22 साल हो गए इस बिल को संसद में पेश हुए लेकिन 2010 में राज्यसभा से पास होने के एक सुखद अवसर के अलावा यह बिल उपेक्षा के अंधेरों में ही पड़ा रहने को विवश है.
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मानसून सत्र से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी महिला कल्याण की चिंताओं की याद दिलाते हुए महिला आरक्षण बिल को लोकसभा में पास कराने की अपील की थी. इसके बाद बात आई गई हो गई. खुद राहुल गांधी लगता है इस पर अपनी पार्टी में अमल करना भूल गए, जिसकी कार्य समिति के पिछले दिनों हुए पुनर्गठन में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है. हालांकि यह बात अलग है कि मोदी को भेजी याददिहानी और बिना शर्त समर्थन की चिट्ठी में 32 लाख हस्ताक्षर भी भेजे गए हैं. लगता नहीं है कि इस बार भी राजनीतिक दलों और नेताओं के जबानी जमाखर्च के रुटीनी अभ्यास के अलावा इस बिल को कानून की शक्ल मिल पाएगी.
भारत में महिलाएं कुल जनसंख्या का करीब 48 फीसदी हैं लेकिन रोजगार में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 26 फीसदी की है. न्यायपालिका और केंद्र और राज्य सरकारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है. पंचायतों में जहां राज्यों में महिलाओं के लिए आरक्षण किया गया, वहां महिलाओं के नाम पर उनके पति और बेटे निर्वाचन से मिली ताकत का उपयोग कर रहे हैं. कर्नाटक और उत्तराखंड जैसे राज्यों में 50 फीसदी आरक्षण का लाभ भी महिलाओं को उस रूप में नहीं मिल पा रहा है जिसकी वो अधिकारी हैं. और इन सब चिंताओं के बीच यूएनडीपी की वो रिपोर्ट भी है जिसके मुताबिक महिलाओं के सशक्तीकरण में अफगानिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई देश भारत से बेहतर हैं. ये भी एक तथ्य है कि संसद में महिला प्रतिनिधित्व के वैश्विक औसत में भारत का स्थान बहुत नीचे है. 543 सीटों वाली लोकसभा में इस समय 62 महिला सांसद हैं, इससे पहले 2009 में 58 महिलाएं थीं. थोड़ा सा ग्राफ बढ़ा लेकिन 33 फीसदी आरक्षण के हवाले से तो ये नगण्य ही कहा जाएगा.
महिला आरक्षण बिल की अहम बातें
महिला आरक्षण बिल का मुद्दा फिर चर्चा में है. आइए जानते हैं कि क्या है यह बिल?
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क्या है महिला आरक्षण बिल?
यह भारतीय संविधान के 85वें संशोधन का विधेयक है. इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है. इसी 33 फीसदी में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी है. महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन 108वां विधेयक राज्यसभा में 2010 में पारित हो चुका. अब लोकसभा में इसे पारित करवाने की बारी है.
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कभी नहीं बन पाई एक राय
पहली बार इस बिल को 1996 में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार में पेश किया गया था. तब सत्ता पक्ष में एक राय नहीं बन सकी थी. उस वक्त जेडीयू अध्यक्ष रहे शरद यादव ने इसका विरोध किया था. 1998 में जब इस विधेयक को पेश करने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री थंबी दुरई खड़े हुए थे. तब संसद में बड़ा हंगामा हुआ और हाथापाई भी हुई उसके बाद उनके हाथ से विधेयक की प्रति को लेकर लोकसभा में ही फाड़ दिया गया.
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महिला आरक्षण बिल के विरोधी कौन?
आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का मानना है कि यह बिल लोकतंत्र को खत्म करने की साजिश है. देश में महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और देश के भीतर एवं सीमा पर खतरे जैसी समस्याएं हैं. लोगों का ध्यान इन मुद्दों से हटाने के लिए महिला सशक्तीकरण के नाम पर यह बिल लाया जा रहा है.
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"परकटी महिलाएं"
जेडीयू के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव ने संसद में महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करते हुए कहा था कि यदि ये बिल पारित हो गया तो वह जहर खा लेंगे. यादव का आरोप था कि इस बिल से सिर्फ परकटी (छोटे बालों वाली) औरतों को फायदा पहुंचेगा. उनकी मांग थी कि इस बिल में अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को कोटा मिले.
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मुलायम सिंह का तर्क
सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह की यह मांग थी कि महिला आरक्षण बिल को मूल स्वरूप (यानी अल्पसंख्यक महिलाओं को कोटा दिए बिना) संसद में ना रखा जाए. आरोप लगाया कि इससे देश की अमीर महिलाएं बहुत आगे बढ़ जाएंगी और गरीब वर्ग की औरतें पिछड़ जाएंगी.
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राहुल के पत्र पर मोदी सरकार का जवाब
महिला आरक्षण बिल पास करवाने को लेकर पिछले दिनों लिखे राहुल गांधी के पत्र पर मोदी सरकार ने सियासी पासा फेंका है. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने शर्त रखी है कि राहुल को महिला आरक्षण विधेयक के साथ तीन तलाक और हलाला मामले पर भी सरकार का साथ देना चाहिए. कांग्रेस तीन तलाक और हलाला के मुद्दे पर बंटी हुई है.
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विधेयक पारित करने का यह है सबसे अच्छा समय
राज्यसभा में बिल के पारित होने की वजह से यह मुद्दा अभी जिंदा है. मोदी सरकार के पास संख्याबल है और अब कांग्रेस ने बिल को पास करने में दिलचस्पी दिखाई है. अगर लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून बन जाएगा. इससे 2019 के लोकसभा चुनाव नए कानून के तहत हो सकेंगे और नई लोकसभा में 33 फीसदी महिलाएं आ सकेंगी.
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2010 में यूपीए सरकार ने इसे राज्यसभा में पास तो करा दिया था लेकिन लोकसभा में इसकी राह कठिन हो गई. यूपीए के पास पर्याप्त संख्याबल था लेकिन न जाने क्यों इसमें कोताही की गई. और अब 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ आई बीजेपी भी लगता है इसे भूलने का बहाना कर रही है जबकि ये उसके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा था. 2010 में जब राज्यसभा से बिल पास हुआ था, तो न सिर्फ विभिन्न दलों की कद्दावर महिला नेताओं का यादगार फोटो सेशन पूरे देश ने देखा था, बल्कि उस समय राज्यसभा में बीजेपी के नेता अरुण जेटली ने कहा था कि वो उनके लिए गर्व और सम्मान का ऐतिहासिक पल था. मौजूदा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस समय लोकसभा में विपक्ष की नेता थी. वे इस बिल की सबसे प्रमुख पैरोकारों में एक रही हैं. क्या इस बिल को लेकर पार्टी में मतभेद और वर्चस्व का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा हो गया है जो उन्हें इस बिल की तूफानी पैरवी से रोके रख रहा है या बात कुछ और है?
33 फीसदी आरक्षण महिलाओं को देकर शायद कोई भी राजनीतिक दल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहता. पितृसत्तात्मक संरचना वाले समाज में घर हो या दफ्तर, सड़क हो या संसद, महिलाओं के लिए स्पेस को कमतर करते रहने की मंशा में कैसी हैरानी. अफसोस जरूर होता है- स्त्रियों के विकास से ही घर परिवार समाज और देश का विकास सुनिश्चित किया जा सकता है- ये क्लीशे की तरह और नारेनुमा तोतारटंत वाली बातें इतने लंबे समय से आखिरकार कैसे चल पा रही हैं और उन्हें सुना भी जा रहा है, तालियां भी बज रही हैं और वोट भी पड़ रहे हैं. सत्ताएं आ रही हैं और जा रही हैं. लेकिन महिला हितों को लेकर कोई ठोस ऐक्शन नदारद है. जबकि संसद से ही इसकी शुरुआत होती तो सोचिए ये देश के लिए कितना बड़ा संदेश होता. महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ी राह खुलती. महिलाओं के प्रति समाज में वर्चस्व और मर्दवादी रवैये और उनके खिलाफ अपराधों और हिंसाओं का ग्राफ नीचे आता. कुल मिलाकर उनके खिलाफ पुरुष दबंगई में गिरावट आती. लेकिन विधायिका ही उदासीन है तो फिर हालात कैसे बदलेंगे.
औरतें चलाती हैं स्टेशन तो मर्द करते हैं ताकझांक
जयपुर का गांधी नगर रेलवे स्टेशन भारत का पहला ऐसा स्टेशन है जिसे सिर्फ महिलाएं चलाती हैं.औरतों को सारे काम करते देख पुरुष हैरान होते हैं और ताकाझांकी करते हैं.
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गांधीनगर स्टेशन पर सुपरिटेंडेंट से लेकर कंडक्टर और स्टेशन मास्टर की जिम्मेदारी भी महिलाएं ही उठा रही हैं. भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन यहां नौकरियों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है.
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स्टेशन की सुरक्षा से लेकर तकनीकी कामों का जिम्मा भी महिलाओं के हाथ में है. भारत तो क्या दुनिया के ज्यादातर हिस्से में अब भी इसे सिर्फ पुरुषों का काम समझा जाता है लेकिन यह धारणा अब टूट रही है.
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गांधी नगर स्टेशन पर एक क्रेच की सुविधा भी है ताकि महिला कर्मचारी बच्चों को काम पर अपने साथ ला सकें. इसके साथ ही स्टेशन पर सैनिटरी नैपकीन की वेंडिंग मशीन भी लगाई गई है.
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स्टेशन सुपरवाइजर नीलम जाधव कहती हैं कि इस जिम्मेदारी ने एक तरह से उड़ने के लिए नए पंख दे दिए हैं लेकिन उन्हें अभी भी जूनियर कर्मचारियों में महिला बॉस को लेकर उठने वाली आशंकाओं का सामना करना पड़ता है
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गांधी नगर स्टेशन से हर रोज 50 ट्रेन गुजरती है इनमें से 25 ट्रेन यहां रुकती हैं. महिलाएं सभी सुरक्षा नियमों का पालन करती हैं और हर काम यहां तय मानकों के हिसाब से ही होता है.
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गांधी नगर स्टेशन से हर रोज तकरीबन 7000 यात्री आते जाते हैं. इनमें बहुत से लोग दूरदराज के गांवों से आए हैं, शहर पहुंचने पर पहली बार महिलाओं को स्टेशन पर इस तरह के काम करते देख उनकी आंखें चुंधिया जाती हैं.
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सौम्या माथुर जयपुर रेलवे डिविजन की प्रमुख हैं और दो बच्चों की मां भी. उन्हें उम्मीद है कि स्टेशन से गुजरने वाली लड़कियां यहां के कर्मचारियों से सबक लेंगी और "खुद पर भरोसा करना शुरू करेंगी."
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टिकट काउंटर में मुख्य टिकट कलेक्टर महिमा दत्त शर्मा और उनकी डिप्टी उषा चौहान, स्टेशन पर कुल 28 महिला कर्मचारी हैं जिनमें सफाई कर्मी से लेकर स्टेशन स्टेशन मास्टर तक शामिल हैं.
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महिमा दत्ता शर्मा टिकट काटती हैं. यहां आने वाले यात्री बार बार खिड़की में से अंदर झांकते हैं. महिमा कहती हैं कि बाहर बोर्ड पर सारी जानकारी है लेकिन इसके बाद भी वो ऊल जलूल सवाल लेकर खिड़की पर चले आते हैं.
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इस तरह की कोशिशें ना सिर्फ रुढ़िवादी राजस्थान में नई जमीन तैयार कर रही हैं बल्कि उन सामाजिक रीतियों को भी पलट रही हैं जिनमें महिलाओं के लिए सम्मानजनक स्थान सिर्फ घर में रहना होता है.
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महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए 1996 में एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री काल में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था. समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल बिल के सबसे मुखर विरोधी रहे हैं. एक समय तक जनता दल यूनाईटेड भी इस विरोध में शामिल रहा था. बिल के मुताबिक महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें रोटेशन में आरक्षित की जानी हैं और सीटों का बंटवारा कुछ इस तरह होगा कि एक सीट, लगातार तीन आम चुनावों में एक बार के लिए ही आरक्षित हो सके. बिल में ये भी कहा गया था कि लागू होने के बाद 15 साल तक आरक्षण की व्यवस्था रहेगी और उसके बाद ये व्यवस्था खत्म हो जाएगी. बिल के विरोधियों के भी कुछ तर्क रहे हैं जो इसमें निहित कुछ प्रावधानों से जुड़े हैं. लेकिन ये सारी कमजोरियां तो दूर कर ली जातीं अगर कोई सर्वसम्मति तो बनती. जो भी चिंताएं या डर इस बिल को लेकर रहे हैं उनका समाधान तो कोई बहुत कठिन नहीं होना था लेकिन एक राह निकालने की नौबत ही नहीं बनने दी जा रही, तो क्या कहा जा सकता है.
1996 का बिल भारी विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था. 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपई ने लोकसभा में फिर से बिल पेश किया. गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच ये लैप्स हो गया और 1999, 2002 में 2003 में इसे फिर लाया गया. एनडीए गठबंधन पूर्ण बहुमत के साथ लौटा और वाजपेई अपने दूसरे कार्यकाल में ये बिल पास करा सकते थे और कांग्रेस और वाम दल भी इसके समर्थन में थे- लेकिन कारण बताया गया वही- गठबंधन की मजबूरियां और नतीजा भी वही रहा- सिफर. 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने बिल को राज्यसभा में पेश किया. दो साल बाद, वो एक दुर्लभ क्षण था जब तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर सदन में ये बिल पास करा दिया गया. कांग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ और अन्य दलों का साथ मिला. लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सरकार बिल को वहां पास नहीं करा पाई. राज्यसभा की बुलंदी, लोकसभा में न जाने कहां दबी रह गई. और आज, साल 2018, महिला आरक्षण बिल पर फिर से चिट्ठी पत्री का खेल चल रहा है लेकिन राजनीतिक दल और सरकार रहस्यपूर्ण खामोशी ओढ़े हुए हैं.
दुनिया में सबसे कम महिलाएं किस देश में हैं?
दुनिया में पुरुषों और महिलाओं के बिगड़ते अनुपात पर अकसर चिंता जताई जाती है. संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्या रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं की तादाद कम हो रही है.