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कितने सफल जर्मन विदेश मंत्री

७ सितम्बर २०१३

अंगेला मैर्केल ने मजबूत चांसलर के तौर पर पहचान बनाई लेकिन मौजूदा विदेश मंत्री गीडो वेस्टरवेले की छवि कमजोर नेता के तौर पर उभरी. इस जोड़ी के साथ जर्मनी कहां से कहां पहुंचा. पिछले चार साल में वेस्टरवेले कितने सफल रहे.

तस्वीर: MIA

पिछले चुनाव में विपक्षी खेमे के गीडो वेस्टरवेले की यह बड़ी जीत रही. वेस्टरवेले की खिल्ली उड़ाई जाती थी और उन पर कई आक्रमण भी हुए लेकिन 2009 के आम चुनाव में उनकी पार्टी को 15 प्रतिशत मत हासिल हुए और उनकी किस्मत बदल गई. वे विदेश मंत्री और उप चांसलर बने. लेकिन सरकार में आने के बाद वे थोड़ा लड़खड़ाए, क्योंकि पहले तो उन्होंने देश के भीतर के मामलों में दखलंदाजी की और विदेश मामलों पर कम ध्यान दिया.

2011 अप्रैल में उन्होंने उदारवादी पार्टी एफडीपी के प्रमुख के पद से इस्तीफा दिया और उप चांसलर के पद से भी हट गए. इसके बाद विदेश मंत्री के तौर पर उन्होंने अपने जिम्मेदारियों पर ज्यादा ध्यान दिया. सीडीयू के नेता रूपरेश्ट पोलेंस वेस्टरवेले की तारीफ करते हुए कहते हैं, "हर व्यक्ति को पता है कि वह अब दिल और जान से विदेश मंत्री हैं." वेस्टरवेले मुद्दों को उठाते हैं, वह बहस में शामिल होते हैं और कोशिश करते हैं कि आगे बढ़ते यूरोप में जर्मनी की जरूरतें भी पूरी हों, "वह चारों ओर ध्यान देने वाले नेता हैं, मतलब वह ऐसे नहीं जो जर्मनी को अकेले आगे की राह पर ले जाने की बात कर रहे हों. मुझे यह अच्छा लगता है. वेस्टरवेले अपने पद में खरे उतरे हैं."

चांसलर मैर्केल ने भी दी विदेश नीतियों में दखलतस्वीर: dapd

मजबूत चांसलर कमजोर विदेश मंत्री

राजनीतिशास्त्री गुंटर हेलमान का मानना है, "वेस्टरवेले इस बीच आत्मविश्वास से भरे विदेश मंत्री बन गए हैं." लेकिन मैर्केल के साथ काम करने की वजह से उनके पास नीति तय करने की आजादी कम है. "एक चांसलर जो इस बीच बहुत ही तय कार्यक्रम के मुताबिक काम करती हैं, उनके साथ किसी भी विदेश मंत्री का काम करना मुश्किल है."

लिस्बन समझौते के साथ विदेश मंत्रालय के कई फैसले अब चांसलर की जिम्मेदारी बन गए हैं. हेलमान कहते हैं कि मैर्केल खूब समझती हैं कि कैसे विदेश मामलों में वह अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सकती हैं और किस तरह वह विदेश मामलों के तकलीफदेह फैसलों को विदेश मंत्री पर छोड़ सकती हैं. 2011 मार्च में यह बात बिलकुल साफ हो गई जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने लीबिया के हवाई क्षेत्र पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया. रूस और चीन के साथ वेस्टरवेले ने इस फैसले का विरोध किया. जर्मनी में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी कड़ी आलोचना की.

हेलमान के मुताबिक चांसलर मैर्केल और रक्षा मंत्री थोमास डे मेजियेर का इस फैसले में बड़ा हाथ था. लेकिन वे इस विवादित मुद्दे से बाहर रहे और वेस्टरवेले को इस फैसले के लिए अकेले आलोचना झेलनी पड़ी, "उन्होंने अपनी तरफ से एक अच्छा मुहरा चला और मुझे लगता है कि वेस्टरवेले ने भी उस वक्त कुछ गलतियां कीं, जिनसे वह बच सकते थे, अगर वह थोड़ा ध्यान से आगे बढ़े होते." लेकिन हेलमान को लगता है कि वेस्टरवेले को आखिरकार चांसलर और रक्षा मंत्री के साथ में अपनी जगह मिल गई है.

एसपीडी में विदेश मामलों के नेता रोल्फ मुत्सेनिश भी इस बात से सहमत हैं. उन्हें भी लगता है कि वेस्टरवेले पिछले चार साल में ऊपर आए हैं लेकिन फिर भी यह जानना मुश्किल है कि विदेश मंत्री ने किन मुद्दों पर खास ध्यान दिया. 2012 फरवरी में जर्मन सरकार ने जिस विदेश नीति की संकल्पना पेश की, उसका कुछ नहीं हुआ. उन्होंने चीन, कजाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों को 'नीति तय करने वाले' देशों की उपाधि दी और वहां मानवाधिकार और लोकतंत्र की स्थिति को देखे बिना उन्हें रणनीतिक साझेदार बनाने की घोषणा की. और फिर यह भी नहीं बताया कि इन देशों से नाता रखने का मकसद क्या है. मुत्सेनिश के मुताबिक, "तय करने वाले देशों की संकल्पना शायद नियमों की एक सूची जैसी है, जिसमें लिखा है कि किन देशों को हथियार दिए जाएंगे." मुत्सेनिश यह भी मानते हैं कि वेस्टरवेले ने अपनी दक्षिण अमेरिका रणनीति को भी आगे नहीं बढ़ाया.

एसपीडी के रोल्फ मुत्सेनिशतस्वीर: DW

रूस के साथ भी स्थिति बेहतर नहीं है. वेस्टरवेले रूस के पूर्व राष्ट्रपति दिमित्री मेद्वेदेव को और ताकतवर बनाने में, देश में नई सुरक्षा प्रणाली लाने में और उसे सहयोग देने में असमर्थ रहे. मुत्सेनिश के मुताबिक, "मैं यह बिलकुल स्वीकार नहीं कर सकता कि उन्होंने कैसे हथियार निर्यात के मामले में कोई भूमिका नहीं निभाई. मुझे लगता है कि इस मामले में विदेश मंत्री को एक बिलकुल अलग भूमिका लेनी चाहिए थी, खास कर इसलिए क्योंकि वह कहते हैं कि वह एक मूल्यों की विदेश नीति चलाना चाहते हैं."

वेस्टरवेले यह बोलकर पद पर आए कि वह परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए खड़े होंगे. लेकिन यह दावा इस बात के खिलाफ जाता है कि जर्मन सरकार सऊदी अरब को हथियार बेच रही है.

मैर्केल की नीति

जुलाई 2011 में जर्मन सुरक्षा परिषद ने तय किया कि जर्मनी लेपर्ड नाम के 200 लड़ाकू टैंक सऊदी अरब को बेचेगा. इससे बड़ा विवाद छिड़ा. इससे कुछ ही दिन पहले मार्च 2011 में सऊदी सैनिकों ने बहरीन में धावा बोला. सऊदी सेना ने वहां नागरिक विरोध रोकने का प्रयास करने वाले शासन की मदद की.

रियाद को हथियार देने की नीति मैर्केल डॉक्ट्रीन के तहत आती है. इसके मुताबिक जर्मनी संघर्षरत इलाकों में अपने सैनिकों को भेजने की बजाय वहां हथियार देता है ताकि वह अपने इलाकों की सुरक्षा कर सकें.

हथियार सौदों पर उठे सवालतस्वीर: imago

2011 अक्तबूर में जर्मन चांसलर ने अपनी यह नीति साफ तौर पर पेश की थी. हैम्बर्ग में उन्होंने कहा, "जो शांति को सुरक्षित करने के लिए जिम्मेदारी लेता है, लेकिन जो दुनिया भर में शांति कायम रखने के लिए एक सक्रिय भूमिका नहीं ले सकता, वह कम से कम अपने भरोसेमंद साथियों की मदद कर सकता है ताकि वह अपना काम पूरा कर सके."

बड़ी वैश्विक जिम्मेदारी

एसपीडी नेता मुत्सेनिश मानते हैं कि मैर्केल की यह सोच वास्तव में जर्मन हथियार उद्योग को बचाने की कोशिश है. जर्मन सेना की संख्या घटाने के बाद से इस उद्योग को काफी परेशानी झेलनी पड़ी है. विदेश आयोग के रूपरेश्ट पोलेंस हालांकि इस नीति को पूरी तरह खारिज नहीं करते. उनका मानना है कि सऊदी अरब को यमन से खतरा हो सकता है और शिया हूती विद्रोही, जो सऊदी अरब में हैं, उन्हें ईरान से सहयोग मिलता है. इन सब बातों को देखने की जरूरत है.

जर्मनी के विदेश मंत्री गीडो वेस्टरवेले भी इस नीति का समर्थन करते हैं. वह कहते हैं कि सैन्य कार्रवाई साधारण राजनीति का जरिया नहीं होना चाहिए, बल्कि इन्हें केवल खास मौकों पर लागू करना चाहिए. वेस्टरवेले आलोचना से नहीं डरते, वह चाहते हैं कि लोग उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर जानें, जो सोच समझकर फैसले लेता हो और जो कभी कभी हिचकिचाता भी है, लेकिन जो एक ही बार में अपने सैनिकों को विदेशों में कार्रवाई के लिए नहीं भेजता.

रिपोर्टः बेटीना मार्क्स/एमजी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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