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कितना सफल रहा आईसैफ मिशन

१८ अक्टूबर २०१३

बढ़ता उग्रवाद, बेकाबू भ्रष्टाचार और एक कमजोर सरकार. अफगानिस्तान से नाटो सेना के निकलने से एक साल पहले लोगों को शक है कि स्थानीय सुरक्षा एजेंसियां इन पर नियंत्रण शायद ही कर पाए.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

सात अक्टूबर को एक इंटरव्यू में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने कहा था, ''सुरक्षा के मोर्चे पर नाटो के पूरे अभ्यास के कारण अफगानियों ने बहुत कुछ झेला है. कई जानें गईं और कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि देश सुरक्षित नहीं है."

अमेरिकी हमले के एक दशक बाद भी अफगानिस्तान में स्थिरता नहीं आने से करजई ने इस इंटरव्यू में नाटो की कड़ी आलोचना की थी. हालांकि इन दावों को नाटो के महासचिव आंदर्स फोग रासमुसेन ने सिरे खारिज कर दिया.

सुरक्षा हालात लचरतस्वीर: Reuters

एक प्रेस कांफ्रेंस में रासमुसेन ने दलील दी कि अफगानिस्तान ने लंबा सफर तय किया है. रासमुसेन के मुताबिक, ''अफगानिस्तान में परिवर्तन उल्लेखनीय है, लोगों और संसाधनों में हमारा निवेश अभूतपूर्व है. कोई इससे इनकार नहीं कर सकता और इन कोशिशों की इज्जत करनी चाहिए."

आईसैफ मिशन का प्राथमिक उद्देश्य अफगानिस्तान सरकार को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करना है जिससे युद्धग्रस्त राष्ट्र दोबारा आतंकियों का सुरक्षित ठिकाना न बन पाए. हालांकि अंतरराष्ट्रीय सैनिकों के जाने से एक साल पहले जानकारों को लगता है कि नतीजे मिले जुले होंगे.

कुछ जानकारों का तर्क है कि अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन का मारा जाना और अफगानिस्तान से तालिबान का सफाया इस बात के सबूत हैं कि आईसैफ का मिशन कामयाब रहा. अफगानिस्तान से तालिबान के खात्मे के बाद अल कायदा के आतंकियों को वहां सुरक्षित ठिकाना नहीं मिला. लेकिन कुछ जानकारों का कहना है कि मिशन की शुरुआती कामयाबी खतरे में है और नाटो अफगानिस्तान को सिर्फ युद्धग्रस्त देश दे रहा है.

वाशिंगटन स्थित वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स के दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ मिषाएल कुगलमन ने डॉयचे वेले को कहा, "तालिबान सत्ता में नहीं है, अभी भी वो कब्जे की धमकी देता है." वास्तव में अफगानिस्तान के दक्षिण और पूर्वी इलाकों में विद्रोहियों का कब्जा है. हालांकि अल कायदा को अफगानिस्तान में शरण नहीं मिली लेकिन वो पाकिस्तान में मौजूद है.

जंग की ऊंची कीमत

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने पिछले 12 साल से अफगानिस्तान में मौजूदगी की भारी कीमत चुकाई है. ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूट द्वारा जुटाएं आंकड़ों के मुताबिक साल 2001 में हमले के बाद से गठबंधन सेना के 3300 जवानों की मौत हो चुकी है. सबसे ज्यादा अमेरिकी सैनिकों की मौतें हुईं. अमेरिकी फौज के करीब 2156 जवानों ने जंग में अपनी जान गंवाई. इसके अलावा अमेरिका को ही सिर्फ 660 अरब डॉलर का आर्थिक बोझ पड़ा. इस रकम में से 56 अरब डॉलर अफगान फौज की ट्रेनिंग पर खर्च किए गए.

उच्च मानवीय और आर्थिक लागत के चलते के कई जानकारों को सवाल खड़े करने का मौका मिल गया है. खासतौर पर क्योंकि सुरक्षा के लिहाज से अफगानिस्तान के हालात लचर हैं और संघर्ष का नुकसान आम आदमी को उठाना पड़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी यूएनएचसीआर के मुताबिक तालिबान और अन्य उग्रवादी संगठनों ने अपने तरीके पर बदलाव करते हुए अंतरराष्ट्रीय सैनिकों के बजाय आम नागरिकों पर हमला करना शुरू कर दिया है. अब वो ग्रामीण इलाकों में पकड़ बनाने के लिए स्थानीय नेताओं पर हमले कर रहे हैं.

कैसे निपटेगी सुरक्षा एजेंसी?

बढ़ती हिंसा के बीच स्थानीय सुरक्षा एजेंसियों की क्षमता पर संदेह है कि क्या वो उग्रवाद से निपटने में कामयाब हो पाएगी और पूरे देश में सरकार का प्रभुत्व लागू करा पाएगी. कुगलमन को लगता है कि अफगान फौज का एक हिस्सा बड़ी मुश्किल में है.

ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूट की वरिष्ठ फेलो वैंडा फेलबाब ब्राउन का कहना है, ''अफगान सेना साजो सामान की कमी से जूझ रही है. साथ ही भाई भतीजावाद भी बहुत है. इसके अलावा भ्रष्टाचार चरम पर है." ब्राउन के मुताबिक नाटो सेना की वापसी के बाद हालात और खराब होंगे. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने वापसी के बाद भी ट्रेनिंग, सलाह और वित्तीय सहायता जैसी चीजों में अफगानिस्तान की मदद का वादा किया है. फिर भी कई सवालों के जवाब नहीं है.

थोड़ी सफलतातस्वीर: DW/H. Hashimi

कुछ बदलाव

कुछ कमियों के बावजूद जानकारों का मानना है कि देश के कुछ इलाकों में सुरक्षा के क्षेत्र में सुधार हुआ है. खास तौर पर काबुल और उसके आस पास. वित्तीय मदद के बाद हजारों लोगों के जीवन में बदलाव आया है. इस वजह से स्कूलों में दाखिले में तेजी आई है. दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या 10 लाख से बढ़कर 78 लाख हो गई है. यही नहीं महिलाओं की हालत भी सुधरी है.

कुगलमन के मुताबिक, ''आइसैफ मिशन के बाद सड़कें बन गईं हैं, लड़कियां स्कूल जाने लगी और बाजारों में रौनक है. सफलता का पैमाना इस बात पर निर्भर करेगा कि ये लाभ आने वाले सालों में निरंतर कायम रहता है या नहीं.''

रिपोर्ट: श्रीनिवास मजूमदारू, गाब्रिएल डोमिंगोज (एए)

संपादनः आभा मोंढे

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