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कितना असर करती हैं बॉलीवुड फ़िल्में

२६ सितम्बर २००९

दोस्तों के साथ मौजमस्ती करनी हो या बाहर घूमने जाना है, ऐसे में भारत में बहुत लोग सिनेमा का रूख़ करते हैं. कह सकते है कि भारत में फ़िल्में आम ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं. लेकिन सवाल यह है कि यह हम पर किस तरह असर डालती हैं.

फिल्मों से बदलता फैशनतस्वीर: Eros International

पेशे से रेडियो जॉकी गौरव कहते हैं कि उनका जो हेयर स्टाइल है, वह उन्होंने "रंग दे बसंती" में कुणाल कपूर को देखकर अपनाया था. वहीं महेश आंध्र प्रदेश से हैं और फ़िलहाल जर्मनी में रहकर आईटी की पढ़ाई कर रहे हैं. आम जीवन पर फ़िल्मों के असर के बारे में वह कहते हैं, "जिस तरह के कपड़े वे पहनते हैं, पता चलता है कि किस तरह का फ़ैशन चल रहा है. इसका मेरी ज़िंदगी पर कुछ तो असर पड़ता ही है."

हेयर स्टाइल बदलते देते हैं आमिरतस्वीर: UNI

अब तो बॉलीवुड फ़िल्मों का दायरा दूसरे देशों तक फैल गया है जिनमें जर्मनी भी शामिल है. इम्के वेंट जर्मन हैं. उनका कहना है कि बॉलीवुड दिलचस्प तरीक़े से दो संस्कृतियों को जोड़ रहा है और ख़ुद उन्होंने इसे महसूस किया है. वह कहती हैं, "जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी पहुंची तो मुझे कुर्ता या फिर चूड़ीदार पहनना अच्छा लगता था लेकिन मेरे छात्र हमेशा जींस और टीशर्ट में आते थे. वे कहते इम्के आप जर्मनी से हैं. ये क्या पहना है आज आपने."

बिल्कुल फ़िल्मों के ज़रिए नौजवान फ़ैशन के नए ट्रेंड को जान लेते हैं और उसे अपनाते भी है. तो क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि कई फ़िल्में जो एक तरह का सामाजिक संदेश देने की कोशिश करती हैं, उसे भी युवा पीढ़ी अपनाती होगी. या फिर बॉलीवुड फिल्मों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह कोई सामाजिक संदेश भी देंगी. महेश कहते हैं, "दिक़्क़त यह है कि फ़िल्म के ज़रिए जो भी संदेश आप देते हैं, उसे लोग दो तीन घंटे तक ही देखते हैं और फिर भूल जाते हैं."

बॉलिवुड के शहंशाह बिग बीतस्वीर: AP

वहीं कई बार देखा गया है कि अगर फ़िल्म में कोई बात दिलचस्प और प्रभावी तरीके से कही गई है तो वह लोगों को याद रहती है और वह अपनी ज़िंदगी में वह उस पर अमल करते हैं. गौरव कहते हैं कि अगर "रंग दे बसंती" देखकर कई लोग किसी बात पर विरोध जताने के लिए अमर जवान ज्योति पर पहुंचकर मोमबत्ती जलाते हैं या फिर "लगे रहो मुन्ना भाई" देखकर लोग गांधीगिरी करते हैं तो यह फ़िल्मों का आम जीवन पर पड़ने वाला सामाजिक असर ही है तो है." लेकिन दूसरी तरफ़ हम ऐसी भी फ़िल्में देखते हैं, जिनमें दिया संदेश बहुत साफ़ और प्रभावी होता है. उन्हें तारीफ़ मिलती है. बावजूद इसके वह फ़िल्में चल नहीं पाती. गौरव इसकी भी एक अच्छी मिसाल देते हैं. वह कहते हैं, "स्वदेश में एक व्यक्ति की ज़िद दिखाई गई है कि भारत में चीज़े बेहतर हों, लेकिन शाहरूख़ ख़ान के बावजूद यह फ़िल्म नहीं चल पाई."

वाक़ई जब अच्छी फ़िल्में नहीं चलती हैं तो फ़िल्म निर्माता और निर्देशक हिट फ़ॉर्मूले की तलाश में मसाला फ़िल्में ही बनाना सबसे सुरक्षित समझते हैं. लीक से हटकर बनाई गई फ़िल्म "रंग दे बंसती" लोगों को बेहद पसंद आई, लेकिन उन्हीं निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की अगली फ़िल्म "दिल्ली 6" को लोगों ने नकार दिया. महेश कहते हैं, "दिल्ली 6 एक अच्छी फ़िल्म थी, जिसमें एक संदेश देने की कोशिश की गई. लेकिन वह फ़िल्म अच्छा कारोबार नहीं कर पाई."

जर्मनी में बॉलीवुड डांस का भी बढ़ रहा है चलनतस्वीर: picture-alliance/ dpa

वैसे कारोबार के लिए तो अब बॉलीवुड ने नए रास्ते तलाश लिए हैं. अब फ़िल्में भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी रिलीज़ हो रही हैं. कहीं न कहीं उनसे भारत की नई ब्रैडिंग भी हो रही है. हालांकि कई लोग जानते हैं कि बॉलीवुड फ़िल्में भारत की सच्ची तस्वीर पेश नहीं करतीं. इम्के कहती हैं, "हां ये बात तो पक्की है कि वह असलियत को नहीं दिखाते हैं, लेकिन फ़िल्म को देखते हुए आप कुछ तो कल्पना करते ही हैं कि भारत में चीज़ें ऐसी हैं वैसी हैं. आप विचारों के ज़रिए नहीं, बल्कि फ़िल्म के ज़रिए भारत के बारे में सोचते हैं."

बात सही है कि करोड़ों में बनने वाली फ़िल्में अगर कारोबार न करें तो पैसा डूब जाता है. लेकिन इन दिनों बढ़ते मल्टीप्लैक्स के चलन से नया देखने की चाह रखने वाले दर्शकों को कई अच्छी फ़िल्में मिल रही हैं. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कुछ लोग हैं जो वाकई अच्छी और क्रिएटिव फ़िल्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ सामाजिक संदेश भी देना चाहते हैं. लेकिन ज्यादा भाषणबाज़ी भी किसी को बर्दाश्त नहीं है. जैसा कि बहुत से नौजवान कहते हैं. वे टेंशन दूर करने के लिए फ़िल्में देखने जाते हैं न कि टेंशन लेने के लिए.

रिपोर्टः अशोक कुमार

संपादनः महेश झा

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