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कब थमेगा स्त्रियों का ये दमन

२१ जुलाई २०१४

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक भारत के लिए एक बड़ी शर्म, विडंबना और विरोधाभास के साथ गुजर रहा है. पूरी दुनिया में शायद ये अकेला देश होगा जहां विकास के बजते ढोलों के पीछे से बलात्कार का आर्तनाद सुनाई देता है.

तस्वीर: UNI

उत्तर प्रदेश की राजधानी में एक प्राइमरी स्कूल के परिसर में बलात्कार और हत्या का मामला अब बलात्कार की कोशिश और नाकाम रहने पर हत्या कर देने का मामला बताया गया है. कानून और पुलिस के लिहाज से दोनों में धाराओं का फर्क होगा लेकिन अपराध की जघन्यता के लिहाज से देखें तो इस मामले ने क्रूरता की हदें भी जैसे तोड़ दी हैं. निर्भया कांड जैसा ही घिनौना.

जहां वारदात हुई, लखनऊ के उस स्कूल के बच्चे अपनी पढ़ाई में लौटेंगे तो उन निशानों और उन जगहों को देख कर क्या सोचेंगे. खून से लथपथ, निर्वस्त्र, खुद को आततायी से बचाने का संघर्ष करती स्त्री- उम्मीद और साहस के आखिरी छोर तक घिसटती चली गई. अब ये लकीर देश के और हमारे माथे पर खिंच गई है. ये दाग है. अगर हममें वाकई मानवता बची रह गई है तो यकीनन इस वेदना से निजात नहीं. हमारा वजूद कालेपन से ढक गया है.

एक बड़ा नेता कहता है कि यूपी की आबादी 21 करोड़ है और रेप के मामले कुछ भी नहीं. ऐसा वो क्यों कहते हैं. क्या आशय है. क्या स्त्री की दुर्गति को आंकड़ों में तौलोगे. वहशियत की एक घटना भी क्या हिला देने के लिए काफी नहीं. देखते ही देखते कई घटनाएं देश भर से आने लगती हैं और आपको बुत बना कर छोड़ जाती हैं. ज्यादा नहीं पिछले एक महीने का रिकॉर्ड खंगालिए. अपराधियों के चेहरे कभी रूमाल से कभी नकाब से कभी हेल्मेट से ढके हैं. एक अकेली स्त्री कितना लड़ेगी उन नाखूनों और हथियारों से.

प्रदर्शनों का कोई असर नहींतस्वीर: Reuters

पुरुष या शिकारी

हमारा सवाल यही है कि दिल्ली लखनऊ से लेकर बंगलुरू तक, कहीं भी इन अपराधियों को डर क्यों नहीं रह गया है. क्या सरकारें और उनकी मशीनरी शिथिल पड़ चुकी हैं. कानून की गति और धाराओं को रौंद देने वाले इन अपराधियों में वरना ये दुस्साहस क्यों आ पाता. वे तो जैसे हर जगह हर कोने हर मौके पर हमले को तत्पर हैं. क्या हम कभी जान सकते हैं कि कोई अफसर, दोस्त, गार्ड, ड्राइवर, शोहदा, अमीर या कोई मामूली सा दिखने वाला आदमी हमारी स्त्रियों पर आंख गड़ाए आता जाता कोई शिकारी है.

कितनी सजगता और कितनी फुर्ती रख पाएंगे. शिनाख्त का कौन सा मीटर इस्तेमाल करें कि जान सकें कि सामने वाला आदमी हमें निगलना चाहता है. लगता तो ऐसा है कि जब तक विरोध और भर्त्सनाएं लगातार नहीं होंगी, जब तक आंदोलन सतत नहीं रहेंगे. जब तक अपनी दुर्लभ सामर्थ्य को स्त्रियां बनाए नहीं रखेंगी, जब तक कानून रफ्तार नहीं पकड़ेगा तब तक इस तरह की वारदातें नहीं मिटेंगी. आमूल बदलाव यही होंगे. औरतों को आप रेप से बचने के नुस्खे और उपकरण ही मत थमाइये उन्हें सशक्त करिए, समाज और अर्थव्यवस्था में उनकी बराबर की भागीदारी के साथ. उन्हें अपने फैसलों में अकेला छोड़ दीजिए. उन पर नज़र मत रखिए. उनका मजाक न बनाइये और उनका शोषण मत कीजिए.

संघर्ष में अकेली

कहने में तो आसान है लेकिन क्या इस देश में ये मुमकिन है. बुलंदियां छूने की मिसालें अपने यहां बहुत हैं लेकिन मत भूलिए कि अपनी जीविका चलाती कोई भी महिला अपनी बुलंदी में ही रहती है. बुलंदी सिर्फ आसमानों से और दिव्यताओं से नहीं नापी जा सकती. लखनऊ के एक सरकारी अस्पताल में लैब असिस्टेंट के रूप में कार्यरत, बलात्कार से मारी गई वो स्त्री भी अपने स्वाभिमान की बुलंदी में रहती थी. उसकी निर्भयता ही उसे मकान की तलाश में ले गई थी. बस वो ये नहीं समझ पाई कि उसके साथ छल होगा.

जब तक ये ब्लॉग डॉयचे वेले देखने पढ़ने वालों तक पहुंचेगा, न जाने कितनी चीखें और कितनी हिंसा इसके इर्द गिर्द जमा हो चुकी होंगी. कितनी वारदात पुलिस फाइलों में आ गई होंगी, न जाने कितनी रिपोर्ट भी नहीं हुई होंगी. बलात्कार का कोई मौसम नहीं होता न कोई भूगोल. बेशक इसका एक इतिहास और एक मनोविज्ञान है. सत्ता, वर्चस्व, नफरत और वासना की ये एक गहरी हिंसा है जो पुरुष के भीतर स्त्री के खिलाफ जड़ें जमाएं बैठी है. स्त्री को अकेला और असुरक्षित पाकर अपना कब्जा करने पहुंच जाता है.

अफसोस की बात तो ये है कि संस्कृति और नैतिकता की दुहाई देने वाली शक्तियां मौन हैं. सरकारें फंड और फोर्स बना कर किनारे चली जाती हैं. आरोप और प्रत्यारोप के सिलसिले आपस में टकरा कर दम तोड़ देते हैं, फेसबुक ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर पछाड़े खाती लहरें आ जाती हैं लेकिन वे जल्द ही लौट जाती हैं. सोशल मीडिया अगली धुनों मे डूब जाता है. लोग सड़कों पर आते हैं, भीगते हैं. उनके हाथों में तख्तियां, नारे और मोमबत्तियां रहती हैं. लेकिन मोमबत्तियों की लौ भी कांपती हुई अंत में बुझ जाती है. अपने संघर्ष में स्त्री अकेली रह जाती है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: अनवर जे अशरफ

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