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समाज

कर्ज चुकाने के लिए मौत की ओर बढ़ते बांग्लादेशी

३ जुलाई २०१९

पैसे कमाने और अच्छी जिंदगी बिताने का बहुत से बांग्लादेशियों का सपना उन्हें कर्ज में डुबो कर आत्महत्या की ओर ले जा रहा है. विदेशों में नाकाम होकर लौटने वाले के लिए देश में सुरक्षा या सहायता की कोई व्यवस्था नहीं है.

Palermo Migranten gegen die Mafia
तस्वीर: DW/Y. Gostoli

बहुत से गरीब बांग्लादेशियों की तरह कमल शोलागर ने सोचा कि काम के लिए विदेश जाने से उसका जीवन बदल जाएगा. विदेश जाने से शोलागर का जीवन तो बदल गया, लेकिन उस तरह नहीं जैसा उसने सोचा था. 33 वर्षीय शोलगर यूरोप पहुंचने की आशा लेकर तस्करों के साथ लीबिया पहुंचा, लेकिन यहां उसे तस्करों ने बंदी बना लिया और परिजनों से फिरौती की मांग करने लगे. शोलागर के परिजनों ने ऊंची ब्याज लेने वालों से पैसे लेकर तस्करों को 14 हजार डॉलर दिए. जब वह पिछले साल बांग्लादेश लौटा, तो बेरोजगार था और भारी कर्ज में दबा था. यह एक ऐसी स्थिति थी जिसने उसे आत्महत्या जैसा एहसास कराया.

शोलागर ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "मैं काफी उदास था. मुझे बचाने के लिए मेरे परिवारवालों ने काफी अधिक ब्याज पर पैसे लिए थे. हर दूसरे दिन कर्ज देने वाला हमारे घर आता और हमें धमकी देता था. यह वह समय था जब मैंने सोचा कि एक रस्सी लूं और खुद लटक जाऊं." बांग्लादेश के राहत संगठनों का इस मामले पर कहना है कि हजारों प्रवासियों को इस तरह का सामना करना पडता है. मदद के नाम पर थोड़ूी बहुत आधिकारिक सहायता मिलती है.

मानव तस्करी के शिकार

कई पीड़ित तस्करी का शिकार हुए हैं, लेकिन बांग्लादेश में ऐसे अपराधों की समस्या का निवारण काफी कम होता है. देश विदेशों से आने वाले पैसे पर बहुत अधिक निर्भर है और विदेश में नौकरियों की तलाश के लिए नागरिकों को प्रोत्साहित करना सरकारी नीति है. आधिकारिक आंकडों के अनुसार, 2017 में करीब 10 लाख बांग्लादेशियों ने विदेश में नौकरी प्राप्त की. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह बडे पैमाने पर गैर-लाइसेंसी दलालों पर निर्भर है. इस वजह से तस्करी और ठगी के दरवाजे खुले रहते हैं. पिछले महीने यूरोप जाने की उम्मीद में यात्रा कर रहे 64 बांग्लादेशी प्रवासियों को ट्यूनीशिया की एक नाव से बचाया गया. मई में 37 लोगों की मौत उसी क्षेत्र में नाव डूब जाने की वजह से हो गई थी.

मानव तस्करी के खिलाफ पुलिस की कार्रवाईतस्वीर: bdnews24.com

बांग्लादेशी सहायता समूह BRAC के आप्रवासन विभाग के प्रमुख शरीफ हसन कहते हैं, "वापस लौटने वालों को उचित सहायता देने के लिए कोई उचित प्रणाली नहीं है. हमारी सारी नीतियां लोगों को विदेश भेजने पर केंद्रित है. हमारे पास कोई सिस्टम नहीं है कि वापस आने वाले लोगों की संख्या की गिनती हो सके."

गृह मंत्रालय के मानव तस्करी विरोधी विभाग के अधिकारी अबू बकर सिद्दीकी का कहना है कि वापसी करने वाले बांग्लादेशियों के लिए सपोर्ट सिस्टम विकसित करने की आवश्यकता है. वे कहते हैं, "अभी के लिए हम यह सुनिश्चित करते हैं कि पीड़ित अपने परिवारों तक पहुंच जाएं. हमारे पास जो क्षमता है, उसमें यही संभव है. हम उन लड़कियों के साथ काम करते हैं जो तस्करी के माध्यम से भारत चली गईं थी. हमारे पास पीड़ितों के लिए शेल्टर होम भी हैं. लेकिन जहां तक काउंसलिंग का सवाल है, यह ऐसी चीज है जिसे हम प्रभावी ढंग से करने में कामयाब नहीं हुए हैं. हमें अपनी प्रणाली विकसित करनी होगी."

झूठे वादे का जाल

इस तरह का आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है कि कितने प्रवासियों के साथ ठगी की गई लेकिन सहायता संगठनों का मानना है कि प्रत्येक वर्ष विदेश में ठगे जाने के बाद हजारों लोग वापस बांग्लादेश लौटते हैं. रिफ्यूजी और माइग्रेंट मूवमेंट रिसर्च यूनिट के द्वारा वर्ष 2017 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार वापस लौटने वाले 51 प्रतिशत प्रवासियों के साथ या तो ठगी की गई या उनके साथ गलत व्यवहार किए गए. विदेश जाने के लिए एजेंटों को भुगतान करने वाले पांच लोगों में से एक को देश से बाहर जाने में कामयाबी नहीं मिली. दूसरे शब्दों में कहें तो विदेश भेजने के नाम पर उनसे पैसे तो लिए गए लेकिन भेजा नहीं गया. शोलागर जैसी कहानी बहुतों की है.  

प्रवासियों को वापस लाने में मदद करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईओएम) ने कहा कि कई लोगों के पास बहुत कम विकल्प बचे थे, उन्हें अपने कर्जों का भुगतान करने के लिए फिर से विदेश जाना पड़ा. आईओएम के आप्रवासन और विकास विभाग के प्रमुख प्रवीना गुरुंग कहते हैं, "कर्जदारों को पैसे लौटाने के दबाव की वजह से वापस लौटने के बाद भी प्रवासी अपने घर पर कुछ समय के लिए सही से नहीं रह पाते हैं. उन्हें वापस विदेश जाना पड़ता है. आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल करने में नाकामी, सामाजिक समेकन और मानसिक पीड़ा की वजह से वे किसी भी तरीके से फिर से विदेश जाने, कर्ज लेने या आत्महत्या  का प्रयास करते हैं."

आरआर/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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