लोकसभा में अगले कुछ दिनों में पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल 2020 पेश किया जा सकता है. कीटनाशकों से फसल की बरबादी पर भारीभरकम मुआवजे के अलावा देश के अन्नदाताओं के लिए इस बिल में ऐसा क्या है जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके?
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पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल 2020 को मंजूरी दी थी. यह 1968 के इन्सेक्टिसाइड ऐक्ट की जगह लेगा. बिल का एक प्रमुख प्रावधान है 50 हजार करोड़ रुपये के कॉरपस फंड की स्थापना जो उन स्थितियों में किसानों के लिए राहत राशि या मुआवजे के तौर पर काम करेगी जब उनकी फसल कीटनाशकों की वजह से बरबाद होती है.
डायरेक्ट डेबिट ट्रांसफर (डीडीटी) के जरिए किसानों को सीधा उनके खाते में ये मुआवजा मिलेगा. बताया गया है कि इस कॉरपस फंड के लिए पंजीकृत पेस्टिसाइड निर्माता कंपनियों, केंद्र और राज्य सरकारें 60:20:20 के अनुपात में धनराशि जमा करेंगे. प्रतिबंधित पेस्टिसाइड के इस्तेमाल पर 50 लाख रुपये तक का जुर्माना और तीन से पांच साल की जेल का प्रावधान भी किया गया है. अभी यह जुर्माना दो हजार रुपये और तीन साल की जेल का है.
बिल में एक केंद्रीय बोर्ड का गठन भी प्रस्तावित है जिसमें केंद्र और राज्यों के विशेषज्ञों के अलावा किसानों के प्रतिनिधि शामिल होंगें. पेस्टिसाइड के इस्तेमाल को रेगुलेट करने की प्रक्रिया में भी आमूलचूल बदलाव किए गए हैं. पंजीकरण और प्रतिबंध की व्यवस्था होगी और सेल्स, पैकेजिंग, लेबलिंग, मूल्य तय करने, भंडारण, वितरण और विज्ञापनों में तथ्यपूर्ण जानकारी जैसे मुद्दों का विशेष ख्याल रखा जाएगा. केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय एक वेबपोर्टल भी बनाएगा जिसमें पेस्टिसाइडों के उपयोग, क्षमता, कमजोरियों, जोखिम और उनके विकल्पों आदि के बारे में सभी भाषाओं में जानकारी मुहैया करायी जाएगी.
मुआवजे आदि से जुड़ी शिकायतों के निवारण के लिए भी पोर्टल का उपयोग किया जाएगा. प्रतिबंधित पेस्टिसाइड की लिस्ट को अपडेट करने का काम भी कृषि मंत्रालय की मदद के साथ किया जाएगा. खबरों के मुताबिक इस समय बाजार में 40 से 75 प्रतिबंधित उत्पाद बिक रहे हो सकते हैं. बिल में न सिर्फ इनकी रोकथाम बल्कि कई पेस्टिसाइड रसायनों के आयात को भी बैन करने की व्यवस्था की गई है.
अपनी रूपरेखा और तैयारी में बिल के प्रावधान महत्त्वपूर्ण लगते हैं और सदाशयता भी नजर आती है लेकिन एक व्यापक कार्ययोजना और क्रियान्वयन मशीनरी के अभाव में बिल कितना सार्थक होगा, इस पर सवाल हैं. भारत में कृषि बड़े पैमाने पर रसायनों पर निर्भर है और इसमें कीटनाशक भी हैं जिनका इस्तेमाल मनुष्य हो या जानवर सबके स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव छोड़ता है. इसके अतिरिक्त जैव विविधता और पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी किसी से छिपा नहीं है. जानकार इसे एक धीमे जहर की तरह मानते हैं.
भारत में कीटनाशकों के अलावा फन्जिसाइड (फफूंदनाशक) और हर्बिसाइड (तृणनाशक) जैसे रसायन भी इस्तेमाल किए जाते हैं. इनका इस्तेमाल कीटनाशकों की तुलना में कम है. अमेरिका, जापान और चीन के बाद पूरी दुनिया में कीटनाशकों का चौथा सबसे बड़ा निर्माता देश भारत को ही बताया जाता है और कीटनाशकों के निर्यात में उसका नंबर 13वां है. भारत में कृषि-रसायन का एक बहुत बड़ा उद्योग है.
रिसर्च ऐंड मार्केट्स नामक एक डाटाबेस की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारत का कीटनाशक बाजार करीब 20 करोड़ रुपये का था. 2024 तक इसके तीस करोड़ से अधिक हो जाने का अनुमान है. अक्टूबर 2019 तक भारत में कुल 292 कीटनाशक पंजीकृत थे. सबसे ज्यादा कीटनाशक महाराष्ट्र में इस्तेमाल होता है. इसके बाद यूपी, पंजाब और हरियाणा का नंबर आता है. प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल के हिसाब से देखें तो सबसे आगे पंजाब है, फिर हरियाणा और महाराष्ट्र. जानकारों के मुताबिक कीटनाशकों के इस्तेमाल में इधर काफी तेजी आई है. ये ट्रेंड 2009-10 के बाद से ज्यादा देखा गया है.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
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पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
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नए बिल में किसानों और उनके पशुओं के स्वास्थ्य की देखरेख और मेडिकल परामर्श आदि का प्रावधान भी होना चाहिए. जैव विविधता पर पड़ने वाले असर को दूर करने के प्रावधान भी जरूरी हैं. सबसे अहम तो यह है कि कीटनाशकों के कम से कम इस्तेमाल को प्रेरित किया जाए. बिल को रासायनकि कीटनाशकों के अलावा गैर सिंथेटिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बारे में भी सोचना चाहिए. टिकाऊ खेती के लिए टिकाऊ संसाधनों और अभ्यासों की जरूरत है.
आज जैविक खेती को बढ़ावा बेशक दिया जा रहा है, बाकायदा अभियान के स्तर पर यह काम हो रहा है और ऑर्गनिक उत्पादों का एक विशाल समांतर बाजार भी खड़ा हो गया है जो अपेक्षाकृत महंगा, सीमित और आम उपभोक्ताओं की खरीदारी रेंज से आमतौर पर बाहर है. जरूरत इस बात की है कि जैविक खाद्य सामग्रियों को आमफहम बनाया जाए और किसानों के लिए ऐसे बीज और उपज का ऐसा पर्यावरण मुहैया कराया जाए जहां उन्हें ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के झांसे में आने को विवश न होना पड़े. बीजों की गुणवत्ता से समझौता न करने की मानसिकता भी बनानी होगी.
पर्यावरणवादी और कृषि मामलों के जानकार नए कानून में राज्यों को और अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की भी जरूरत बताते हैं क्योंकि खेती से जुड़ी भौगोलिक और भूगर्भीय और पर्यावरणीय जरूरतों और मिट्टी की संरचनाओं को राज्य और उनकी मशीनरी ही बेहतर समझ सकती है. खाद्य सुरक्षा कानून के साथ भी इस प्रस्तावित कानून का सही समन्वय बनाया जाना जरूरी है. किसानों को और अधिक जागरूक बनाने के लिए लेबलिंग को बेहतर करना तो एक उपाय है ही, इसके अलावा तकनीकी मदद के लिए ग्रामीण इलाकों में घुमंतू कैंप या स्थायी सेवा केंद्र भी लगाए जा सकते हैं.
हर चीज की जानकारी पोर्टल पर डालकर यह मान लेना कि सूचना का विस्तार हो गया, सही नहीं होगा क्योंकि अभी भी भारत की एक बड़ी ग्रामीण आबादी डिजिटल तौर पर साक्षर नहीं कही जा सकती है. एक बड़ा डिजिटल विभाजन अभी भी कायम है. इन सब जरूरतों के बीच बुनियादी चिंता यही है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से जुड़े दुष्चक्र को निर्णायक रूप से कैसे तोड़ा जाए.
जर्मनी के हजारों किसान बॉन शहर में अपने ट्रैक्टर के साथ विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे हैं. ये किसान सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध जताने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं.
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सबसे बड़ा प्रदर्शन बॉन में
यह प्रदर्शन जर्मनी के दूसरे शहरों में भी हो रहा है लेकिन सबसे बड़ी संख्या में किसान बॉन शहर में आए हैं. अनुमान है कि सुबह 10 बजे तक कम से कम 10 हजार किसान और 800 से ज्यादा ट्रैक्टर विरोध करने शहर में दाखिल हुए हैं.
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नाइट्रेट सीमित करने का विरोध
जर्मन सरकार ने प्रकृति के संरक्षण के लिए खेतों में नाइट्रेट का प्रयोग सीमित करने का फैसला किया है. किसान इसकी वजह से नाराज हैं और विरोध प्रदर्शन के जरिए अपनी नाराजगी जता रहे हैं.
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किसानों की जनसभा
किसानों ने बॉन शहर में मौजूद कृषि मंत्रालय के सामने ट्रैक्टर चला कर विरोध जताया और फिर शहर के मुख्य केंद्र में एक जनसभा में पहुंचे.
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सड़कों पर ट्रैफिक जाम
प्रदर्शन के कारण शहर में ट्रैफिक जाम हो गया है, हर तरफ सड़कों से लेकर मैदानों तक में बड़े बड़े ट्रैक्टर ही खड़े दिखाई दे रहे है.
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पुलिस की भारी तैनाती
बॉन शहर में भारी संख्या में पुलिस बल को भी तैनात किया गया है, ताकि शहर की व्यवस्था में कोई बड़ी बाधा ना आए और अप्रिय घटना को रोका जा सके.
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कृषि नीति को बदलना जरूरी
जर्मनी की कृषि मंत्री यूलिया क्लोएकनर ने किसानों से सहानुभूति जताई लेकिन उनका कहना है कि कृषि नीति को बदलना अब जरूरी हो गया है और इसे रोका नहीं जा सकता.
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टिकाऊ खेती को उपाय
सरकार की नीति के केंद्र में यह तय करना है कि खेतों में कितना उर्वरक और खाद डाला जाए जिससे कि भूजल और नदियों के पानी पर इसका असर ना हो.
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पर्यावरण की रक्षा भी जरूरी
पर्यावरण मंत्री स्वेन्या शुल्त्स ने कीटों की रक्षा करने की जरूरत की ओर ध्यान दिलाया है. उनका यह भी कहना है कि खेतों में कीटों के अलावा चिड़ियों की संख्या भी घट रही है.
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"जरूरत से ज्यादा नियम से परेशानी"
किसानों के संगठन राइनलैंड एग्रीकल्चरल एसोसिएशन के प्रमुख बर्नहार्ड कोनत्सेन का कहना है, "आधिकारिक नियमों की जो बाढ़ आ गई है उसका अंत होना चाहिए."
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मर्कोसुर का विरोध
किसान यूरोपीय संघ और दक्षिण अफ्रीकी कारोबार संगठन के बीच हुए मर्कोसुर मुक्त व्यापार समझौते को बदलने की मांग कर रहे हैं. इसमें खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से जुड़े नियम बनाये गए हैं.
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खेती नहीं तो खाना नहीं
किसानों का मानना है कि नए नियमों की वजह से उन किसानों की मुश्किलें बढ़ रही है जिनके लिए खेती पारिवारिक व्यवसाय है. उनका कहना है कि अगर खेती को बचाया नहीं गया तो खाने का संकट होगा.
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क्या जरूरी है और क्या हासिल हो सकता है
किसानों का कहना है कि टिकाऊ खेती तक पहुंचने के लिए बदलाव की एक संरचना होनी चाहिए और आपसी सहमति से तय होना चाहिए कि क्या जरूरी है और क्या हासिल किया जा सकता है.