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कितने जरूरी छोटे राज्य

२ अगस्त २०१३

अभी तेलंगाना राज्य के निर्माण की संवैधानिक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, लेकिन उसके गठन का फैसले के बाद अब यह औपचारिकता है. लोकसभा चुनाव होने में एक साल भी नहीं बचा है, इसलिए अब 2009 के दुहराये जाने की संभावना नगण्य है.

उस समय केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने स्वयं घोषणा की थी कि पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू की जाएगी और इसके आधार पर तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चन्द्रशेखर राव ने अपना आमरण अनशन तोड़ दिया था, लेकिन फिर सरकार वादे से मुकर गई. लेकिन अब उसके लिए फिर से वादाखिलाफी करना आसान नहीं होगा.

आंध्र प्रदेश को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का फैसला आते ही देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के निर्माण के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आ गई है. गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड आदि अनेक राज्यों की मांग के समर्थन में हड़तालों और प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया है और लगता है अभी काफी समय तक चलेगा. इस घटनाक्रम को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त करके उससे कहना चाहिए कि वह नए राज्यों के निर्माण यानी राज्यों के पुनर्गठन की समस्या के राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और प्रशासनिक- सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करके अपने रिपोर्ट पेश करे जिसके आधार पर सरकार भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित मानक नीति तैयार करके उस पर अमल कर सके?

जब तक यह नहीं होता, सरकार तदर्थतावाद की नीति पर चलती रहेगी जिसके कारण नए नए विवाद उत्पन्न होंगे. उसके लिए इस प्रश्न का उत्तर देना भी निरंतर कठिन से कठिनतर होता जाएगा कि जब 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने तीन नए राज्य झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल बनाए और अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार तेलंगाना का निर्माण कर रही है, तो फिर अन्य छोटे राज्यों के निर्माण की मांग की अनदेखी किस आधार पर की जा रही है? इसलिए सरकार को नए राज्यों के निर्माण का तर्कसंगत आधार तैयार करने के लिए द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त करना चाहिए. प्रथम आयोग को दिसंबर 1953 में नियुक्त किया गया था और उसकी सिफारिशों की आधार पर 1956 में भाषाई राज्यों का निर्माण हुआ था.

विरोध भी जारीतस्वीर: NOAH SEELAM/AFP/Getty Images

केवल हिन्दी क्षेत्र में कई पृथक राज्य बनाए गए थे क्योंकि यह क्षेत्र अपने आकार में इतना विशाल था कि इसे एक राज्य की प्रशासनिक सीमा के भीतर नहीं समेटा जा सकता था. भाषाई राज्यों के निर्माण के पीछे यह मान्यता काम कर रही थी कि भाषा संस्कृति का आधार है. प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना के पीछे अक्तूबर 1953 में मद्रास प्रांत में से तेलुगुभाषी हिस्से को काटकर आंध्र प्रदेश बनाए जाने की घटना थी क्योंकि इस मांग को लेकर प्रसिद्ध गांधीवादी स्वतन्त्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनशन करके अपनी जान गंवा चुके थे. अनशन के इतिहास में यह दूसरा अवसर था जब किसी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इसके पहले क्रांतिकारी जतिन दास की ब्रिटिश सरकार की जेल में भूख हड़ताल करते हुए जान गई थी.

लेकिन तेलंगाना की समस्या तब पैदा हुई जब निजाम हैदराबाद की रियासत के क्षेत्र को भी आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया. यह बेमेल शादी थी क्योंकि दोनों क्षेत्र हालांकि तेलुगूभाषी थे पर आंध्र की भाषा अधिक संस्कृतनिष्ठ थी जबकि तेलंगाना की भाषा दकनी हिन्दी उर्दू हिंदुस्तानी और तेलुगू का मिश्रण थी. प्रशासनिक दृष्टि से भी भाषा का फर्क स्पष्ट था. आंध्र में सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होता था तो तेलंगाना में उर्दू में. आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से आंध्र काफी आगे था पर हैदराबाद जैसा विशाल और उन्नत नगर तेलंगाना में ही था.

केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि अगले दस वर्षों तक हैदराबाद आंध्र और तेलंगाना दोनों की राजधानी रहेगा. आशंका यह है कि जिस तरह से चंडीगढ़ पर रह रहकर पंजाब और हरियाणा के बीच तनाव फूट पड़ता है और वह 40 साल बाद भी दोनों की संयुक्त राजधानी बना हुआ है, कहीं हैदराबाद की स्थिति भी ऐसी ही न हो जाए.

दरअसल राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व को, जिसने स्वाधीन भारत के संविधान के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और केन्द्रीय भूमिका निभाई, इस सच्चाई का गहराई के साथ अहसास था कि जब जब केंद्रीय सत्ता कमजोर हुई है और देश छोटी छोटी रियासतों में बंटा है, तब तब देश असुरक्षित हुआ है और विदेशी आक्रमणों का सामना करने में असफल रहा है. इसलिए वे चाहते थे कि केन्द्रीय सत्ता मजबूत रहे और राज्यों की संख्या भी कम रहे. लेकिन भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का काम अधूरा ही रहा है और अब समय आ गया है जब इस समस्या पर नए नजरिए से सोचने की जरूरत है.

तेलंगाना की घोषणा पर खुश होते समर्थकतस्वीर: Reuters

यह तर्क भी पूरी तरह से सही नहीं है कि छोटे राज्य प्रशासनिक दृष्टि से बेहतर होते हैं और वहां विकास भी तेजी से होता है. छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का अनुभव भी मिला जुला ही रहा है. भारत में औसतन साढ़े तीन करोड़ लोग एक राज्य में रहते हैं जबकि ब्राजील के लिए यह संख्या 70 लाख, अमेरिका के लिए 60 लाख और नाइजीरिया के लिए 40 लाख है. लेकिन भारतीय राज्य क्षेत्रफल की दृष्टि से काफी छोटे हैं और प्रति व्यक्ति घनत्व काफी कम है. नए राज्यों को चलाने के लिए नई विधानसभा, नया सचिवालय, नए हाई कोर्ट, नए विश्वविद्यालय यानी पूरा तंत्र खड़ा करना पड़ता है जिस पर बहुत अधिक खर्च आता है. इनसे क्षेत्रीयता की भावना पुष्ट और राष्ट्रीयता की कुछ क्षीण होती है. यदि निकट भविष्य में नया राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया जाता है, तो उसे इन सभी प्रश्नों पर विचार करके इनके जवाब खोजने होंगे.

ब्लॉगः कुलदीप कुमार, दिल्ली

संपादनः अनवर जे अशरफ

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