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समाज

किसानों की ऋण माफी पर इतना हल्ला क्यों?

अपूर्वा अग्रवाल
२१ दिसम्बर २०१८

भारत की कई राज्य सरकारों ने हाल में किसानों की ऋण माफी से जुड़ी घोषणाएं की हैं. कर्ज माफी की इन घोषणाओं को चुनावी पैंतरा कहा जा रहा है लेकिन जब कॉरपोरेट कर्ज माफ हो सकते हैं तो किसानों की कर्ज माफी पर इतना होहल्ला क्यों?

Viehrennen in Indien
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/S. Nandy

साल 2008 में जब केंद्र की यूपीए सरकार ने किसानों के कर्ज माफ किए थे, तब शायद किसी को अंदाजा भी नहीं होगा कि भविष्य में यह एक राजनीतिक हथियार साबित होगा. कर्ज माफी अब चुनावों से पहले एक अहम मुद्दा बन गया है. इसी का नतीजा है कि अप्रैल 2017 से लेकर दिसंबर 2018 तक करीब आठ राज्य सरकारों ने किसानों का कर्ज माफ करने की घोषणा की है. वित्तीय अखबार मिंट का दावा है कि आठ राज्यों की सरकारों ने तकरीबन 1900 अरब रुपये के कर्ज माफी की घोषणाएं की हैं.

तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam

देश का केंद्रीय बैंक राज्यों की कर्जमाफी की नीति को सही नहीं मानता. वहीं अर्थशास्त्रियों की भी अपनी दलीलें हैं. अर्थशास्त्री चेतावनी दे रहे हैं कि किसानों की कर्ज माफी से राजकोषीय घाटे में इजाफा होगा. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि सरकार का लक्ष्य राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 फीसदी यानि 6,240 अरब रुपये तक सीमित रखना है. हालांकि किसानों को दी जाने वाली कर्ज माफी के बिना भी रेटिंग एजेंसी अनुमान लगा रही हैं कि इस साल राजकोषीय घाटा 3.5 फीसदी यानि 6,670 अरब रुपये रहेगा.

कर्ज माफी से क्या होगा?

अर्थशास्त्री मानते हैं कि यह नया ट्रेंड कुछ राज्यों पर नहीं रुकेगा बल्कि 2019 के आम चुनावों के पहले कई राज्य इस तरह के कदम उठाएंगे. थिंक टैंक इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस में इंफोसिस चेयर प्रोफेसर फॉर एग्रीकल्चर और वरिष्ठ अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "कर्ज माफी पर अगले दो-तीन सालों में राज्यों की ओर से कम से कम चार-पांच हजार अरब का खर्चा होगा." जाहिर है इसका असर राज्य सरकारों के बजट पर दिखेगा और कृषि समेत अन्य क्षेत्रों और योजनाओं के वित्तीय ढांचों में बदलाव आएगा. गुलाटी कहते हैं कि अभी यह कयास लगाना जल्दबाजी होगा कि इसका कितना असर होगा.

स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक योगेंद्र यादव कहते हैं कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं को हल करने का आखिरी विकल्प होना चाहिए. उन्होंने कहा कि सरकार को ये कदम बेहद ही किफायती ढंग से उठाना चाहिए. लेकिन अब राजनीतिक पार्टियां इसे चुनाव जीतने का एक तरीका मान रही हैं. विशेषज्ञ तो ये भी मान रहे हैं कोई भी सरकार किसानों के लिए कुछ करना ही नहीं चाहती. सरकार इस दिशा में काम कर ही नहीं कर रही है और इसके लिए उनके पास कोई विचार भी नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सोपान जोशी कहते हैं, "किसानों का कर्ज माफ करना कांग्रेस का ही विचार है, जिस पर बीजेपी भी चल रही है. सरकार न तो बड़ा कुछ कर सकती है और न ही करना चाहती है." जोशी तो ये भी कहते हैं कि किसानों की आत्महत्या दर हर देश में बढ़ रही है. ऐसे में ऋण में मिली छूट एक त्वरित राहत हो सकती है.

इंडस्ट्री को क्या लाभ?

बहुत से लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि जब कर्ज में छूट कॉरपोरेट सेक्टर को मिल सकती है तो फिर किसानों को दी जाने वाली राहत पर इतना हो-हल्ला क्यों? अर्थशास्त्री कॉरपोरेट ऋण को किसानों को दिए जाने वाले ऋण से बिल्कुल अलग बताते हैं. वे मानते हैं कि कॉरपोरेट कंपनियां अगर कोई कर्ज लेती हैं तो कारोबार आगे बढ़ता है. अगर कारोबार डूब भी जाता है तो बैंक रिकवरी करते हैं. गुलाटी के मुताबिक, "किसानों की कर्ज माफी में सीधे रूप से करदाताओं का पैसा खर्च होता है." वहीं कॉरपोरेट ऋणों में बैंक पैसा देता है. ग्राहकों का पैसा बैंकों के प्रॉफिट में एडजस्ट होता है और उसके बाद बैंक कर्ज बांटते हैं.

आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि बैंक कॉरपोरेट कंपनियों के साथ ऐसा कुछ नहीं करते जिसका नुकसान देश के क्रेडिट कल्चर पर पड़ता है. वहीं किसानों को दिए जाने वाले ऋण में छूट क्रेडिट कल्चर को प्रभावित करेंगे. गुलाटी कहते हैं कि जिन किसानों को इस कर्ज माफी से राहत मिलती है उनकी संख्या भी बहुत कम है. अब भी तकरीबन 69 फीसदी संख्या ऐसे छोटे किसानों की है जिन्हें असंगठित क्षेत्रों से कर्ज लेना पड़ता है. जानकारों की राय में इससे कोई सुधार नहीं होने वाला है.

क्या होना चाहिए?

कृषि क्षेत्रों में सुधारों पर हमेशा जोर दिया जाता रहा है. भारत की तकरीबन 70 फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, जो राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा वोट बैंक हैं. वहीं कृषि क्षेत्र का भारत की कुल अर्थव्यवस्था में महज 15 फीसदी का योगदान है. समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है. 2017 में सांख्यिकी मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में तकरीबन 9.02 करोड़ किसान परिवार हैं. उसी साल कृषि मंत्रालय ने लोकसभा में कहा था कि भारत के करीब 4.69 करोड़ मतलब 52 फीसदी किसान कर्जदार हैं.

तस्वीर: picture alliance/AP Photo

2018 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि एक किसान की सालाना औसत आमदनी तकरीबन 77 हजार रुपये है. इसका मतलब हुआ सिर्फ 6400 रुपये प्रति माह. हालांकि मोदी सरकार का इस आमदनी को 2022 तक दोगुना करने का लक्ष्य है, लेकिन इस पर नेता से लेकर अर्थशास्त्री कोई बात ही नहीं कर रहे हैं.

कृषि में बाजार सुधार, बुनियादी सेवाओं समेत भारी निवेश की आवश्यकता है. जब तक ये नहीं होगा तब तक कोई बदलाव नहीं होगा. ऐसे में सवाल है कि जब सरकारें किसानों की ऋण माफी पर खर्च करने के लिए पैसा जुटा सकती हैं तो वही पैसा किसानों के लिए बेहतर कामकाजी माहौल बनाने के लिए क्यों खर्च नहीं किया जा सकता?

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