कानपुर मुठभेड़, विकास दुबे और पुलिस की कार्रवाई
८ जुलाई २०२०विकास दुबे का पता पुलिस भले ही न लगा सकी हो लेकिन मंगलवार देर रात यूपी एसटीएफ ने विकास दुबे के बेहद करीबी अमर दुबे को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया है और चौबेपुर थाने के सभी 68 पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया गया है लेकिन विकास दुबे तक पुलिस और एसटीएफ अभी तक नहीं पहुंच पाई है. इस बीच जो बातें पता चली हैं वो बेहद गंभीर और चौंकाने वाली हैं. साथ ही, विकास दुबे की तलाश में अब तक की गई पुलिस कार्रवाई पर भी कई सवाल उठ रहे हैं.
घटना के बाद से ही यानी तीन जुलाई से ही पुलिस ने बिकरू गांव को पूरी तरह से घेर दिया है. अगले दिन यानी शनिवार को विकास दुबे के आलीशान किलानुमा मकान और कई लक्जरी गाड़ियों को कानपुर जिला प्रशासन और पुलिस ने ढहा दिया. प्रशासन ने तो पहले इसकी कोई वजह नहीं बताई लेकिन बाद में कानपुर पुलिस ने बताया कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि विकास दुबे के इस मकान में भारी संख्या में गोला-बारूद और असलहे रखे हुए थे.
लेकिन कानूनी जानकारों की नजर में किसी भी अभियुक्त या किसी अपराध में दोषी व्यक्ति का मकान गिराना कहीं से भी कानून संगत नहीं है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ए क्यू जैदी कहते हैं कि कानून किसी भी तरह की बदले की भावना से कार्रवाई की इजाजत नहीं देता है. वो कहते हैं, "स्टेट के पास किसी को सजा देने का कोई प्रावधान नहीं है. मुलजिम को पकड़कर अदालत में हाजिर करने तक उसकी भूमिका होती है और उसकी एक कानूनी प्रक्रिया है. पहले नोटिस दिया जाता है, फिर वारंट जारी किया जाता है और तब भी नहीं आता तो कुर्की की प्रक्रिया शुरू की जाती है. लेकिन संपत्ति को नष्ट करने का अधिकार कतई नहीं है.”
पुश्तैनी मकान पर कोई मुकदमा नहीं
मुठभेड़ की घटना के बाद मुख्य अभियुक्त विकास दुबे की तलाश में पुलिस की दर्जनों टीमें लगाई गई हैं, सैकड़ों फोन नंबर्स को सर्विलांस पर लगाया गया है और कई लोगों को हिरासत में भी लिया गया है लेकिन विकास दुबे का सुराग पुलिस को अभी तक नहीं मिल सका है. विकास दुबे का मकान गिराने संबंधी पुलिस की इस कार्रवाई की सोशल मीडिया पर भी काफी आलोचना हो रही है. लोग यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि विकास दुबे का यह पैतृक मकान किस वजह से तोड़ा गया क्योंकि मकान अवैध तरीके से बना था, इसके कोई प्रमाण उसके पास हैं नहीं और न ही किसी तरह का कोर्ट का नोटिस इस संबंध में है.
ये सवाल न सिर्फ कानपुर जिला प्रशासन से बल्कि सरकार से भी पूछे जा रहे हैं. रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉक्टर वीएन राय कहते हैं कि इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना कार्रवाई किसी सरकार की हो नहीं सकती है. डॉक्टर राय कहते हैं, "इसका फैसला जिला स्तर पर नहीं बल्कि शासन स्तर पर लिया गया होगा. लेकिन अदालत में यदि यह मामला गया तो भुगतना निचले अधिकारियों को ही पड़ेगा जिन्होंने इस कार्रवाई को अंजाम दिया है. सरकार का कुछ नहीं होगा.”
मुकदमे के बदले सीधे कार्रवाई
कानूनी जानकार सरकार की ऐसी प्रवृत्ति को लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक मानते हैं जहां राज्य सीधे तौर पर कानून को चुनौती दे रहा है. कानूनविद सूरत सिंह कहते हैं कि न्यायपालिका को ऐसे मामले में खुद संज्ञान लेते हुए सवाल पूछने का भी अधिकार है कि सरकार ने यह काम किस अधिकार के तहत किया है. न्यायिक सक्रियता मामले में ऐसे प्रकरण कई बार सामने आए हैं जब कार्यपालिका और न्यायपालिका में सीधा टकराव हुआ है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसमें काफी कमी आई है. न्यायपालिका, सरकार के कार्यों में कम ही हस्तक्षेप कर रही है.
सूरत सिंह कहते हैं कि दरअसल, न्यापालिका को कमजोर करने के लिए ही तमाम कानून बन रहे हैं. जब कानून में ही परिवर्तन कर दिया जाएगा तो न्यायपालिका कुछ नहीं कर सकती है. हां, जब तक कानून के दायरे से बाहर जाकर सरकार कार्रवाई कर रही है, तब तक न्यायपालिका के पास हस्तक्षेप के पर्याप्त आधार हैं. कानपुर के बिकरू गांव स्थित विकास दुबे के मकान को ध्वस्त करने के साथ ही प्रशासन ने कई साक्ष्य भी नष्ट कर दिए जो कि इस मुकदमे में बेहद अहम कड़ी साबित हो सकते थे लेकिन पुलिस का कहना है कि उसने साक्ष्य सुरक्षित कर लिए हैं.
यूपी सरकार का राजनीतिक विरोध
राजनीतिक विश्लेषक अमिता वर्मा कहती हैं कि सरकार की यह कार्रवाई ठीक वैसी ही है जैसी कि सीएए प्रदर्शन के दौरान कुछ लोगों को अभियुक्त बताते हुए उनसे रिकवरी करने संबंधी चौराहों पर पोस्टर टंगवा दिए थे. अमिता वर्मा कहती हैं, "रिकवरी तो अभी तक नहीं हुई लेकिन सरकार का मकसद एक खास संदेश देना था. वही इस मामले में भी दिख रहा है. सरकार अपनी नाकामी छिपाने के लिए ऐसी कार्रवाइयों के माध्यम से कड़ी कार्रवाई करने का संदेश देना चाहती है. जबकि सच्चाई यह है कि पांच दिन बाद भी मुख्य अभियुक्त पकड़ में नहीं आया है.”
इस बीच, इस हत्याकांड से भी ज्यादा चर्चा इस बात पर हो रही है कि इस मुठभेड़ में पुलिस की भूमिका कैसी थी. विकास दुबे के खिलाफ साठ मुकदमे एक ही थाने में दर्ज होने के बावजूद उसके खिलाफ पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती थी. विकास दुबे को लेकर इलाके के पुलिस अधिकारियों में भी आपस में मतभेद थे. इस घटना में मारे गए पुलिस क्षेत्राधिकारी देवेंद्र मिश्र की करीब तीन महीने पहले एसएसपी को लिखी हुई एक चिट्ठी वायरल हो रही है जिसमें उन्होंने विकास दुबे का कथित तौर पर काला चिट्ठा खोला है और इलाके के थानाध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि वो विकास दुबे से हमदर्दी रखते हैं. इस बारे में थानाध्यक्ष, सीओ और तत्कालीन एसएसपी के बीच की बातचीत का भी ऑडियो वायरल हो रहा है.
राजनीति, पुलिस और माफिया
कानपुर में हुए इस मुठभेड़ के बाद राजनीति, पुलिस और माफिया के गठजोड़ की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है. विकास दुबे के जिस तरह से सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और बड़े अधिकारियों के साथ संबंध उजागर हो रहे हैं, वो इस बहस को और हवा दे रहे हैं. दरअसल, न सिर्फ विकास दुबे, बल्कि इस तरह के न जाने कितने कथित माफिया और अपराधी हैं जो राजनीतिक दलों से संबंध रखते हुए अपराध के माध्यम से आर्थिक समृद्धि हासिल करते रहे हैं और इससे राजनीतिक दलों को भी लाभ पहुंचाते रहे हैं. वास्तव में राजनीतिक दलों में ऐसे तत्वों की मौजूदगी और इनकी उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है.
केवल यूपी में ही देखें तो सुप्रीम कोर्ट की तमाम सख्ती के बावजूद ऐसे लोगों की न सिर्फ पर्दे के पीछे से बल्कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी भी है. यूपी की मौजूदा विधानसभा में भी ढेरों मुकदमों का सामना करने वाले लोग चुनाव जीतकर पहुंचे हैं और ऐसे लोग सभी पार्टियों में हैं. न सिर्फ राजनीतिक पहुंच, बल्कि पुलिस महकमे में भी अपराधियों की न सिर्फ पहुंच होती है बल्कि गठजोड़ रहता है. विकास दुबे का बिकरू गांव जिस चौबेपुर थाने के अंतर्गत आता है, उसके सभी पुलिसकर्मियों पर इस आशंका में कार्रवाई हुई है कि उन्होंने विकास दुबे का साथ दिया. इसके अलावा उंगलियां कानपुर के तत्कालीन एसएसपी अनंतदेव पर भी उठ रही हैं और शासन ने उन्हें भी एसटीएफ से हटाकर दूसरी जगह भेज दिया है ताकि जांच प्रक्रिया बाधित न हो.
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