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समाज

कितने सुरक्षित हैं भारत में पत्रकार?

मुरली कृष्णन
२९ मार्च २०१८

एक हफ्ते में देश के दो राज्यों में हुई तीन पत्रकारों की मौत ने देश भर में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए दिए हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस सालों में पत्रकारों की मौत का एक मामला भी नहीं सुलझा है.

Indien Proteste von Journalisten gegen Übergriffe von Polzisten
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

तारीख 26 मार्च, दिन सोमवार, मध्यप्रदेश के भिंड जिले में मोटरसाइकिल सवार पत्रकार संदीप शर्मा को दिन दहाड़े ट्रक कुचल देता है. इसी दिन बिहार के भोजपुर जिले में पत्रकार नवीन निश्चल और उनके साथ विजय सिंह की भी एक वाहन के नीचे आ जाने से मौत हो जाती है. इन दोनों मामलों के अलावा पिछले दिनों ऐसे कई मामले हुए हैं जिनमें पत्रकारों की मौत सवाल खड़े करती हैं.

संदीप 35 साल के युवा पत्रकार थे जो न्यूज वर्ल्ड चैनल के साथ बतौर स्ट्रिंगर काम कर रहे थे. पिछले साल जुलाई में की गई अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट में उन्होंने मध्य प्रदेश में रेत खनन कारोबार से जुड़े भष्टाचार को उजागर किया था. अपनी इस रिपोर्ट के बाद संदीप को लगातार धमकियां मिल रही थीं. ऐसा शक जताया रहा है कि संदीप की मौत, कोई आम सड़क हादसा नहीं है, बल्कि इस पूरे मामले में कुछ भ्रष्ट पुलिस वालों समेत रेत माफिया गिरोह शामिल है. इस घटना की सीसीटीवी फुटेज में नजर आ रहा है कि एक तेजी से आ रहे ट्रक ने मोटरसाइकिल को रौंद दिया और आगे बढ़ गया.

तस्वीर: Imago/Hindustan Times/B. Kindu

राज्य सरकार ने इस मामले की सीबीआई जांच कराने का एलान किया है. लेकिन संदीप के करीबियों को इस पर बहुत भरोसा नहीं है. संदीप के दोस्त विवेक शर्मा ने डीडब्ल्यू को बताया, "राज्य का अवैध रेत माफिया बहुत ही मजबूत है. जांच भी एकतरफा होगी. पत्रकारों को इन माफियाओं और इन गिरोहों की ओर धमकियां मिलती रहेंगी." 

वहीं बिहार में मारे गए पत्रकार नवीन निश्चल और उनके साथी विजय सिंह, हिंदी समाचार समूह दैनिक भास्कर के लिए काम करते थे. पुलिस ने इस मामले में पूर्व गांव प्रधान मोहम्मद हरसू को गिरफ्तार किया था. समाचार एजेंसी एसोसिएटिड प्रेस (एपी) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि निश्चल की अपनी मौत से एक दिन पहले हरसू से अपनी किसी रिपोर्ट को लेकर बहसबाजी हुई थी.

ऐसे बहुत से मामले

पत्रकारों की ये मौतें दिखाती हैं कि अगर वे अपने कामों को सच्चाई के साथ करते हैं तो उनके साथ क्या व्यवहार किया जा सकता है. पिछले कुछ समय में पत्रकारों पर होने वाले हमलों में तेजी आई है. लेकिन यह तेजी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक नजर आती है. इसके बाद फिर ये सवाल उठता है कि क्या इनकी सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है.

कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) के एशिया कार्यक्रम संयोजक स्टीवन बटलर ने डीडब्ल्यू से कहा कि प्रशासन को पत्रकारों की मौतों की गहराई से जांच करानी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि क्या इनकी रिपोर्टिंग और इनके काम के चलते इन्हें निशाना बनाया गया है. सीपीजे की वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान 13वां है, जो बताता है कि यहां पत्रकारों की हत्या में सजा शायद ही किसी को मिलती हो. सीपीजे का दावा है कि भारत में पत्रकारों की हत्या का एक भी मामला पिछले दस सालों में नहीं सुलझा हैं. 

इन पत्रकारों पर अधिक जोखिम

बड़े शहरों से इतर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में पत्रकारों की जान पर अधिक जोखिम है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के आंकड़ों मुताबिक साल 2015 से लेकर अब तक करीब 142 पत्रकार हमलों का शिकार हो चुके हैं. वहीं साल 1992 से लेकर 2016 के बीच करीब 70 पत्रकार मारे गए थे. इनमें से अधिकतर स्वतंत्र पत्रकार थे जिनकी हत्या इनके घर या दफ्तर के पास की गई.

कई मामलों में पत्रकारों पर होने वाले हमलों की रिपोर्ट इसलिए भी नहीं होती क्योंकि उन्हें स्थानीय नेता, पुलिस या रसूखदार लोगों से धमकियां मिलती हैं. पिछले साल हाईप्रोफाइल पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलूरु में हुई हत्या ने देश में प्रेस की आजादी से जुड़े सवालों को फिर उठा दिया. लंकेश की हत्या पर तमाम बातें और बहसें हुईं लेकिन जमीनी स्तर पर अब तक कुछ नहीं बदला है.

ये हुए शिकार

लंकेश की मौत के बाद भी पत्रकारों पर हमले कम नहीं हुए. इसके बाद केरल के पत्रकार संजीव गोपालन को कथित तौर पर पुलिस वालों ने न केवल पीटा बल्कि पत्नी और बेटी के सामने उनके कपड़े उतार दिए. कहा जा रहा था कि पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में कुछ ऐसा लिखा था जिससे पुलिस असहज हो गई थी. इसके बाद एक अन्य मामले में बांग्ला भाषा में पत्रकारिता करने वाले संदीप दत्त भौमिक को त्रिपुरा में गोली मार दी गई थी.

एक अन्य मामले में पश्चिमी त्रिपुरा जिले के मंडई में एक प्रदर्शन के दौरान टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या कर दी गई. कम्युनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "ये हमलावर कट्टरपंथी ताकत हैं जिन्हें सहयोग हासिल है और सच बोलने वाली इसकी कीमत चुका रहे हैं." उन्होंने कहा की प्रेस की आजादी और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बचाए रखने के लिए मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की जरूरत है.

पत्रकारों के लिए खतरनाक इलाके

माओवाद प्रभावित छ्त्तीसगढ़ और विवादों में रहने वाले कश्मीर में, सरकार के खिलाफ आवाज उठाना खतरनाक साबित हो सकता है. पिछले साल, सोमरु नाग और संतोष यादव नाम के दो पत्रकारों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. छत्तीसगढ़ के एक स्थानीय अखबार में काम करने वाले इन पत्रकारों को राजद्रोह के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था. पुलिस का आरोप था कि ये पत्रकार माओवादियों के दूत के रूप में काम करते हैं और उनके पक्ष में रिपोर्ट छापते हैं. इस मामले को यादव को 18 महीने जेल में बिताने पड़े और फिर उसे छोड़ा गया.

पत्रकारों के लिए ऐसी गिरफ्तारी आम हो गई है. कश्मीर के फोटो जर्नलिस्ट कामरान यूसुफ को छह महीने जेल में बिताने के बाद जमानत पर रिहा किया. इन पर भारत के खिलाफ युद्ध भड़काने और पत्थरबाजी का आरोप था. द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट ने हाल में कहा था कि कश्मीर में काम करने वाले पत्रकार डर और जोखिम के बीच काम करते हैं. क्योंकि इस इलाके में सक्रिय तमाम पार्टी उन्हें धमकियां देती रहतीं हैं.

दिल्ली की डेली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष एसके पांडे ने कहा, "देश के ऐसे जोखिम भरे इलाकों से निष्पक्ष रिपोर्टिंग करना आसान नहीं है."

लेकिन इन धमकियों, डर और हमलों का शिकार सिर्फ पत्रकार ही नहीं बन रहे हैं. पत्रकारों के अलावा वे सभी लोग जो समाज में पारदर्शिता लाने के लिए काम करते हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हैं उन्हें भी निशाना बनाया जाता है. पिछले तीन सालों में देश में 15 व्हिसल ब्लोअर्स की हत्या कर दी गई है और इन पर अनगिनत हमले गए. इन मामलों ने सूचना के अधिकार कानून के सफल क्रियान्यवन को लेकर भी सवाल उठते हैं.

अंतरराष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव के वेंटकेश नायक ने डीडब्ल्यू को बताया, "सरकार ने अब तक व्हिसल ब्लोअर्स सुरक्षा कानून को लागू नहीं किया गया है. लेकिन जरूरत है कि साल 2014 में संसद द्वारा बनाए गए कानून को लागू किया जाए. ताकि ऐसा सिस्टम बन सकें जो पत्रकार, आरटीआई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दे सके."

खैर, मौजूदा हाल को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि देश में प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत चुकानी पड़ती है. पत्रकारों, लेखकों और व्हिसल ब्लोअर्स को कई बार इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है.

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