एक हफ्ते में देश के दो राज्यों में हुई तीन पत्रकारों की मौत ने देश भर में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए दिए हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस सालों में पत्रकारों की मौत का एक मामला भी नहीं सुलझा है.
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तारीख 26 मार्च, दिन सोमवार, मध्यप्रदेश के भिंड जिले में मोटरसाइकिल सवार पत्रकार संदीप शर्मा को दिन दहाड़े ट्रक कुचल देता है. इसी दिन बिहार के भोजपुर जिले में पत्रकार नवीन निश्चल और उनके साथ विजय सिंह की भी एक वाहन के नीचे आ जाने से मौत हो जाती है. इन दोनों मामलों के अलावा पिछले दिनों ऐसे कई मामले हुए हैं जिनमें पत्रकारों की मौत सवाल खड़े करती हैं.
संदीप 35 साल के युवा पत्रकार थे जो न्यूज वर्ल्ड चैनल के साथ बतौर स्ट्रिंगर काम कर रहे थे. पिछले साल जुलाई में की गई अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट में उन्होंने मध्य प्रदेश में रेत खनन कारोबार से जुड़े भष्टाचार को उजागर किया था. अपनी इस रिपोर्ट के बाद संदीप को लगातार धमकियां मिल रही थीं. ऐसा शक जताया रहा है कि संदीप की मौत, कोई आम सड़क हादसा नहीं है, बल्कि इस पूरे मामले में कुछ भ्रष्ट पुलिस वालों समेत रेत माफिया गिरोह शामिल है. इस घटना की सीसीटीवी फुटेज में नजर आ रहा है कि एक तेजी से आ रहे ट्रक ने मोटरसाइकिल को रौंद दिया और आगे बढ़ गया.
राज्य सरकार ने इस मामले की सीबीआई जांच कराने का एलान किया है. लेकिन संदीप के करीबियों को इस पर बहुत भरोसा नहीं है. संदीप के दोस्त विवेक शर्मा ने डीडब्ल्यू को बताया, "राज्य का अवैध रेत माफिया बहुत ही मजबूत है. जांच भी एकतरफा होगी. पत्रकारों को इन माफियाओं और इन गिरोहों की ओर धमकियां मिलती रहेंगी."
वहीं बिहार में मारे गए पत्रकार नवीन निश्चल और उनके साथी विजय सिंह, हिंदी समाचार समूह दैनिक भास्कर के लिए काम करते थे. पुलिस ने इस मामले में पूर्व गांव प्रधान मोहम्मद हरसू को गिरफ्तार किया था. समाचार एजेंसी एसोसिएटिड प्रेस (एपी) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि निश्चल की अपनी मौत से एक दिन पहले हरसू से अपनी किसी रिपोर्ट को लेकर बहसबाजी हुई थी.
ऐसे बहुत से मामले
पत्रकारों की ये मौतें दिखाती हैं कि अगर वे अपने कामों को सच्चाई के साथ करते हैं तो उनके साथ क्या व्यवहार किया जा सकता है. पिछले कुछ समय में पत्रकारों पर होने वाले हमलों में तेजी आई है. लेकिन यह तेजी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक नजर आती है. इसके बाद फिर ये सवाल उठता है कि क्या इनकी सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है.
तुर्की है पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी जेल
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) के आंकड़ों मुताबिक साल 2017 में दुनिया भर के 65 पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की मौत हो गई. बीते 14 सालों के मुकाबले इसमें कमी आई है.
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दुनिया में खतरनाक
आरएसएफ ने अपनी रिपोर्ट में गृह युद्ध से जूझ रहे सीरिया को पत्रकारों के लिए बेहद ही खतरनाक देश बताया है. आरएसएफ के मुताबिक साल 2017 में यहां 12 पत्रकार मारे गए. इसके बाद मेक्सिको का स्थान आता है जहां 11 पत्रकारों को हत्या कर दी गई.
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एशिया में खतरनाक
वहीं एशिया में फिलीपींस को पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश बताया गया है. यहां पांच पत्रकारों को गोली मार दी गयी, जिनमें से चार की मौत हो गई. हालांकि ये सिलसिला फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो डुटेर्टे की एक टिप्पणी के बाद बढ़ा. डुटेर्टे ने कहा था, "आप सिर्फ एक पत्रकार है इसलिए सजा से नहीं बच सकते"
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कम हुए मामले
संस्था के मुताबिक पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में साल 2017 अच्छा माना जा सकता है. रिपोर्ट मुताबिक पिछले 14 सालों में पत्रकारों के खिलाफ होने वाले अपराधों में साल 2017 के दौरान कमी आई है. जो 65 पत्रकार और मीडिया कर्मी इस साल मारे गये, उनमें से 39 की हत्या की गयी वहीं अन्य ड्यूटी पर रहते हुए किसी न किसी परिस्थिति का शिकार बने.
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बेहतर ट्रेनिंग का नतीजा
संस्था ने इस साल पत्रकारों की मौत का संख्या कम रहने का एक कारण परीक्षण को दिया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि अब पत्रकारों को युद्ध क्षेत्र में भेजने के लिए अधिक प्रशिक्षित किया जाता है. साथ ही ऐसे देश जहां उन्हें खतरे का अंदाजा होता है वे वहां से निकल आते हैं.
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यहां गये जेल
तुर्की दुनियाभर के पत्रकारों के लिए साल 2017 में सबसे बड़ी जेल साबित हुई. यहां तकरीबन 42 पत्रकारों को सलाखों के पीछे भेज दिया गया. हालांकि ब्लॉगर्स के मामले में चीन ने सबसे अधिक 52 ब्लॉगर्स को जेल भेज कर अपना ये रिकॉर्ड कायम रखा.
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अन्य जेल
चीन और तुर्की के बाद जिन देशों में पत्रकारों को सबसे अधिक जेल का सामना करना पड़ा उनमें, 24 पत्रकारों के साथ सीरिया, 23 पत्रकारों के साथ ईरान और 19 पत्रकारों के साथ वियतनाम का नंबर आता है.
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भारत के ये मामले
साल 2017 भारत भी पत्रकारों के लिए सुरक्षित साबित नहीं हुआ. सितंबर में कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलूरु में हत्या कर दी गयी. इसके अलावा त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक पर एक कार्यक्रम के दौरान अचानक हमला कर दिया गया जिसमें उनकी मौत हो गई. वहीं त्रिपुरा के एक अन्य पत्रकार सुदीप दत्त पर एक झगड़े के दौरान त्रिपुरा स्टेट राइफल्स के एक अधिकारी ने हमला कर दिया था. इसमें उनकी मौत हो गई.
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कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) के एशिया कार्यक्रम संयोजक स्टीवन बटलर ने डीडब्ल्यू से कहा कि प्रशासन को पत्रकारों की मौतों की गहराई से जांच करानी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि क्या इनकी रिपोर्टिंग और इनके काम के चलते इन्हें निशाना बनाया गया है. सीपीजे की वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान 13वां है, जो बताता है कि यहां पत्रकारों की हत्या में सजा शायद ही किसी को मिलती हो. सीपीजे का दावा है कि भारत में पत्रकारों की हत्या का एक भी मामला पिछले दस सालों में नहीं सुलझा हैं.
इन पत्रकारों पर अधिक जोखिम
बड़े शहरों से इतर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में पत्रकारों की जान पर अधिक जोखिम है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के आंकड़ों मुताबिक साल 2015 से लेकर अब तक करीब 142 पत्रकार हमलों का शिकार हो चुके हैं. वहीं साल 1992 से लेकर 2016 के बीच करीब 70 पत्रकार मारे गए थे. इनमें से अधिकतर स्वतंत्र पत्रकार थे जिनकी हत्या इनके घर या दफ्तर के पास की गई.
कई मामलों में पत्रकारों पर होने वाले हमलों की रिपोर्ट इसलिए भी नहीं होती क्योंकि उन्हें स्थानीय नेता, पुलिस या रसूखदार लोगों से धमकियां मिलती हैं. पिछले साल हाईप्रोफाइल पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलूरु में हुई हत्या ने देश में प्रेस की आजादी से जुड़े सवालों को फिर उठा दिया. लंकेश की हत्या पर तमाम बातें और बहसें हुईं लेकिन जमीनी स्तर पर अब तक कुछ नहीं बदला है.
ये हुए शिकार
लंकेश की मौत के बाद भी पत्रकारों पर हमले कम नहीं हुए. इसके बाद केरल के पत्रकार संजीव गोपालन को कथित तौर पर पुलिस वालों ने न केवल पीटा बल्कि पत्नी और बेटी के सामने उनके कपड़े उतार दिए. कहा जा रहा था कि पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में कुछ ऐसा लिखा था जिससे पुलिस असहज हो गई थी. इसके बाद एक अन्य मामले में बांग्ला भाषा में पत्रकारिता करने वाले संदीप दत्त भौमिक को त्रिपुरा में गोली मार दी गई थी.
प्रेस स्वतंत्रता में कौन देश कहां
लोकतांत्रिक देशों में अहम नेताओं के मीडिया विरोधी भाषणों, नये कानूनों और मीडिया को प्रभावित करने की कोशिशों की वजह से पत्रकारों और मीडिया की स्थिति खराब हुई है. यह कहना है रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स की ताजा रिपोर्ट का.
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1. नॉर्वे
पिछले साल नंबर 3
तस्वीर: Reuters
2. स्वीडन
पिछले साल नंबर 8
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Persson
3. फिनलैंड
पिछले साल नंबर 1
तस्वीर: Getty Images/AFP/T. Charliere
4. डेनमार्क
पिछले साल नंबर 4
तस्वीर: picture-alliance/dpa/K. Navntoft
5. नीदरलैंड्स
पिछले साल नंबर 2
तस्वीर: Reuters/Y. Herman
6. कोस्टा रिका
पिछले साल नंबर 6
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7. स्विट्जरलैंड
पिछले साल नंबर 7
तस्वीर: AP
8. जमैका
पिछले साल नंबर 10
तस्वीर: Reuters/G. Bellamy
9. बेल्जियम
पिछले साल नंबर 13
तस्वीर: Reuters/F. Lenoir
10. आइसलैंड
पिछले साल नंबर 19
तस्वीर: picture alliance/dpa/B. Thor Hardarson
16. जर्मनी
पिछले साल नंबर 16
तस्वीर: Reuters/A. Schmidt
31. दक्षिण अफ्रीका
पिछले साल नंबर 39
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40. ब्रिटेन
पिछले साल नंबर 38
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43. अमेरिका
पिछले साल नंबर 41
तस्वीर: picture alliance/ZUMAPRESS/B. Woolston
84. भूटान
पिछले साल नंबर 94
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100. नेपाल
पिछले साल नंबर 105
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103. ब्राजील
पिछले साल नंबर 104
तस्वीर: Reuters/A.Machado
120. अफगानिस्तान
पिछले साल नंबर 120
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124. इंडोनेशिया
पिछले साल नंबर 130
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136. भारत
पिछले साल नंबर 133
तस्वीर: Reuters/A. Abidi
139. पाकिस्तान
पिछले साल नंबर 147
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141. श्रीलंका
पिछले साल नंबर 141
तस्वीर: Getty Images/B.Weerasinghe
146. बांग्लादेश
पिछले साल नंबर 144
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148. रूस
पिछले साल नंबर 148
तस्वीर: picture-alliance/dpa/ Y. Kochetkov
155. तुर्की
पिछले साल नंबर 151
तस्वीर: Reuters/Presidential Palace/Y. Bulbul
176. चीन
पिछले साल नंबर 176
तस्वीर: Reuters/T. Peter
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एक अन्य मामले में पश्चिमी त्रिपुरा जिले के मंडई में एक प्रदर्शन के दौरान टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या कर दी गई. कम्युनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "ये हमलावर कट्टरपंथी ताकत हैं जिन्हें सहयोग हासिल है और सच बोलने वाली इसकी कीमत चुका रहे हैं." उन्होंने कहा की प्रेस की आजादी और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बचाए रखने के लिए मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की जरूरत है.
पत्रकारों के लिए खतरनाक इलाके
माओवाद प्रभावित छ्त्तीसगढ़ और विवादों में रहने वाले कश्मीर में, सरकार के खिलाफ आवाज उठाना खतरनाक साबित हो सकता है. पिछले साल, सोमरु नाग और संतोष यादव नाम के दो पत्रकारों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. छत्तीसगढ़ के एक स्थानीय अखबार में काम करने वाले इन पत्रकारों को राजद्रोह के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था. पुलिस का आरोप था कि ये पत्रकार माओवादियों के दूत के रूप में काम करते हैं और उनके पक्ष में रिपोर्ट छापते हैं. इस मामले को यादव को 18 महीने जेल में बिताने पड़े और फिर उसे छोड़ा गया.
पत्रकारों के लिए ऐसी गिरफ्तारी आम हो गई है. कश्मीर के फोटो जर्नलिस्ट कामरान यूसुफ को छह महीने जेल में बिताने के बाद जमानत पर रिहा किया. इन पर भारत के खिलाफ युद्ध भड़काने और पत्थरबाजी का आरोप था. द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट ने हाल में कहा था कि कश्मीर में काम करने वाले पत्रकार डर और जोखिम के बीच काम करते हैं. क्योंकि इस इलाके में सक्रिय तमाम पार्टी उन्हें धमकियां देती रहतीं हैं.
प्रेस फ्रीडम? यहां नहीं!
कई देशों में पत्रकारों और ब्लॉगरों को नियमित तौर पर डराया, धमकाया और हमलों का निशाना बनाया जा रहा है. प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2015 में 'रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स' की 180 देशों की सूची में इन देशों का रहा सबसे खराब प्रदर्शन.
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अफ्रीका का उत्तरी कोरिया- इरिट्रिया
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में इरिट्रिया सबसे निचली पायदान पर है. तानाशाही शासन वाले इस पूर्व अफ्रीकी देश के खस्ताहाल की खबरें बाहर नहीं निकलतीं. कई पत्रकारों को मजबूरन देश छोड़ना पड़ा है. इरिट्रिया के बारे में निष्पक्ष जानकारी पाने के लिए पेरिस से चलने वाले रेडियो एरीना को एकलौता स्रोत माना जाता है.
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तानाशाह के इशारे पर
पूरी दुनिया की नजर से छिपे हुए उत्तरी कोरिया में भी प्रेस की आजादी नहीं पाई जाती. शासक किम जोंग उन की मशीनरी मीडिया में प्रकाशित सामग्री पर पैनी नजर रखती है. लोगों को केवल सरकारी टीवी और रेडियो चैनल मिलते हैं और जो लोग अपनी राय जाहिर करने की कोशिश करते हैं, उन्हें अक्सर राजनैतिक कैदी बना दिया जाता है.
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तुर्कमेनिस्तान पर नजर
केवल एक अखबार, रिसगाल को छोड़कर देश के लगभग सारे मीडिया संस्थानों के मालिक खुद राष्ट्रपति गुर्बांगुली बर्डीमुहामेदो ही हैं. इस अखबार के संपादकीय भी छपने से पहले जांचे जाते हैं. हाल ही में आए एक नए कानून से लोगों को कुछ विदेशी मीडिया संस्थानों की न्यूज तक पहुंच मिली है. इंटरनेट और तमाम वेबसाइटों पर सरकार की नजर होती है.
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आलोचकों का सफाया
विएतनाम में स्वतंत्र पत्रकारिता का कोई अस्तित्व ही नहीं है. सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी पत्रकारों को बताती हैं कि क्या प्रकाशित होगा. कई मीडिया संस्थानों के पत्रकार, संपादक, प्रकाशिक खुद ही पार्टी के सदस्य हैं. अब ब्लॉगरों पर भी कड़ी नजर रखी जा रही है. पार्टी के विरुद्ध लिखने पर जेल में डाल दिया जाता है.
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चीन में नहीं आजादी
रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स का कहना है कि चीन दुनिया में पत्रकारों और ब्लॉगरों के लिए सबसे बड़ी जेल है. किसी भी न्यूज कवरेज के पसंद ना आने पर शासन संबंधित पक्ष के विरुद्ध कड़े कदम उठाता है. विदेशी पत्रकारों पर भी भारी दबाव है और कई बार उन्हें इंटरव्यू देने वाले चीनी लोगों को भी जेल में बंद कर दिया जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Schiefelbein
सीरिया में सुलगते हालात
सीरिया में अब तक ऐसे कई पत्रकारों को मौत की सजा दी जा चुकी है, जो असद शासन के खिलाफ हुई बगावत के समय सक्रिय थे. रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स ने सीरिया को कई सालों से प्रेस की आजादी का शत्रु घोषित किया हुआ है. वहां असद शासन के खिलाफ संघर्ष करने वाला अल-नुसरा फ्रंट और आईएस ने बदले की कार्रवाई में सीरिया के सरकारी मीडिया संस्थान के रिपोर्टरों पर हमले किए और कईयों को सार्वजनिक रूप से मौत के घाट उतारा.
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भारत भी पीछे
लोकतांत्रिक और बहुजातीय देश होने के बावजूद भारत प्रेस फ्रीडम की सूची में शामिल 180 देशों में 136वें नंबर पर है. उसके आस पास के देशों में होंडुरास, वेनेज्वेला और चाड जैसे देश हैं.
तस्वीर: AP
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दिल्ली की डेली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष एसके पांडे ने कहा, "देश के ऐसे जोखिम भरे इलाकों से निष्पक्ष रिपोर्टिंग करना आसान नहीं है."
लेकिन इन धमकियों, डर और हमलों का शिकार सिर्फ पत्रकार ही नहीं बन रहे हैं. पत्रकारों के अलावा वे सभी लोग जो समाज में पारदर्शिता लाने के लिए काम करते हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हैं उन्हें भी निशाना बनाया जाता है. पिछले तीन सालों में देश में 15 व्हिसल ब्लोअर्स की हत्या कर दी गई है और इन पर अनगिनत हमले गए. इन मामलों ने सूचना के अधिकार कानून के सफल क्रियान्यवन को लेकर भी सवाल उठते हैं.
अंतरराष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव के वेंटकेश नायक ने डीडब्ल्यू को बताया, "सरकार ने अब तक व्हिसल ब्लोअर्स सुरक्षा कानून को लागू नहीं किया गया है. लेकिन जरूरत है कि साल 2014 में संसद द्वारा बनाए गए कानून को लागू किया जाए. ताकि ऐसा सिस्टम बन सकें जो पत्रकार, आरटीआई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दे सके."
खैर, मौजूदा हाल को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि देश में प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत चुकानी पड़ती है. पत्रकारों, लेखकों और व्हिसल ब्लोअर्स को कई बार इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है.