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कहीं भव्यता, कहीं अंधेरा

१८ अक्टूबर २०१२

दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल का सबसे बड़ा त्योहार है. इस पर मंदी का कोई असर नजर नहीं आता. साल दर साल इसकी भव्यता और आयोजन पर खर्च बढ़ती जाती है. लेकिन प्रतिमाओं को गढ़ने वाले कलाकारों के जीवन में अंधेरा और गहरा रहा है.

तस्वीर: DW

दुर्गा पूजा के दौरान आयोजकों में एक दूसरे को पछाड़ने की अघोषित होड़ रहती है. सर्वश्रेष्ठ पूजा को मिलने वाले अवार्डों ने भी इस प्रतियोगिता को बढ़ा दिया है. इस साल कई ऐसी पूजा समितियां हैं, जिनका बजट एक करोड़ रुपये के पार पहुंच गया है. इनमें सबसे ज्यादा खर्च पंडाल बनाने और सजावट पर होता है. इनके अलावा बिजली की सजावट पर भी भारी रकम खर्च होती है.

भव्य होते आयोजन

महानगर के लेकटाउन इलाके में श्रीभूमि स्पोर्टिंग क्लब की पूजा का बजट इस साल 75 लाख रुपये पहुंच गया. आईटीसी और कोक प्रमुख प्रायोजक हैं. समिति के सचिव बीके गोस्वामी कहते हैं, "हमारा बजट इस साल पहले के मुकाबले बढ़ा है. लेकिन हमें प्रायोजक तलाशने में कोई दिक्कत नहीं हुई." अलीपुर के सुरुचि संघ का बजट भी 75 लाख से एक करोड़ के बीच है. एकडालिया एवरग्रीन का बजट 10 फीसदी बढ़ा है. समिति के संयुक्त सचिव गौतम मुखर्जी कहते हैं, "महंगाई और एक दूसरे से बेहतर आयोजन की बढ़ती होड़ से खर्च बढ़ना स्वाभाविक है." वह बजट का खुलासा तो नहीं करते. लेकिन कहते हैं कि इतनी भारी रकम जुटाने में कोई परेशानी नहीं हुई.

तस्वीर: DW

इस तरह की दर्जनों पूजा समितियां हैं, जिनको प्रायोजक बेहिचक मुंहमांगी रकम दे देते हैं. इसकी एक बड़ी वजह शायद यह भी है कि ऐसे तमाम आयोजनों से ममता बनर्जी सरकार के मंत्री, सांसद और विधायक जुड़े हैं. कोई समिति का अध्यक्ष है तो कोई संरक्षक. ऐसे में देशी विदेशी कंपनियां उनके लिए आसानी से अपने खजाने का मुंह खोल रही हैं.

क्यों बढ़ता है बजट

आयोजन समितियों का कहना है कि साल दर साल बढ़ती महंगाई की वजह से ऐसा हो रहा है. उनकी दलील है कि हर चीज की कीमत पिछले साल के मुकाबले लगभग दोगुनी बढ़ गई है. चाहे पंडालों के निर्माण में लगे कलाकरों का मेहनताना हो या चंदन नगर से आकर बिजली की सजावट करने वालोंका. एक आयोजक धीरेन पाल कहते हैं, "यह सही है कि पूजा का बजट साल दर साल बढ़ता जा रहा है. हर साल लोगों की उम्मीदें भी बढ़ती जा रही हैं. लोग यहां कुछ नया देखने की उम्मीद से आते हैं. उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए हमें अपना बजट बढ़ाना पड़ता है."

तस्वीर: DW

मूर्तिकारों की परेशानी

पूजा के आयोजनों पर सालाना बढ़ते खर्च के बावजूद इन जीवंत प्रतिमाओं को गढ़ने वालों के जीवन पर छाया अंधेरा कम होने का नाम नहीं ले रहा है. परदे के पीछे और प्रचार से दूर रह कर कड़ी मेहनत करने वाले मूर्तिकारों की हालत लगातार बिगड़ रही है.

इस भव्य आयोजन का लाभ उनको नहीं मिल पाता. उनके लिए अब यह काम पहले की तरह मुनाफा देने वाला नहीं रहा. कुमारटोली कलाकार इंद्रजीत पाल कहते हैं कि "युवा पीढ़ी अब इस पेशे में नहीं आना चाहती. हमारे कारोबार में निरंतर गिरावट आ रही है."

बड़ा कारोबार

हर साल पूजा के मौके पर मुहल्ले में लगभग 45000 मूर्तियां बनाती हैं. दो सप्ताह में यहां 300 करोड़ से ज्यादा का कारोबार होता है. 1000 से ऊपर कलाकार महीनों पहले से इसमें जुटे रहते हैं. यहां बनी मूर्तियां दुनिया भर में भेजी जाती हैं. बीते साल 20 देशों में 50 से ज्यादा मूर्तियां भेजी गईं. लेकिन अब इन कलाकारों को कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ा रहा है.

तस्वीर: DW

यहां के मूर्तिकार बैंकों से कर्ज लेकर मूर्तियां बनाते थे और बाद में मुनाफे से बैंक कर्ज चुकाते थे. उसके बाद भी उनके पास साल भर खाने के लिए पर्याप्त रकम बच जाती थी. लेकिन अब बैंकों की ओर से ब्याज दर बढ़ाए जाने से उनके सामने समस्या पैदा हो गई है. मुहल्ले में काम करने लायक हालत भी नहीं हैं. नतीजतन मूर्ति बनाने की कला धीरे धीरे दम तोड़ती नजर आ रही है. कुमारटोली मृतशिल्पी सांस्कृतिक समिति के सचिव बाबू पाल कहते हैं, "ऊंची ब्याज दर ने रहा सहा मुनाफा भी खत्म कर दिया है. कच्चे माल की कीमतें भी तेजी से बढ़ी हैं. लेकिन आयोजक मूर्तियों की ज्यादा कीमतें देने के लिए तैयार नहीं हैं."

सदियों से दुर्गा से लेकर सरस्वती व लक्ष्मी तक की मूर्तियां गढ़ने वाले इन कलाकारों की ओर से लगता है दुर्गा व लक्ष्मी ने तो आंखें ही फेर ली हैं. कुमारटोली के मूर्तिकारों का कहना है कि राज्य सरकार ने अगर कदम नहीं उठाए तो मूर्ति गढ़ने की पारंपरिक कला और मूर्तिकारों का यह मुहल्ला धीरे धीरे इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः ए जमाल

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