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कर्नाटक के सियासी संकट का पटाक्षेप, लेकिन उसके बाद क्या?

समीरात्मज मिश्र
२४ जुलाई २०१९

कर्नाटक में जो हो रहा है, वह भारत की राजनीति के लिए अनोखा या अनजाना नहीं है. इससे पहले भी कई बार इस तरह के सियासी नाटक दिखते रहे हैं. एक नजर राजनीति के उन घटनाक्रमों पर.

BS Yeddyurappa
तस्वीर: IANS

कर्नाटक में पिछले कई दिनों से चल रहे राजनीतिक संकट का पटाक्षेप हो गया है. एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली जनता दल सेक्युलर और कांग्रेस गठबंधन की सरकार सदन में विश्वास मत हासिल नहीं कर पाई, मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दे दिया और अब कयास लग रहे हैं कि बीजेपी एक बार फिर सरकार बनाने की कोशिश करेगी.

मंगलवार शाम को कुमारस्वामी ने सदन में विश्वास मत प्रस्ताव पेश किया जिस पर वोटिंग के दौरान सरकार के पक्ष में 99 और विपक्ष में 105 वोट पड़े. कर्नाटक में साल 2018 में विधानसभा चुनाव होने के बाद 14 महीने में ही दो मुख्यमंत्रियों को विश्वास मत में हार के बाद सरकार गंवानी पड़ी.

इससे पहले बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा महज छह दिन तक मुख्यमंत्री रह सके थे और सदन में बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 104 सीटें मिली थीं, कांग्रेस को 78 और जनता दल सेक्युलर को 37 सीटें हासिल हुई थीं. सबसे बड़े दल के नेता के रूप में तब राज्यपाल ने येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था.

जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार गिरने के बाद अब ऐसी चर्चाएं तेज हो गई हैं कि बीजेपी एक बार फिर येदियुरप्पा के नेतृत्व में कर्नाटक में सरकार बनाएगी. बताया जा रहा है कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व येदियुरप्पा की बजाय किसी अन्य नेता को सरकार की कमान सौंपना चाहता है लेकिन 76 वर्षीय येदियुरप्पा की सक्रियता और राज्य में उनकी स्वीकार्यता को देखते हुए बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व शायद ही कोई ऐसा फैसला ले जिसे येदियुरप्पा न पसंद करें.

येदियुरप्पा भले ही मुख्यमंत्री या मंत्री बनने के लिए बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व की ओर से तय की गई उम्र सीमा लांघ चुके हों और उन पर मुख्यमंत्री रहते हुए तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों लेकिन इन सबके बावजूद बीजेपी की ओर से विधायक दल के नेता और मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर अभी तक सिर्फ येदियुरप्पा के नाम पर ही दांव लग रहा है.

ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस के सिद्धारमैया के अलावा, बीजेपी के येदियुरप्पा ही पूरे राज्य में एकमात्र नेता हैं जिनकी पहुंच हर जगह है. जाहिर तौर पर इसी वजह से इस मामले में बीजेपी के हाथ बंधे हुए हैं. येदियुरप्पा के समर्थन का आधार काफी हद तक उनका लिंगायत समुदाय है और कर्नाटक में लिंगायत के प्रभाव को देखते हुए येदियुरप्पा के दावे को बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी नकार नहीं सकता.

वहीं कर्नाटक की गैर-बीजेपी सरकार गिरने के बाद अब ये कयास भी लग रहे हैं कि मध्य प्रदेश जैसे कुछ अन्य राज्यों में भी जहां बहुमत का अंतर काफी कम है, वहां बीजेपी कुछ इसी तरह से सरकार गिराने और फिर अपनी सरकार बनाने का ‘खेल' कर सकती है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, मध्य प्रदेश अब अगला निशाना हो सकता है जहां 230 सदस्यीय विधान सभा में कांग्रेस 114 सीटों के साथ सरकार में है और बीजेपी 105 सीटों के साथ विपक्ष में है.

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जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो वह अब सिर्फ चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश पुडुच्चेरी तक ही सीमित होकर रह गई है. कांग्रेस अब पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही सत्तासीन है. पुडुच्चेरी को छोड़ दिया जाए तो दक्षिण भारत में अब कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां कांग्रेस पार्टी गठबंधन में अकेले सरकार में हो.

वहीं कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार गिरने के घटना ने त्रिशंकु विधानसभाओं और लोकसभा के दौरान सरकारें बनने और बिगड़ने के शह-मात के खेल की एक बार फिर याद दिला दी है. कर्नाटक का तो शुरू से इतिहास ही ऐसा रहा है जहां सत्तर साल में सिर्फ तीन मुख्यमंत्री ही पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाए हैं. एन निजलिंगप्पा (1962-68), डी देवराजा (1972-77) और सिद्धारमैया (2013-18) ही ऐस मुख्यमंत्री हैं जो पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सके हैं और ये तीनों ही कांग्रेस पार्टी के रहे हैं.

इसके अलावा विधानसभा का कोई भी कार्यकाल ऐसा नहीं रहा जबकि एक से ज्यादा मुख्यमंत्री न रहे हों. नवीं, बारहवीं और तेरहवीं विधानसभा ने तो तीन-तीन मुख्यमंत्रियों का शासन देखा जबकि पहली विधानसभा (1952-57) में चार मुख्यमंत्री रहे.

कर्नाटक का यह सियासी संकट पिछले कई दिनों से बना हुआ था जो कि अब एक पड़ाव पर पहुंचा है. आगे क्या होता है और क्या नई सरकार बनेगी और अपना कार्यकाल पूरी करेगी, यह भी अनिश्चित है. लेकिन देश में इस तरह के सियासी ड्रामे से भरपूर घटनाक्रम पहले भी कई बार हो चुके हैं जिसमें कोई एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बना तो कोई सरकार महज एक वोट से गिर गई.

उत्तर प्रदेश में 1996 से लेकर 1998 के बीच जबर्दस्त राजनीतिक उठापटक देखने को मिली. 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी 176 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन राज्यपाल शासन लगाना पड़ा. 1997 में बीएसपी और बीजेपी के बीच छह-छह महीने के लिए मुख्यमंत्री बनने पर सहमति बनी. मायावती पहले मुख्यमंत्री बनीं लेकिन जब बारी बीजेपी के कल्याण सिंह की आई तो उन्होंने कुछ दिन बाद समर्थन वापस ले लिया.

फरवरी 1998 में नरेश अग्रवाल के नेतृत्व में दो दर्जन विधायक कल्याण सरकार से बगावत कर गए. राज्यपाल ने आनन-फानन में जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी लेकिन हाईकोर्ट ने राज्यपाल के इस फैसले को गलत ठहराया और चौबीस घंटे के भीतर जगदंबिका पाल को सीएम की कुर्सी खाली करनी पड़ी. 

साल 2005 में झारखंड में भी इस तरह का सियासी ड्रामा देखने को मिला लेकिन सबसे रोचक स्थिति 1999 में लोकसभा में देखने को मिली जब अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीने पुरानी सरकार को विश्वास मत हासिल करना पड़ा.

मत विभाजन के दौरान ओडिशा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग अचानक लोकसभा में दिखे. गिरधर गोमांग मुख्यमंत्री पद की शपथ तो ले चुके थे लेकिन लोकसभा की सदस्यता उन्होंने तब तक नहीं छोड़ी थी. गोमांग ने वाजपेयी के सरकार के विरोध में मत दिया और सरकार सिर्फ एक मत की वजह से ही गिर गई.

भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ प्रस्ताव के पक्ष में 62 और विपक्ष में 347 मत पड़े थे. सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ आए. राज्यों की विधानसभाओं में विश्वास प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव के तमाम रोचक विवरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. 

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इंजीनियर जो भारतीय राजनीति में आए

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