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नरेंद्र मोदी को राजीव गांधी ‘भ्रष्टाचारी नंबर एक’ क्यों लगे

समीरात्मज मिश्र
६ मई २०१९

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ ‘मिस्टर क्लीन’ और ‘भ्रष्टाचारी नंबर एक’ जैसे विशेषण लगाना अब बड़े राजनीतिक विवाद की वजह बनता जा रहा है.

Rajiv Gandhi ermordeter indischer Politiker
तस्वीर: Imago/Sven Simon

प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश की एक चुनावी सभा में कहा था, "आपके पिताजी को आपके राग दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था. गाजे-बाजे के साथ मिस्टर क्लीन मिस्टर क्लीन चला था. लेकिन देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में उनका जीवनकाल समाप्त हो गया."

दरअसल, प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी उस बोफोर्स घोटाले के संदर्भ में की गई थी जिसमें राजीव गांधी का नाम घसीटा जरूर गया था लेकिन बाद में न सिर्फ उनका नाम उस चार्जशीट से हटाया गया और उन्हें क्लीन चिट दी गई बल्कि एक साल पहले जब सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में दोबारा उस मामले को खोलने की अनुमति मांगी तो सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को यह कहते हुए अनुमति नहीं दी कि उसे इस मामले की याद अचानक तेरह साल बाद कैसे आई.

तस्वीर: IANS

बोफोर्स तोप सौदे के कारण 1980 के दशक में देश की राजनीति में भूचाल आ गया था. 1984 में प्रचंड बहुमत से सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस पार्टी को पांच साल बाद ही 1989 में सत्ता गंवानी पड़ी थी. कांग्रेस पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उस मामले में घसीटने वाले कोई और नहीं बल्कि उन्हीं की कैबिनेट के अहम सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह थे.

बोफोर्स मामले में मुख्य अभियुक्त इटली के व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोची की गांधी परिवार से कथित नजदीकी सवालों के घेरे में रही है और इस मामले में राजीव गांधी का नाम घसीटने की वजह भी यही थी.

वीपी सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे में कथित दलाली का आरोप लगाते हुए पहले सरकार और फिर कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. उनके नेतृत्व में बनी जनता दल ने 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस को हराकर बीजेपी और वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाई लेकिन उनकी सरकार एक साल भी नहीं चल पाई.

वीपी सिंह के बाद कुछ दिनों तक चंद्रशेखर के नेतृत्व में सरकार चली लेकिन कुछ ही महीनों बाद वह भी गिर गई और फिर 1991 में मध्यावधि चुनावों की घोषणा हुई. चुनाव के दौरान ही एक जनसभा को संबोधित करने गये राजीव गांधी की एक आत्मघाती हमले में हत्या कर दी गई.

ओत्तावियो क्वात्रोची (सबसे बाएं)तस्वीर: AP

बोफोर्स मामले में सीबीआई ने लंबी जांच की लेकिन आखिरकार उसने मामले को बंद कर दिया. 64 करोड़ रुपए की कथित रिश्वत के इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में राजीव गांधी पर कोई आरोप साबित नहीं हो पाया.

पहले वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल सरकार और उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के करीब पांच साल के शासन में इस मामले में ऐसा कुछ साबित नहीं हो पाया जिससे राजीव गांधी को 'भ्रष्टाचारी नंबर वन' कहा जाता. यही नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान ही राजीव गांधी का नाम बोफोर्स की चार्जशीट से हटाया गया था.

दरअसल 24 मार्च 1986 को भारत सरकार और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 1,437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ. यह सौदा भारतीय थल सेना को 155 एमएम की चार सौ होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए हुआ था. लेकिन इसके अगले ही साल स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारियों को साठ करोड़ रुपये की रिश्वत दी है.

संसद में इस मामले को लेकर हंगामा मचने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लोकसभा में स्पष्ट किया था कि बोफोर्स मामले में ना ही कोई रिश्वत दी गई और ना ही इस सौदे में किसी बिचौलिए की कोई भूमिका थी. छह अगस्त 1987 को रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमिटी (जेपीसी) का गठन हुआ जिसका नेतृत्व पूर्व केंद्रीय मंत्री बी.शंकरानंद ने किया. मामले की जांच के लिए भारत का एक जांच दल स्वीडन भी गया.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

18 जुलाई 1989 को जेपीसी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी. तब तक देश में माहौल राजीव गांधी के खिलाफ बन चुका था और इस घोटाले का आरोप लगाने वाले वीपी सिंह जनता की निगाह में हीरो बन चुके थे. उन्होंने पहले जनमोर्चा और बाद में जनता दल का गठन किया. इसी साल देश में आम चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की बड़ी हार हुई और राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा.

वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार ने बोफोर्स तोप सौदे की जांच सीबीआई को सौंपी. सीबीआई ने इस मामले में आपराधिक षड़यंत्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया. मामला एबी बोफोर्स के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिया विन चड्ढा और हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ.

सीबीआई ने लंबी चांज प्रक्रिया के बाद 1999 में एबी बोफोर्स के एजेंट विन चड्ढा, क्वात्रोची, तत्कालीन रक्षा सचिव एस.के.भटनागर और बोफोर्स कंपनी के प्रेसिडेंट मार्टिन कार्ल आर्डबो के खिलाफ पहला आरोपपत्र दाखिल किया.

मार्च 2004 में कोर्ट ने इस मामले में स्वर्गीय राजीव गांधी और पूर्व रक्षा सचिव भटनागर को बरी कर दिया. दिल्ली हाई कोर्ट ने हिंदुजा बंधु और एबी बोफोर्स के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया. 90 दिनों की अनिवार्य अवधि में सीबीआई ने कोई अपील दाखिल नहीं की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक अपील दाखिल करने की अनुमति मिल गई.

साल 2011 में मुख्य सूचना आयोग ने सीबीआई पर सूचनाओं को वापस लेने का आरोप लगाया और एक महीने बाद ही दिल्ली स्थित सीबीआई की एक स्पेशल कोर्ट ने क्वात्रोची को इस मामले में बरी कर दिया और टिप्पणी की कि टैक्सपेयर्स की गाढ़ी कमाई को देश उसके प्रत्यर्पण पर खर्च नहीं कर सकता है क्योंकि इस मामले की जांच में पहले ही करीब 250 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. बाद में क्वात्रोची की भी मौत हो गई.

साल 2017 में सीबीआई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार अगर आदेश दे तो फिर से बोफोर्स मामले की जांच शुरू कर सकती है. सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल करके दिल्ली हाई कोर्ट के साल 2005 के फैसले को चुनौती दी जिसमें राजीव गांधी को क्लीन चिट दी गई थी.

लेकिन नवंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट में बोफोर्स घोटाले की जांच फिर से शुरू किए जाने की सीबीआई की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. अब इस मामले में ना तो सीबीआई के पास कुछ है और ना ही सुप्रीम कोर्ट में कोई नई याचिका या अपील दायर की गई है.

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