भारत की कई राज्य सरकारों ने हाल में किसानों की ऋण माफी से जुड़ी घोषणाएं की हैं. कर्ज माफी की इन घोषणाओं को चुनावी पैंतरा कहा जा रहा है लेकिन जब कॉरपोरेट कर्ज माफ हो सकते हैं तो किसानों की कर्ज माफी पर इतना होहल्ला क्यों?
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साल 2008 में जब केंद्र की यूपीए सरकार ने किसानों के कर्ज माफ किए थे, तब शायद किसी को अंदाजा भी नहीं होगा कि भविष्य में यह एक राजनीतिक हथियार साबित होगा. कर्ज माफी अब चुनावों से पहले एक अहम मुद्दा बन गया है. इसी का नतीजा है कि अप्रैल 2017 से लेकर दिसंबर 2018 तक करीब आठ राज्य सरकारों ने किसानों का कर्ज माफ करने की घोषणा की है. वित्तीय अखबार मिंट का दावा है कि आठ राज्यों की सरकारों ने तकरीबन 1900 अरब रुपये के कर्ज माफी की घोषणाएं की हैं.
देश का केंद्रीय बैंक राज्यों की कर्जमाफी की नीति को सही नहीं मानता. वहीं अर्थशास्त्रियों की भी अपनी दलीलें हैं. अर्थशास्त्री चेतावनी दे रहे हैं कि किसानों की कर्ज माफी से राजकोषीय घाटे में इजाफा होगा. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि सरकार का लक्ष्य राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.3 फीसदी यानि 6,240 अरब रुपये तक सीमित रखना है. हालांकि किसानों को दी जाने वाली कर्ज माफी के बिना भी रेटिंग एजेंसी अनुमान लगा रही हैं कि इस साल राजकोषीय घाटा 3.5 फीसदी यानि 6,670 अरब रुपये रहेगा.
कर्ज माफी से क्या होगा?
अर्थशास्त्री मानते हैं कि यह नया ट्रेंड कुछ राज्यों पर नहीं रुकेगा बल्कि 2019 के आम चुनावों के पहले कई राज्य इस तरह के कदम उठाएंगे. थिंक टैंक इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस में इंफोसिस चेयर प्रोफेसर फॉर एग्रीकल्चर और वरिष्ठ अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "कर्ज माफी पर अगले दो-तीन सालों में राज्यों की ओर से कम से कम चार-पांच हजार अरब का खर्चा होगा." जाहिर है इसका असर राज्य सरकारों के बजट पर दिखेगा और कृषि समेत अन्य क्षेत्रों और योजनाओं के वित्तीय ढांचों में बदलाव आएगा. गुलाटी कहते हैं कि अभी यह कयास लगाना जल्दबाजी होगा कि इसका कितना असर होगा.
बड़े देशों में ऐसा है कृषि का हाल
दुनिया में कृषि के लिए हालात अच्छे नहीं रहे. दुनिया के पांच सबसे ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने वाले देशों में कृषि का हिस्सा लगातार घट रहा है.
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भारत
भारत में कृषि की हालत लगातार खराब होती जा रही है, हालांकि अब भी देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका अहम बनी हुई है. साल 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 16 फीसदी का है. साथ ही करीब 49 फीसदी लोग रोजगार के लिए इस पर निर्भर करते हैं.
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चीन
चीन के नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के साल 2013 के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में 10 फीसदी हिस्सा कृषि का है. चीन को दुनिया का बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब माना जाता है, लेकिन पिछले एक दशक से देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का भी बड़ा योगदान है. गेहूं, चावल और आलू के उत्पादन में चीन का दुनिया में पहला स्थान है.
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अमेरिका
अमेरिका का कृषि क्षेत्र अत्याधुनिक मशीनों से लैस है, जिसके चलते देश खादयान्न उत्पादन का बड़ा हब है. अमेरिका के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान महज एक फीसदी है. वहीं 1.3 फीसदी लोग ही रोजगार के लिए इस निर्भर करते हैं. अमेरिका दुनिया में मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक है. वहीं गेहूं उत्पादन में इसका दुनिया में तीसरा स्थान है.
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रूस
भौगोलिक कारणों के चलते रूस की कृषि क्षेत्र में अपनी सीमाएं हैं. साल 2016 के विश्व बैंक के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी चार फीसदी है. देश की लगभग 10 फीसदी आबादी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर करती है. रूस दुनिया में आलू का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. वहीं गेंहू उगाने में इसका दुनिया में चौथा स्थान है.
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ब्राजील
दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी महज 5.6 फीसदी तो है लेकिन कृषि आधारित उद्योगों का हिस्सा तरीबन 23.5 फीसदी है. यह आंकड़े देश की प्रमुख कृषि संगठन सीएनए के हैं बीते सालों में यहां कृषि आधारित उद्योगों में बहुत तेजी आई है. ब्राजील की 15 फीसदी आबादी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर करती है.
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स्वराज इंडिया पार्टी के संस्थापक योगेंद्र यादव कहते हैं कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं को हल करने का आखिरी विकल्प होना चाहिए. उन्होंने कहा कि सरकार को ये कदम बेहद ही किफायती ढंग से उठाना चाहिए. लेकिन अब राजनीतिक पार्टियां इसे चुनाव जीतने का एक तरीका मान रही हैं. विशेषज्ञ तो ये भी मान रहे हैं कोई भी सरकार किसानों के लिए कुछ करना ही नहीं चाहती. सरकार इस दिशा में काम कर ही नहीं कर रही है और इसके लिए उनके पास कोई विचार भी नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सोपान जोशी कहते हैं, "किसानों का कर्ज माफ करना कांग्रेस का ही विचार है, जिस पर बीजेपी भी चल रही है. सरकार न तो बड़ा कुछ कर सकती है और न ही करना चाहती है." जोशी तो ये भी कहते हैं कि किसानों की आत्महत्या दर हर देश में बढ़ रही है. ऐसे में ऋण में मिली छूटएक त्वरित राहत हो सकती है.
इंडस्ट्री को क्या लाभ?
बहुत से लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि जब कर्ज में छूट कॉरपोरेट सेक्टर को मिल सकती है तो फिर किसानों को दी जाने वाली राहत पर इतना हो-हल्ला क्यों? अर्थशास्त्री कॉरपोरेट ऋण को किसानों को दिए जाने वाले ऋण से बिल्कुल अलग बताते हैं. वे मानते हैं कि कॉरपोरेट कंपनियां अगर कोई कर्ज लेती हैं तो कारोबार आगे बढ़ता है. अगर कारोबार डूब भी जाता है तो बैंक रिकवरी करते हैं. गुलाटी के मुताबिक, "किसानों की कर्ज माफी में सीधे रूप से करदाताओं का पैसा खर्च होता है." वहीं कॉरपोरेट ऋणों में बैंक पैसा देता है. ग्राहकों का पैसा बैंकों के प्रॉफिट में एडजस्ट होता है और उसके बाद बैंक कर्ज बांटते हैं.
आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि बैंक कॉरपोरेट कंपनियों के साथ ऐसा कुछ नहीं करते जिसका नुकसान देश के क्रेडिट कल्चर पर पड़ता है. वहीं किसानों को दिए जाने वाले ऋण में छूट क्रेडिट कल्चर को प्रभावित करेंगे. गुलाटी कहते हैं कि जिन किसानों को इस कर्ज माफी से राहत मिलती है उनकी संख्या भी बहुत कम है. अब भी तकरीबन 69 फीसदी संख्या ऐसे छोटे किसानों की है जिन्हें असंगठित क्षेत्रों से कर्ज लेना पड़ता है. जानकारों की राय में इससे कोई सुधार नहीं होने वाला है.
क्या होना चाहिए?
कृषि क्षेत्रों में सुधारों पर हमेशा जोर दिया जाता रहा है. भारत की तकरीबन 70 फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, जो राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा वोट बैंक हैं. वहीं कृषि क्षेत्र का भारत की कुल अर्थव्यवस्था में महज 15 फीसदी का योगदान है. समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है. 2017 में सांख्यिकी मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में तकरीबन 9.02 करोड़ किसान परिवार हैं. उसी साल कृषि मंत्रालय ने लोकसभा में कहा था कि भारत के करीब 4.69 करोड़ मतलब 52 फीसदी किसान कर्जदार हैं.
2018 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि एक किसान की सालाना औसत आमदनी तकरीबन 77 हजार रुपये है. इसका मतलब हुआ सिर्फ 6400 रुपये प्रति माह. हालांकि मोदी सरकार का इस आमदनी को 2022 तक दोगुना करने का लक्ष्य है, लेकिन इस पर नेता से लेकर अर्थशास्त्री कोई बात ही नहीं कर रहे हैं.
कृषि में बाजार सुधार, बुनियादी सेवाओं समेत भारी निवेश की आवश्यकता है. जब तक ये नहीं होगा तब तक कोई बदलाव नहीं होगा. ऐसे में सवाल है कि जब सरकारें किसानों की ऋण माफी पर खर्च करने के लिए पैसा जुटा सकती हैं तो वही पैसा किसानों के लिए बेहतर कामकाजी माहौल बनाने के लिए क्यों खर्च नहीं किया जा सकता?
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/S. Nandy
मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.