उत्तरी इराक के एक प्राचीन लेकिन उजड़े हुए मंदिर में एक उत्सव के दौरान फैजा फुआद कुर्दों की उस जमात में शामिल हो गईं जो इस्लाम को छोड़ कर अपने पूर्वजों के जरथुष्ट यानी पारसी धर्म को अपना रहे हैं.
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इस्लामिक स्टेट के जिहादी गुटों के साथ कई सालों से चली आ रही हिंसा के कारण बहुत से लोगों का इस्लाम से मोहभंग हुआ है. इतना ही नहीं सरकार के दमन के लंबे इतिहास ने भी इराक के स्वायत्तशासी कुर्द इलाके में रहने वाले लोगों को मजबूर किया है कि वे सदियों पुराने अपने धर्म के रास्ते पर चल कर अपनी पहचान को जिंदा करें.
इराक के स्वायत्तशासी कुर्द इलाके में पारसियों के शीर्ष पुजारी असरवान काद्रोक कहते हैं, "इस्लामिक स्टेट की क्रूरता देखने के बाद बहुत से लोगों ने अपने धर्म के बारे में दोबारा सोचना शुरू किया है." ईरानी सीमा के पास दरबंदीखान में फुआद के धर्म परिवर्तन की रस्मों के दौरान पुजारी और उनके सहायकों ने सादे कपड़े पहन रखे थे. इस दौरान उन्होंने जरथुष्ट धर्मग्रंथ अवेस्ता से कुछ छंदों का पाठ किया. इस धर्म में सादे कपड़े पवित्रता की निशानी हैं. इन लोगों ने फुआद की कलाई पर तीन गांठें लगा कर एक धागा बांधा जो इस धर्म के मूल सिद्धांतों अच्छे शब्द, अच्छे विचार और अच्छे काम का प्रतीक हैं. जरथुष्ट धर्म में नए नए शामिल हुए लोगों ने इन तीन सिद्धांतों से बंधे रहने और प्रकृति को बचाने की शपथ ली. इसमें पानी, हवा, अग्नि, पृथ्वी, जीव जंतु और इंसानों का सम्मान करने की बात शामिल है.
ये लोग आग की पूजा करते हैं. इनका मानना है कि आग ने अंधेरे को खत्म कर रोशनी फैलाई. भारत में मुंबई से 200 किलोमीटर दूर गुजरात के उद्वदा में पारसियों का एक पुराना मंदिर है. कहा जाता है कि यहां दुनिया की सबसे पुरानी आग जल रही है.सदियों पुराने इस धर्म को मानने वालों की तादाद पूरी दुनिया में अब महज 2 लाख के आसपास है. इसमें एक बड़ी तादाद भारत के महाराष्ट्र और गुजरात में हैं. भारत में यह समुदाय कारोबार की दुनिया में काफी प्रभावशाली है. धर्म के नियमों के मुताबिक सिर्फ पारसी मां बाप की संतान ही जरथुष्ट हो सकती है. इनमें से अगर कोई एक दूसरे धर्म का हो तो संतान को धर्म में शामिल नहीं किया जा सकता. भारत के पारसी इस नियम का कठोरता से पालन करते हैं और इसी वजह से उनकी आबादी तेजी से घट रही है. तो फिर सवाल है कि कुर्द कैसे पारसी धर्म में शामिल हो रहे हैं?
मध्यपूर्व मामलों के जानकार फज्जुर रहमान कहते हैं, "मुमकिन है कि दूसरे इलाके के पारसियों ने धर्म में आंतरिक सुधार किया हो. एक सच्चाई यह भी है कि कुर्द अपनी कबीलाई संस्कृति से पूरी तरह अलग नहीं हुए हैं और सुन्नियों ने चूंकि कभी उन्हें पूरी तरह से अपनाया नहीं बल्कि उनका दमन किया इसलिए वे वापस अपनी जड़ों की ओर जा रहे हैं." भारत में भी लंबे समय से जरथुष्ट धर्म में सुधार करने की मांग हो रही है लेकिन अब तक इसमें कोई कामयाबी नहीं मिल सकी है.
गले में फारावार की माला पहने फुआद ने कहा, "मैं बहुत खुश हूं और तरोताजा महसूस कर रही हूं." फारावार की माला इस धर्म के बड़े आध्यात्मिक प्रतीकों में शामिल है. ये माला फुआद को पुजारी ने भेंट में दी. फुआद ने बताया कि वे लंबे समय से इस धर्म का अध्ययन कर रही थीं और इसके सिद्धांतों ने उन्हें इसे अपनाने पर विवश किया. वे कहती हैं, "यह जिंदगी को आसान बनाता है. यह ज्ञान और सिद्धांतों के बारे में है. यह मानव और प्रकृति की सेवा करता है."
जरथुष्ट धर्म की नींव प्राचीन ईरान में कोई 3500 साल पहले पड़ी थी. हजारों साल तक यह ताकतवर पारसी साम्राज्य का आधिकारिक धर्म रहा लेकिन सन 650 में अंतिम जरथुष्ट राजा की हत्या और इस्लाम के उदय ने इसे लंबे समय के लिए अंत की ओर धकेल दिया. हालांकि दमन की तमाम कोशिशों के बावजूद भी धर्म जिंदा रहा. ईरान में इस्लाम का असर बढ़ने के बाद मुट्ठी भर पारसी भाग कर भारत आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए. यही वजह है कि भारत में इस धर्म को फलने फूलने का मौका मिला. इस धर्म को मानने वाले लोगों में मशहूर ब्रिटिश गायक फ्रेडी मर्क्यूरी भी हैं. मर्क्यूरी का जरथुष्ट परिवार वास्तव में भारत के गुजरात से आया था.
इराक के स्वायत्तशासी क्षेत्रीय सरकार के धार्मिक मामलों के मंत्रालय में जरथुष्ट का प्रतिनिधित्व करने वाली अवात तायिब बताती हैं, "सद्दाम हुसैन के शासन के दौरान मेरे पिता जरथुष्ट धर्म का पालन करते थे लेकिन इसे सरकार, पड़ोसियों और यहां तक कि अपने रिश्तेदारों से भी छिपा कर रखते थे" 2014 में इस्लामिक स्टेट के जिहादियों ने उत्तरी इराक के एक बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया और उसके बाद जो उन्होंने किया उसे अल्पसंख्यक यजीदियों के खिलाफ नरसंहार का ही नाम दिया जा सकता है. इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने इस्लामी कानूनों के एक क्रूर संस्करण को लागू किया जिसका नतीजा तीन साल तक चली जंग, उसके बाद स्वघोषित "खिलाफत" का खात्मा और इलाके की तबाही के रूप में सामने आया.
जरथुष्ट पुजारी काद्रोक का कहना है, "बहुत से लोग मानते हैं कि इस्लामिक स्टेट के सिद्धांत कुर्द सिद्धांतों और परंपरा के बिल्कुल खिलाफ हैं, इसलिए कुछ लोगों ने अपना धर्म छोड़ने का फैसला किया है." काद्रोक हर हफ्ते धर्म परिवर्तन के लिए कार्यक्रम का आयोजन करते हैं ताकि नए लोगों का धर्म में स्वागत कर सकें. इस धर्म को क्षेत्रीय अधिकारियों ने 2015 में मान्यता दी. इसके बाद से अब तक तीन मंदिर बन गए हैं. हालांकि तायिब का कहना है कि सरकार को अभी इस धर्म को मानने वालों के लिए कब्रिस्तान बनाना बाकी है.
इराक के कुर्दों में प्रमुखता सुन्नी मुसलमानों की ही है लेकिन दूसरे धर्मों को मानने वाले लोग भी इनमें शामिल हैं. इनमें सुन्नियों के अलावा शिया, अलवी, यजीदी, पारसी, ईसाई और धर्मनिरपेक्ष लोग भी हैं. स्वायत्तशासी क्षेत्र में रहने वाले लोगों में कुछ के लिए जरथुष्ट की तरफ जाना इराक की सत्ता का विरोध कर अपनी क्षेत्रीय पहचान पर अधिकार जताने का जरिया भी है. अलग अलग देशों की सीमा में बंटे कुर्दों के पास सब कुछ है सिवाए एक देश के जिसे वे अपना कह सकें. फज्जुर रहमान बताते हैं, "कुर्दों के पास अपनी भाषा, सेना, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली है लेकिन अरब जगत ने कभी उनको मुख्यधारा में शामिल नहीं किया. तुर्की में तो महज कुर्द भाषा बोलने के लिए आपको सजा दी जा सकती है. ऐसे में अगर वे अपना धर्म बदल रहे हैं तो कोई बहुत हैरानी की बात नहीं है." 2017 में इलाके के लोगों ने जनमतसंग्रह में अपनी आजादी के लिए भारी मतदान किया था.
स्वायत्तशासी सरकार में अकेली महिला धार्मिक प्रतिनिधि तायिब का कहना है कि कुर्द समाज जरथुष्टों के प्रति ज्यादा सहिष्णु होता जा रहा है. शुक्रवार की नमाज के दौरान कुर्दों ने तुर्की के उत्तरी सीरिया में अभियान की निंदा के लिए एक कार्यक्रम किया. इस कार्यक्रम में जरथुष्ट पुजारी और उनके सहायक भी पहुंचे. जैसे ही वे कार्यक्रम में पहुंचे मुसलमानों ने उन्हें घेर लिया. उनका खूब स्वागत किया गया और लोग उनके साथ सेल्फी लेने के लिए उतावले हो रहे थे.
कौन हैं आजादी मांग रहे कुर्द लोग
इराक में आजादी के हक में कुर्द लोगों के जनमत संग्रह ने सबका ध्यान खींचा था. चलिए जानते हैं कौन कुर्द लोग.
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आबादी और इलाका
कुर्दों की आबादी ढाई से साढ़े तीन करोड़ के बीच माना जाती है. ये लोग पांच देशों इराक, सीरिया, तुर्की, ईरान और अर्मेनिया में फैले पहाड़ी इलाके में रहते हैं.
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सहज नहीं संबंध
कुर्दों का अपना अलग देश नहीं है. लेकिन वे स्वायत्ता या फिर आजादी के लिए लंबे समय से मुहिम चला रहे हैं. इसीलिए तुर्की, इराक, सीरिया और ईरान की सरकारों से उनके संबंध सहज नहीं रहे हैं.
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कुर्दिस्तान
1992 में इराक में कुर्दिस्तान रीजनल गवर्नमेंट बनी. इराक के कुर्दिस्तान इलाके में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई संसद कुर्दिस्तान नेशनल असेंबली ने यह सरकार बनायी थी.
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आबादी में हिस्सेदारी
कुर्दिस्तान की सरकार के मुताबिक इराकी कुर्दिस्तान में 52 लाख कुर्द रहते हैं. वहीं सीआईए फैक्टबुक के अनुसार आबादी के लिहाज से सीरिया में 10 प्रतिशत, तुर्की में 19 प्रतिशत, इराक में 15-20 प्रतिशत और ईरान में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी कुर्दों की है.
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अपनी सेना
इस सरकार की अपनी संसद होने के साथ साथ सेना (पेशमर्गा) भी है. आईएस से लोहा लेने में पेशमर्गा लड़ाके अकसर सुर्खियों में रहते हैं. कुर्दिस्तान सरकार के अपने बॉर्डर और विदेश नीति भी है.
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धार्मिक विश्वास
कुर्दों में ज्यादातर लोग सुन्नी इस्लाम को मानने वाले हैं, लेकिन इस समुदाय में कई और धर्मों के मानने वाले लोग भी शामिल हैं. साझा संस्कृति इन लोगों को आपस में जोड़ती है.
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अलग देश का सपना
ऑटोमन साम्राज्य के पतन और पहले विश्व युद्ध के बाद विजेता पश्चिमी गठबंधन ने 1920 की सेवरेस संधि में कुर्दों के अलग देश का प्रावधान रखा था, लेकिन बीते 80 साल में ऐसी हर कोशिश को कुचला गया है.
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विरोध
कुर्दिस्तान में अलग देश के समर्थन में हुए जनमत संग्रह को न सिर्फ इराक ने खारिज किया है, बल्कि तुर्की के राष्ट्रपति ने इस इलाके की नाकेबंदी कर देने की धमकी दी है.
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तुर्की और ईरान का डर
तुर्की और ईरान को लगता है कि ऐसे जनमत संग्रह के चलते उनके यहां भी कुर्द आजादी की मांग उठा सकते हैं. इन दोनों देशों के कुर्दिस्तान इलाके के साथ व्यापारिक संबंध हैं, जिन्हें अब वे खत्म करने की धमकी दे रहे हैं.
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अमेरिका भी साथ नहीं
कई पश्चिमी देशों ने भी कुर्दों के जनमत संग्रह को मानने से इनकार कर दिया है. उनका कहना है कि इससे मध्यपूर्व में हालात और भी अस्थिर होंगे. हालांकि कुर्दों के लिए अधिक स्वायत्ता की कई देश पैरवी करते हैं.
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इराकी कुर्दिस्तान में इस्लाम अब भी मुख्य धर्म है. जरथुष्ट धर्म को मानने वालों की संख्या के बारे में कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है. इस्लामी धर्मगुरु मुल्ला समान का कहना है, "जरथुष्ट हमारे भाई हैं, हमारे दुश्मन नहीं हैं. हमारे दुश्मन तो वे हैं जो हमें मार रहे हैं जैसे (तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप) एर्दोवान."
कुर्दिस्तान में जरथुष्ट धर्म का प्रचार करने वाले यासना संगठन के प्रमुख आजाद सईद मोहम्मद कहते हैं कि कुर्दों को अपने अलग धर्म की जरूरत है जैसे कि मध्यपूर्व के दूसरे देशों में है ताकि वे आक्रमणों और चढ़ाई करने वालों से बच सकें, "हमें अपने प्राचीन धर्म का इस्तेमाल करने की जरूरत है ताकि हम अपनी पहचान को फिर से जिंदा कर सकें और अपना देश बना सकें."
मध्य पूर्व के दो ताकतवर देशों सऊदी अरब और ईरान के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है. दोनों धर्म से लेकर तेल और इलाके में दबदबा कायम करने तक, हर बात पर झगड़ते हैं.
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शिया-सुन्नी टकराव
दोनों ही देश खुद को इस्लाम की दो अलग अलग शाखों का संरक्षक मानते हैं. सऊदी अरब जहां एक सुन्नी देश है, वहीं ईरान शिया देश. इसीलिए ये दोनों दुनिया भर में शिया और सुन्नियों के बीच होने वाले विवादों की धुरी माने जाते हैं.
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तेल के दाम
1973 में अरब-इस्राएल युद्ध के दौरान तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के दाम बहुत बढ़ा दिये थे. अरब तेल उत्पादक देशों ने इस्राएल समर्थक समझे जाने वाले देशों पर रोक लगा दी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था.
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तनाव बढ़ा
ईरान चाहता था कि तेल के दाम और बढ़ाये जाएं ताकि उसके यहां महत्वाकांक्षी औद्योगिक विकास परियोजनाओं के लिए धन मिल सके. लेकिन सऊदी अरब नहीं चाहता था कि तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो. इसके पीछे उसका मकसद अपने सहयोगी देश अमेरिका को बचाना था.
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क्रांति का निर्यात
ईरान में 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान पश्चिम समर्थक शाह को सत्ता से बेदखल किया गया और देश में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई. इसके बाद क्षेत्र के सुन्नी देशों ने ईरान पर आरोप लगाया कि वह उनके यहां क्रांति को "भेजने" की कोशिश कर रहा है.
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इराक-ईरान युद्ध
सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और यह युद्ध आठ साल तक चला. सऊदी अरब ने वित्तीय रूप से इराकी सरकार की मदद की और अन्य सुन्नी देशों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे ईरान और सऊदी अरब की कड़वाहट और बढ़ी.
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हज में टकराव
सऊदी सुरक्षा बलों ने 1987 में मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के अनाधिकृतक अमेरिका विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई की. इस दौरान 400 लोग मारे गये हैं. इससे गुस्साए ईरानियों ने तेहरान में सऊदी दूतावास में लूटपाट की.
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हज का सियासी इस्तेमाल
अप्रैल 1988 में सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये. 1991 तक ईरान से कोई श्रद्धालु हज यात्रा पर नहीं गया. ईरान अकसर सऊदी अरब पर हज यात्रा को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाता रहा है.
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बेहतर हुए संबंध
ईरान में मई 1997 के राष्ट्रपति चुनावों में सुधारवादी मोहम्मद खतामी की जीत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में सुधार देखने को मिला. मई 1999 में राष्ट्रपति ईरानी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब का ऐतिहासिक दौरा किया था.
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इराक की जंग
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले ने सऊदी-ईरान तनाव को और बढ़ दिया. अमेरिकी हमले के चलते इराक में बाथ पार्टी का शासन खत्म हुआ और बहुसंख्यक शिया समुदाय को सत्ता में आने का मौका मिला. इससे इराक पर ईरान का प्रभाव बढ़ने लगा.
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अरब स्प्रिंग
2011 में जब अरब दुनिया में बदलाव की लहर चली तो सऊदी अरब ने पड़ोसी बहरीन में अपने सैनिक भेजे. वहां सुन्नी शासक के खिलाफ बहुसंख्यक शिया लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. सऊदी अरब ने ईरान पर बहरीन में गड़बड़ी फैलाने का आरोप लगाया.
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सीरिया संकट
ईरान-सऊदी अरब के झगड़े में 2012 के सीरिया संकट ने भी आग में घी का काम किया. सीरिया की जंग में जहां ईरान सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का साथ दे रहा है, वहीं उनके खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को सऊदी अरब और उसके सहयोगी अमेरिका का समर्थन मिला.
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यमन का मोर्चा
यमन संकट में भी सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए. मार्च 2015 में सऊदी अरब ने सुन्नी अरब देशों का एक गठबंधन बनाया, जिसने यमनी राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के समर्थन में यमन में हस्तक्षेप किया. वहीं ईरान हूती बागियों के साथ खड़ा दिखा.
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हज में भगदड़
सितंबर 2015 में हज यात्रा के दौरान भगदड़ हुई जिसमें 2,300 विदेशी श्रद्धालु मारे गये. मरने वालों में ज्यादातर ईरानी लोग शामिल थे. इसके बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने कहा कि सऊदी शाही परिवार इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों की व्यवस्था संभालने लायक नहीं है.
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फिर टूटे रिश्ते
जनवरी 2016 में सऊदी अरब में एक प्रमुख शिया मौलवी निम्र अल निम्र को मौत की सजा दी गयी. उन पर सरकार विरोधी प्रदर्शन भड़काने के आरोप लगे. ईरान ने इस पर गहरी नाराजगी जतायी. ईरान में सऊदी राजनयिक मिशन पर हमले किये गये और सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/V. Salemi
हिज्बोल्लाह एंगल
मार्च 2016 में लेबनान के शिया मिलिशिया गुट और ईरान के सहयोगी हिज्बोल्लाह को अरब देशों ने आतंकवादी करार दिया. इससे पहले हिज्बोल्लाह के प्रमुख ने सऊदी अरब पर शिया और सुन्नियों के बीच "नफरत भड़काने" का आरोप लगाया था.
तस्वीर: AP
लेबनान पर 'पकड़'
नवंबर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि ईरान हिज्बोल्लाह के जरिए लेबनान पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. पद छोड़ने के बाद हरीरी ने सऊदी अरब जाकर शाह सलमान से मुलाकात की.
तस्वीर: picture-alliance/AA/Bandar Algaloud
कतर संकट
इससे पहले जून 2017 में सऊदी अरब और उसके कई सहयोगी देशों ने कतर के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये. उन्होंने कतर पर ईरान से नजदीकी संबंध कायम करने और चरमपंथियों का समर्थन करने का आरोप लगाया.
तस्वीर: Getty Images for ANOC/M. Runnacles
ट्रंप के साथ सऊदी अरब
अक्टूबर 2017 में सऊदी अरब ने कहा कि वह ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मजबूत रणनीति का समर्थन करता है. ट्रंप ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए समझौते को मंजूर करने से इनकार कर दिया.