कर्नाटक विधान परिषद ने भूमि सुधार (संशोधन) कानून पारित कर दिया है. अब राज्य में कोई भी किसानों से उनकी जमीन खरीद पाएगा, लेकिन नया कानून किसानों के लिए लाभकारी है या हानिकारक?
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विधान परिषद में विधेयक के पक्ष में 37 वोट डाले गए और विरोध में सिर्फ 21. सत्तारूढ़ बीजेपी के पास विधेयक को पास कराने के लिए पर्याप्त संख्या-बल नहीं था, लेकिन विपक्ष में बैठी जेडीएस ने सरकार का साथ दिया और उसके 10 सदस्यों ने विधेयक का समर्थन किया. कांग्रेस के नौ सदस्य अनुपस्थित रहे.
75 सदस्यों की परिषद में बीजेपी के पास 31 सीटें हैं, कांग्रेस के पास 28 और जेडीएस के पास 14. सितंबर में इसी विधेयक को कांग्रेस के विरोध के बीच सरकार ने विधान सभा से पारित करा लिया था. कांग्रेस सदस्यों ने तब सभा में कागजात फाड़ दिए थे और सदन से बाहर चले गए थे.
नए कानून से राज्य में कृषि भूमि की खरीद पर से लगभग हर तरह के प्रतिबंध हट जाएंगे. अब कोई भी व्यक्ति या कंपनी किसानों से सीधे जमीन खरीद सकती है. अभी तक राज्य में यह संभव नहीं था. कर्नाटक भूमि सुधार कानून, 1961 के तहत राज्य में कृषि भूमि सिर्फ किसान ही खरीद सकते थे और वो ही जिनकी सालाना आय दो लाख रुपयों से कम हो.
इन प्रावधानों में संशोधन लाते हुए राज्य सरकार ने जुलाई में ही अध्यादेश जारी कर दिया था. सरकार अब जा कर अध्यादेश को कानून में बदल पाई है. सरकार का कहना है कि जिन प्रावधानों को हटाया गया है उनकी वजह से भूमि बेचने के इच्छुक किसान ऐसा कर नहीं पा रहे थे और जमीन की बिक्री के लिए भूमि रजिस्ट्रार और तहसीलदार के दफ्तरों में सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ रहा था.
विपक्ष का कहना है कि नया कानून किसानों के लिए नुकसानदेह है क्योंकि इससे अब बड़ी कंपनियों के लिए किसानों को डरा-धमका कर जबरदस्ती उनकी जमीन खरीदना आसान हो जाएगा. कई किसान भी नए कानून से नाराज हैं और इसके खिलाफ बेंगलुरु में प्रदर्शन कर रहे हैं.
यह कानून ऐसे समय में पास हुआ है जब कई राज्यों में किसान केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. तीनों कानूनों को निरस्त करने की मांग लिए हजारों किसान लगभग दो हफ्तों से दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठे हुए हैं, लेकिन अभी तक सरकार ने उनकी मांगें मंजूर नहीं की हैं.
कोविड-19 से लड़ने के लिए लागू हुई तालाबंदी ने कृषि समेत कई क्षेत्रों को अस्त-व्यस्त कर दिया. फैक्टरी पशुपालन पर अंकुश से ले कर शहरी बागबानी में वृद्धि तक, जानिए कैसे ये महामारी हमारी खाद्य श्रृंखला को बदल सकती है.
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फैक्टरी पशुपालन पर लगाम
हालांकि वैज्ञानिक अभी भी नहीं जानते कि वास्तव में कोविड-19 की शुरुआत कैसे हुई, स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू जैसी संक्रामक बीमारियों की शुरुआत लगभग निस्संदेह रूप से सूअरों और मुर्गियों के फैक्टरी पशुपालन केंद्रों से हुई थी. अब जब गहन फैक्टरी पशुपालन और महामारी के जोखिम के बीच में संबंध स्थापित हो ही गया है, यह मौजूदा स्तर पर हो रही फैक्टरी फार्मिंग पर पुनर्विचार करने का सही समय हो सकता है.
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मांस उद्योग के हालात
इस महामारी ने मांस संसाधन उद्योग में खराब परिस्थितियों को भी उजागर किया है. जर्मनी में मांस फैक्टरियों के कर्मचारियों के बीच कोरोनावायरस के फैलने के कई प्रकरण हुए हैं. पश्चिमी जर्मनी में तो टोनीज बूचड़खाने के 1,550 से भी ज्यादा कर्मचारियों के संक्रमित पाए जाने के बाद दो जिलों को क्वारंटीन में रखना पड़ा. पूरे मांस उद्योग के बेहतर नियंत्रण की मांगें बढ़ती जा रही हैं.
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वन्य-जीवों के पशुपालन को छोड़ना
विशेषज्ञों का मानना है कि संभव है कि नया कोरोनावायरस चीन के वूहान में एक 'वेट मार्केट' में बेचे जा रहे वन्य-जीवों से आया हो. महामारी के प्रकोप को देखते हुए चीन ने लगभग 20,000 ऐसे केंद्रों को बंद कर दिया जहां बेचने के लिए वन्य-जीवों का पशु-पालन होता था. चीन में कुछ प्रांत अब इस तरह के केंद्र चलने वाले पशु-पालकों को इन्हें छोड़ कर फसल उगाने या सूअर और मुर्गियां पालने के लिए सरकारी समर्थन दे रहे हैं.
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एक पहले से अधिक सुदृढ़ क्षेत्र
महामारी ने हमारी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर गहरा असर डाला है. एक ऐसा उद्योग जिसका विकास वैश्वीकरण के दौर में पूरी दुनिया की खाद्य आपूर्ति का ख्याल रखने के लिए हुआ था, वह उद्योग कुछ मामलों में सिर्फ स्थानीय स्तर तक सिकुड़ गया है. कहीं जानवरों के चारे की कमी हो गई है तो कहीं श्रमिकों की. किसानों को मजबूरन विचार करना पड़ रहा है कि एक नए और अनिश्चित भविष्य के अनुकूल कैसे बदलें.
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शहरी खेती-बाड़ी का उदय
मजबूरन घर पर ज्यादा समय बिताने के कारण, ज्यादा से ज्यादा लोग अपने जरूरत के कृषि उत्पाद खुद उगाने की कोशिश कर रहे हैं. यह लंबे समय में एक सकारात्मक बदलाव साबित हो सकता है. अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की दो-तिहाई आबादी शहरों में रह रही होगी और ऐसे में शहरी खेती-बाड़ी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी. इसमें पारंपरिक कृषि के मुकाबले परिवहन के लिए जीवाश्म ईंधन भी कम लगता है और जमीन भी कम चाहिए होती है.
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प्रकृति को जमीन वापस देना
अनुमान है कि 2050 तक विश्व की आबादी 10 अरब हो जाएगी. ऐसे में इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पूरी दुनिया में खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति को बढ़ाने की जरूरत है. एक समय था जब और भूमि उपलब्ध कराने को इस समस्या का समाधान समझा जाता था, लेकिन शहरी खेती-बाड़ी पर पहले से मजबूत ध्यान और प्रकृति के अतिक्रमण के परिणामों को लेकर चिंता से भूमि के उपयोग को लेकर पुनर्विचार किया जा सकता है.
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वनस्पति-आधारित उत्पाद
जैसे जैसे मांस की खपत के संभावित स्वास्थ्य संबंधी असर को लेकर जानकारी बढ़ रही है, चीन में वनस्पति-आधारित उत्पादों को लेकर पहले से ज्यादा रुचि देखने को मिल रही है. पिछले कुछ सालों में पश्चिम के देशों में प्लांट-बेस्ड डाइट का चलन बढ़ गया है और संभव है कि यह रुचि और बढ़े क्योंकि उपभोक्ता इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित होते जा रहे हैं कि वो जो मांस खाते हैं वो कहां से आता है.
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विकासशील देशों में खाद्य सुरक्षा बढ़ाना
कोविड-19 महामारी के विकासशील देशों पर भारी प्रभाव पड़ने का अंदेशा है, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में. संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही संसाधनों के कम होने के साथ साथ भयानक अकाल की चेतावनी दे दी है. तुरंत मदद के साथ साथ, लंबी अवधि में अकाल को खत्म करने के लिए बेहतर भूमि सुरक्षा, फसलों में विविधता और सबसे ज्यादा खतरे में रहने वाले छोटे किसानों को और ज्यादा समर्थन देने की जरूरत पड़ेगी.