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कल हसदेव कैसा वीभत्स होगा, कोरबा में आज दिखता है!

स्वाति मिश्रा हसदेव अरण्य से
९ मई २०२४

“यहां तो हसदेव ही है, हसदेव ही सबसे बड़ा मुद्दा चल रहा है.” कोरबा से अंबिकापुर के रास्ते में मैंने शहरयार को जब यह कहते सुना, तब मुझे उसकी पीठ दिख रही थी. वह घुटने के बल जमीन पर बैठा पंक्चर टायर पर चिप्पी लगा रहा था.

हसदेव के निवासियों का पूज्य पेड़
हसदेव अरण्य में रहने वाले लोगों के लिए जंगल ही सबकुछ हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

मेरे पूछने पर कि यहां चुनाव में क्या चल रहा है, शहरयार ने यह जवाब दिया था. पास ही उसके पिता एजाज अहमद खड़े थे. उनकी टायर-पंक्चर मरम्मत की छोटी सी दुकान आपको कोरबा से अंबिकापुर जाते हुए रास्ते में उदयपुर के करीब मिलेगी.

एजाज उदयपुर के थे नहीं, हो गए हैं. उनका ताल्लुक बिहार के मुजफ्फरपुर से है. कभी वो कोलकाता में चप्पल की दुकान चलाते थे. शादी के बाद एक बार अपनी पत्नी को लेकर उस साढ़ू (साली के पति) से मिलने आए, जो अंबिकापुर के करीब रहते हैं. एजाज को जगह भा गई और वो उदयपुर में ही बस गए.

हसदेव जंगल जरूरी है या एयरकंडीशनर के लिए बिजली

यह करीब 30 बरस पहले की बात है. तब से एजाज यहीं के हैं, इतने ज्यादा कि हसदेव को बतौर वोटर अपना सबसे जरूरी मुद्दा मानते हैं. ठीक उन गोंड मूल निवासियों की तरह, जो यहां से कई किलोमीटर दूर हसदेव के भीतर बसे अपने गांवों को परसा कोल ब्लॉक में समाने से रोकने के लिए कई साल से आंदोलन कर रहे हैं.

हसदेव अरण्य के पेड़ कोयले के लिए काटे जाएंगेतस्वीर: Swati Mishra/DW

हसदेव अरण्य ही सब कुछ है

ये लोग हसदेव को अपना देवता, अपना घर, अपना आधार मानते हैं. हरिहरपुर गांव में "हसदेव बचाओ संघर्ष समिति” के फूस की छप्पर वाले आंदोलन स्थल में जमीन पर बैठे-बैठे जब वो आपको अपने जंगल बचाने के अपने संघर्ष की आपबीती सुना रहे होते हैं, तो दूर बैकग्राउंड में नज़र आ रही ‘परसा ईस्ट केते बासन' की ऊंची चौहद्दी जैसे एक रिमाइंडर देती है.

ग्रामीणों का कहना है कि 2010 के आसपास जब उन्होंने इस परियोजना के लिए ग्राम सभा की ओर से मंजूरी दी थी, तब उन्हें यह पता नहीं था कि खुले खनन से कैसे-कैसे नुकसान हो सकते हैं. ग्रामीणों के मुताबिक, अब उनके पास संदर्भ है और इसीलिए वो हसदेव अरण्य को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं.

शादी कार्ड से लेकर यूट्यूब तक, हसदेव बचाने के लिए युवाओं को समर्थन

अभियान जारी है, लेकिन डर बना हुआ है. बड़ों की आशंका रिसते हुए बच्चों में भी पहुंच गई है. पड़ोसी फतेहपुर गांव के मुनेश्वर पोर्ते बताते हैं, "हमारे यहां के बच्चे पुलिसवालों को देखते ही पूछते हैं कि आज फिर पेड़ कटेंगे क्या!” सबसे हालिया पेड़ काटे गए थे दिसंबर 2023 में.

हसदेव अरण्य और आस पास के इलाकों में रहने वाले लोग जंगल कटने के डर से सहमे हुए हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

हरिहरपुर में बांस-बल्ली और फूस का बना हसदेव बचाओ धरनास्थल चारों ओर से खुला है. हमारे दाहिनी ओर तार की एक बाड़ के पीछे तेंदू पत्ते दिख रहे हैं. इस साल 8 मई से तेंदू पत्ते तोड़ने का मौसम शुरू हुआ है, जो 8-15 दिन तक चलेगा. घर के सारे लोग तड़के जंगल निकल जाएंगे, फिर जो जितने पत्ते तोड़ सके. 50 पत्तों की एक गड्डी, एक गड्डी का पांच रुपया, दिन भर में ज्यादा से ज्यादा 300-350 गड्डियां. आगे का अर्थशास्त्र आप जोड़ लीजिए.

कट जाएगा हसदेव अरण्य

मूलनिवासी ग्रामीण कहते हैं कि हसदेव उनका बैंक है, उसके होते वो भूखों नहीं मर सकते. उनके आसपास का वह जंगल जो पुरखों के जमाने से खड़ा है, वह हसदेव नहीं रहेगा, एक दिन परसा कोल ब्लॉक में समा जाएगा, यह सोचना भी इन लोगों को अवसाद से भर देता है. जैसा कि सुनीता पोर्ते अपने गीत में कहती हैं:

"छत्तीसगढ़ में हवे सुग्गा, धान के कटोरा सुग्गा

धान के कटोरा तोला देखे बिना, मन मोरा सूना सूना

कहां भू लागे सुग्गा आ जा…मोरे सुग्गा आ जा

हसदेव जंगल में हवे सुग्गा, पुटू आ खुखड़ी सुग्गा

पुटू आ खुखड़ी तोला देखे बिना, मन मोरा सूना सूना…”

हसदेव अरण्य और आसपास रहने वाले लोग जंगल बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

इस गीत का मतलब समझाते हुए सुनीता कहती हैं, "हमारा जो ये हसदेव जंगल है, अगर ये खत्म हो जाएगा तो हमारा छत्तीसगढ़ खत्म हो जाएगा. धान का कटोरा खत्म हो जाएगा, हसदेव में रहने वाले सुग्गे (तोते) खत्म हो जाएंगे, वहां मिलने वाली पुटू खुखड़ी (स्थानीय मशरूम) खत्म हो जाएगी.” सारांश यह कि कोयले के लिए बहुत कुछ खोना पड़ेगा.

ऐसा ही भाव उस गीत में भी है, जो रामलाल करियाम ने सुनाया, "अरे ओ ददा, हसदेव जंगल झेन काटा रे.” उनके गीत के बोल जैसे आग्रह हैं कि हसदेव पर कई जीव-जंतु निर्भर हैं, उन्हें मत काटो.

हसदेव अरण्य में खनन योजना से आदिवासियों के उजड़ने का खतरा

चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा

सोचिए तो बड़ी अद्भुत बात लगेगी, विविधता में एकता की अकसर बात होती है और इसी भाव को लेकर दूर बिहार से आकर बसा एक मुसलमान जो पंक्चर बनाकर जीविका चलाता है, वह पीढ़ियों से हसदेव पर निर्भर आदिवासियों की ही तरह इस अरण्य को अपनी चुनावी वरीयता मानता है.

स्थानीय लोग कई सालों से इस जंगल को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

कोरबा से सरगुजा की यात्रा दरअसल एक किस्म का टाइम ट्रैवल है. आप कोरबा को देखकर सरगुजा पहुंचें, तो भविष्य देख पाते हैं. अगर, विकास का कोरबा मॉडल वहां भी लागू हो गया तो अभी कोरबा जैसा है, कल को सरगुजा वैसा ही हो सकता है! अबाध और असंवेदनशील खनन में इंसानों से, बाशिंदों से बुनियादी जीवनस्तर का अधिकार छीन लेना, उनके शहर को एक ऐसी कुरूप जगह में बदल देना जहां साफ हवा-पानी मयस्सर ना हो, विकास का सस्टेनेबल मॉडल कैसे हो सकता है!

पावर हब बनने की कीमत सांसों में राख भर कर चुका रहे कोरबावासी

हम छत्तीसगढ़ से आगे बढ़कर मध्य प्रदेश में दाख़िल हो चुके हैं. सरगुजा में लोकसभा चुनाव बीत चुका है. 4 जून को नतीजे भी आ जाएंगे. किसी के जीतने और हारने से परे सरगुजा की कुछ आंखों देखी कानों सुनी बात मेरी स्मृति में रह जाएगी. एक तो यह कि वहां एक नहीं, ग्यारह नहीं, कई लोगों ने हसदेव को अपना मुद्दा बताया.

एक और बात जो समझ आई कि खनिजों पर उगे जंगलों के इलाके में पार्टी कोई भी जीते, सरकार किसी की हो, स्थितियों में कोई खास अंतर नहीं आता. विपक्ष में जाने वाला वादे करता है और सत्ता में आने वाला वादे तोड़ता है.

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