदी हैं. तवी नदी से कूड़ा छांटता हुआ एक बच्चा.
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इसे दिल्ली के साईं बाबा मंदिर में लगाया गया है. ऐसी और तीन मशीनें दिल्ली के दूसरे मंदिरों में लगेंगी.
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भविष्य में इन मशीनों के जरिए केवल फूल ही नहीं, बल्कि पौधों के तनों को भी प्रोसेस किया जा सकेगा.
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सारे देश में ऐसी मशीनें लग जाएं तो मंदिरों में सच्ची पूजा हो सकेगी जो पर्यावरण के हित में भी होगी.
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कुमारी शैलजा और उनके जैसे दलित नेता यदि वास्तव में जातिभेद की समस्या को गहराई से महसूस करते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अपनी कांग्रेस पार्टी को इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि जिन राज्यों में भी वे सत्ता में है, वहां वह जाति के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ सख्त और कारगर कदम उठाएगी. इसी के साथ-साथ उन्हें अन्य राजनीतिक दलों के साथ भी संवाद बना कर उन्हें इसके लिए सहमत करना चाहिए. यह सही है कि इस मुद्दे पर सभी शाब्दिक सहमति देने को राजी हो जाते हैं लेकिन उसे अमली जामा पहनाते वक्त वे ही बगले झांकने लगते हैं, पर इसके साथ ही यह भी सही है कि कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी.