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कश्मीर पर बहस जरूरी

३ जून २०१४

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक बार फिर बहस के घेरे में है. जम्मू कश्मीर को भारत और पाकिस्तान की कमजोर कड़ी साबित करने वाले इस प्रावधान पर केन्द्र में दक्षिणपंथी सरकार बनते ही पुनर्विचार की बहस तेज हो गई है.

तस्वीर: Reuters

विवाद से बचने और तुष्टिकरण की तुच्छ राजनीति के कारण अब तक सरकारों ने इस अस्थाई प्रावधान को छेड़ने के बजाय उसे अपने हाल पर छोड़ देना मुनासिब समझा. सन 1947 में 565 देशी रियासतों के भारत में विलय के दौरान सिर्फ तीन रियासतें कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ 14 अगस्त तक भारत का हिस्सा नहीं बनी. तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल की कूटनीतिक पहल से हैदराबाद और जूनागढ़ का विलय हो गया लेकिन कश्मीर ने आजाद रहने का फैसला किया. तीन महीने बाद पाकिस्तानी कबायली हमले से मजबूर होकर कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय करने का समझौता किया.

समझौते की शर्तों से जुड़े विलयपत्र को संवैधानिक मान्यता देने के लिए ही भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया. जिसके तहत मुस्लिम बहुल आबादी वाले कश्मीरियों को शेष भारत के साथ अपनेपन का अहसास कराने के लिए जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया. मगर सिर्फ एक अनुच्छेद वाले संविधान के भाग 21 का शीर्षक अस्थाई, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध रखा गया.

370 की उपयोगिता

तत्कालीन विशेष परिस्थितियों को देखते हुए संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ने की जरुरत पर कभी सवाल नहीं उठे हालांकि इस फैसले की मंशा शुरु से ही संदेह के घेरे में है. विरोधियों की दलील रही है कि विलय से इंकार करने पर सिर्फ कश्मीर को ही विशेष संवैधानिक दर्जा क्यों दिया गया, जूनागढ़ और हैदराबाद को क्यों नहीं. इसी तरह 1975 में भारत में विलय होने वाले सिक्किम को इस दायरे में नहीं रखा गया. सिक्किम को भारत का राज्य बनाने के लिए संविधान में 36वां संशोधन किया गया.

जहां तक इस प्रावधान की उपयोगिता की बात है तो इसके फायदे कम नुकसान ज्यादा रहे हैं. इसके तहत कश्मीर में भारतीय संसद के दखल को न्यूनतम करने के लिए राज्य का पृथक संविधान है और राज्य ध्वज तक अलग है. भारतीय संसद सिर्फ रक्षा, विदेश, संचार और पड़ोसी सीमाओं के अधिग्रहण के मसले पर ही सीधे तौर पर दखल दे सकती है. शेष मामलों में दखल देने से पहले संसद को राज्य विधानसभा से पूर्वानुमति लेना अनिवार्य है.

इन प्रावधानों का मकसद संक्रमणकाल के उस दौर में कश्मीर के साथ किसी तरह के भेदभाव की आशंका को खत्म करना था. लेकिन सच्चाई तो यह है कि इससे सबसे बड़ा नुकसान राज्य के लोगों का हो रहा है जो नागरिकता से लेकर मूल अधिकारों तक के लिए राज्य सरकार के रहमोकरम पर आश्रित हो गए हैं. संविधान का अनुच्छेद 139 कश्मीर में लागू नहीं होता, इसलिए राज्य के लोग अपने मूल अधिकारों को हासिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट नहीं आ पाते. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मौलिक अधिकारों पर जारी होने वाली रिटें कश्मीर में लागू नहीं होती हैं.

बहस अब क्यों

दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचारधारा की पोषक भाजपा के एजेंडे में शुरु से ही संविधान की मूल भावना के अनुरुप इस अस्थाई उपबंध की समीक्षा करना शामिल रहा है. पार्टी की दलील है कि बीते 65 सालों में अब तक एक बार भी इस पर विचार नहीं किया गया. अब केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने पर एक बार फिर यह बहस शुरु हो गई है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने भी इसका समर्थन किया है और समान नागरिक संहिता को भी लागू करने की वकालत कर मौजूदा कानूनी प्रावधानों में बड़े बदलाव के संकेत दे दिए हैं.

हालांकि मामले की गंभीरता और वक्त की नजाकत को देखते हुए मोदी सरकार फिलहाल मौन है और इस विषय पर फूंक फूंक कर कदम रख रही है. सरकार के वजूद में आते ही कश्मीर से भाजपा सांसद जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार करने की बात कह कर इस बहस को शुरु किया था मगर इस पर तुरंत तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरु होते ही कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया कि इस पर सरकार जल्द अपना रुख स्पष्ट करेगी.

मतलब साफ है कि मोदी सरकार इस मामले में पूरी तैयारी के साथ मैदान में कूदेगी. इसकी शुरुआत पाक अधिकृत कश्मीर पीओके का नाम पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर करने की प्रधानमंत्री कार्यालय की योजना से हो गई है. सरकार विवादित क्षेत्र से समूचे राज्य के लोगों को भावनात्मक तौर पर जोड़ने के लिए यह कवायद कर रही है. मजे की बात यह भी है कि कांग्रेसी नेता और महाराजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह ने भी समीक्षा की वकालत की है.

अनसुलझे सवाल

इस अस्थाई प्रावधान पर बहस कितनी भी कर ली जाए मगर सबसे बड़ा पेंच इसके अपने ही कुछ उपबंध बने हुए हैं. अनुच्छेद 370.3. में राष्ट्रपति को किसी भी समय इस प्रावधान को हटाने या फिर से लागू करने का अधिकार दिया गया है. किंतु ऐसा करने से पहले उसे राज्य की संविधान सभा से इस हेतु सहमति लेनी होगी. लेकिन 1954 में कश्मीर का संविधान लागू होने के बाद ही वहां की संविधान सभा भंग कर दी गई थी.

कानूनविद अब सवाल उठा रहे हैं कि एक अस्थाई प्रावधान को मंजूरी देने वाली संविधान सभा को हमेशा के लिए भंग क्यों किया गया और अगर ऐसा किया भी गया तो भारतीय संविधान की तरह इसमें संशोधन के अधिकार संसद को स्थानांतरित क्यों नहीं किए गए. स्पष्ट है कि यह सामान्य मानवीय भूल नहीं थी. कानूनविदों की राय में केन्द्र सरकार की यह मजबूरी 42वें संविधान संशोधन के बाद दूर हो गई जिसमें अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान में कहीं भी संशोधन करने की शक्ति दी गई है.

निःसंदेह हम कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग कहते हुए नहीं थकते हैं लेकिन कानून की किताबें हकीकत को कुछ और ही सूरत में बयां करती है. कानून भावनाओं के सहारे नहीं बल्कि तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर चलता है. बीते सात दशकों में सरकारों ने नासूर बनते कश्मीर को सियासी और जज्बाती नजरिये से ही देखा है. अब समय आ गया है जबकि सच्चाई को सामने रखकर फैसले किए जाएं और खुले दिमाग से अनुच्छेद 370 पर बहस को अंजाम तक ले जाया जाए.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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