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कुंभ में गंगा-जमुनी तहजीब

१ फ़रवरी २०१३

बालीवुड एक्टर रणवीर कपूर रॉकस्टार में जब हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की शान में पेश गीत 'कुन फाया कुन' पर झूम रहे हैं तो उसमें कई बार रंगरेजा.....रंगरेजा....... रंगरेजा..... लफ्ज आया है.

तस्वीर: DW/S. Waheed

इलाहाबाद के एक गांव अहलादगंज के रंगरेज कुंभ में उसी अर्थ को वास्तविक रूप दे रहे हैं जिन अर्थों में ये शब्द गीत में इस्तेमाल किया गया है. कपडे को चाहें जिस रंग में रंग दें, चाहे राम के या रहीम के रंग में.

इलाहाबाद का एक गांव अहलादपुर वास्तविक अर्थों में आपसी भाईचारे की जिंदा मिसाल है जहां एक तरफ मुस्लिम रंगरेज ' राम नामी दुपट्टा ' छाप रहे हैं तो कुछ ही दूसरी तरफ हिन्दू महिलाऐं ' कलाई नाड़ा 'तैयार कर रही हैं. एखलाक, इजहार, अरशद और शन्नू के हाथों से छपे राम नामी दुपट्टे को कुंभ में राम खरीद कर ओढें या श्याम. और इसी गांव की हिन्दू औरतों के हाथों के बने कलाई नाड़े को कुंभ में कोई बांधे या न बांधे, किसी न किसी दरगाह या मजार पर मिन्नत का धागा तो बनेगा ही.

कलाई नाड़ा बनाती महिलाएंतस्वीर: DW/S. Waheed

इन महिलाओं से बात करने की कोशिश में ये अपना घूंघट और बढ़ा लेती हैं, कैमरे को देख किसी तरह अपना चेहरा छुपा लेती हैं. बड़ी मुश्किल से एक बुज़ुर्ग महिला घूंघट के अन्दर से कहती है ' कोई मरदे न हैइ जो बतावे कि आप का चाहत हो'. जरा सी दूर सामने ही एक पक्के मकान की छत पर एखलाक, इजहार, अरशद, शन्नू खटाखट रामनामी दुपट्टा छापे चले जा रहे हैं. बात करते हुए भी इनके हाथ नहीं रुकते, वजह साफ है, एक फर्मे की छपाई मिलती है 25 पैसे, दो मिनट की बातचीत में एक-दो रूपये का घाटा. इजहार बात करने को तैयार होता है 'बाम्बे के मतीन सेठ का काम होता है, वहां से वो पीले रंग का बोस्की कपडा गांठों-गांठों में भिजवाते हैं, हम लोग इसे छापते हैं फिर इसको दूसरे कारीगर काट कर इसके किनारे सिलते हैं'. उसके बाद कैसे कहां ये दुपट्टा बिकने जाता है इजहार को नहीं पता. एक मीटर कपडे में दो रामनामी दुपट्टे आराम से निकलते हैं और कुंभ में ये दुपट्टा 25 से 30 रूपये का मिल रहा है. हर श्रद्धालु की पसंद और कुंभ की निशानी भी.

इस गांव में करीब डेढ़ हजार रंगरेजों के परिवार हैं जिनका पुश्तैनी धंधा यही है. रामनामी दुपट्टे के अलावा गमछा और चादरें भी यही छापी जाती हैं रंगरेजों के हाथों. अहलादगंज के अलावा खनझनपुर और इब्राहीमपुर गांव में भी ऐसी ही छपाई होती है. करीब दो दशकों से इस धंधे को अपनाए शाहिद का कहना है, ' कुंभ उनके लिए ईद बनकर आता है जब सबसे ज्यादा काम मिलता है.'

रंग दे चुनरी पी के रंग मेंतस्वीर: DW/S. Waheed

गंगा-जमुनी तहजीब

संगम पर तो गंगा-यमुना है ही, लेकिन किनारे गंगा-जमुनी तहजीब भी पुरे आबो-ताब से मौजूद है. आरएसएस के अनुषांगिक संगठन ' राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ' का शिविर लगा है तो कई अखाड़े-आश्रम ऐसे भी हैं जहां अजान देने वाले होठों से भजन और शिव उपासना के बोल फूट रहे हैं. बहादुरगंज के कुछ मुस्लिम परिवारों के लिए कुंभ अब नया नहीं रहा. पीढ़ियों से ये लोग हर कुंभ में आरती के वक्त जुगलबंदी करते आए हैं. अखाड़ों के बाहर सुबह-शाम आरती के वक्त घंटा-घड़ियाल के साथ नगाड़ा बजाने में सरमु का जवाब नहीं, वो मुस्लिम है , उसके आलावा कोई और पंडों को भाता ही नहीं. जूना अखाड़े के बाहर मुबीन सुबह शाम नगाड़ा बजाते हैं, बात करते हुए भी उनके हाथ नहीं रुकते. कहते हैं उनके खानदान में यही होता आया है. मुबीन से पहले उसके पिता अख्तर हुसैन निरंजनी अखाड़े में शहनाई बजाते थे. पंचायती अखाड़े में नौशाद शहनाई बजाते हैं. फ़िरोज भी जूना अखाड़े में है, ऐसे सौ से कम नहीं जो विभिन्न अखाड़ों की भक्ति में शामिल हो रहे हैं. उधर सरकारी ड्यूटी में कमांडो जावेद, सिपाही नबी अहमद, मीडिया सेंटर के फहीम आज़ाद वगैरा.....कुंभ किसी के लिए आस्था, श्रद्धा, उपासना या सिद्धि का अवसर है तो किसी के लिए धार्मिक पर्यटन, और किसी के लिए रोजी रोटी का काम.

रिपोर्ट : एस. वहीद, लखनऊ

संपादनः आभा मोंढे

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