भारत और चीन के रिश्तों में बने हुए तनाव के बीच एक तरफ भारत कूटनीति के जरिए समाधान तक पहुंचने की जरूरत पर जोर दे रहा है, तो दूसरी तरफ सैन्य विकल्प की भी बात कर रहा है.
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लद्दाख में भारत और चीन की सेनाओं के बीच तनाव कम होने का नाम नहीं ले रहा है, बल्कि स्थिति हर रोज और ज्यादा तनावपूर्ण होती जा रही है. बताया जा रहा है कि गुरुवार को चीन ने पूर्वी लद्दाख में चुशुल के सामने अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती कर दी. मीडिया में आई खबरों के मुताबिक इस समय इलाके में हाल यह है कि दोनों सेनाओं के हजारों सैनिक, टैंक, बख्तरबंद वाहन और तोपें एक दूसरे के सामने तने हुए हैं.
इन हालात के मद्देनजर, गुरुवार को ही थल सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे और वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल आरकेएस भदौरिया दोनों ने इलाके का दौरा किया. जनरल नरवणे चुशुल सेक्टर पहुंचे तो एयर चीफ मार्शल भदौरिया ने पूर्वी सेक्टर में वायु सेना के कई महत्वपूर्ण हवाई अड्डों का जायजा लिया.
खबर है कि जनरल नरवणे शुक्रवार को उत्तर की तरफ और भी कुछ अग्रणी इलाकों का दौरा करेंगे. मौके पर तनाव को देखते हुए दोनों देशों ने सैन्य स्तर पर बातचीत के सभी रास्ते खुले रखे हुए हैं. दोनों सेनाओं के ब्रिगेडियरों के बीच चार दिनों से लगातार बातचीत हो रही है, लेकिन अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है.
उधर भारत शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर मिले जुले संदेश दे रहा है. एक तरफ विदेश मंत्री एस जयशंकर खुद कूटनीति के जरिए ही समाधान तक पहुंचने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं, दूसरी तरफ चीफ ऑफ डिफेन्स स्टाफ जनरल बिपिन रावत बार बार सैन्य विकल्प की बात कर रहे हैं. जनरल रावत ने गुरुवार को कहा कि भारत की उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं पर चीन और पाकिस्तान की तरफ से संभावित कार्रवाई की आशंका है, लेकिन भारत उस स्थिति से निपटने के लिए तैयार है.
इसके पहले वो कह चुके हैं कि चीन की चुनौती का सामना करने के लिए भारत के पास सैन्य विकल्प भी खुला है. लेकिन विदेश मंत्रालय लगातार बातचीत और कूटनीति पर जोर दे रहा है. ताजा बयान में जयशंकर ने कहा है कि दोनों देशों के एक समझौते तक पहुंचना ना सिर्फ उनके लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा कि यह बेहद जरूरी है कि दोनों देशों के बीच जिन विषयों पर आपसी सहमति है उसका ईमानदारी से पालन होना चाहिए.
हालांकि जानकारों का कहना है कि अगर भारत कूटनीति पर जोर देने की बात कर रहा है तो अभी तक दोनों देशों के बीच बातचीत सैन्य स्तर पर ही क्यों हो रही है और राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर क्यों नहीं हो रही है?
इस बीच रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रूस के अपने दौरे के दौरान भी चीन को भारत की नाराजगी का संदेश दिया है. वो रूस में शंघाई सहयोग संगठन के रक्षा मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने गए हैं, जिसका चीन भी सदस्य है. बताया जा रहा है कि गुरुवार को मॉस्को में मौजूद चीन के रक्षा मंत्री ने राजनाथ सिंह से अलग से मिलने का अनुरोध किया लेकिन भारतीय रक्षा मंत्री ने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए अनुरोध को अस्वीकार कर दिया.
भारत और चीन का सीमा विवाद दशकों पुराना है. तिब्बत को चीन में मिलाये जाने के बाद यह विवाद भारत और चीन का विवाद बन गया. एक नजर विवाद के अहम बिंदुओं पर.
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लंबा विवाद
तकरीबन 3500 किलोमीटर की साझी सीमा को लेकर दोनों देशों ने 1962 में जंग भी लड़ी लेकिन विवादों का निपटारा ना हो सका. दुर्गम इलाका, कच्चा पक्का सर्वेक्षण और ब्रिटिश साम्राज्यवादी नक्शे ने इस विवाद को और बढ़ा दिया. दुनिया की दो आर्थिक महाशक्तियों के बीच सीमा पर तनाव उनके पड़ोसियों और दुनिया के लिए भी चिंता का कारण है.
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अक्साई चीन
काराकाश नदी पर समुद्र तल से 14000-22000 फीट ऊंचाई पर मौजूद अक्साई चीन का ज्यादातर हिस्सा वीरान है. 32000 वर्ग मीटर में फैला ये इलाका पहले कारोबार का रास्ता था और इस वजह से इसकी काफी अहमियत है. भारत का कहना है कि चीन ने जम्मू कश्मीर के अक्साई चीन में उसकी 38000 किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है.
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अरुणाचल प्रदेश
चीन दावा करता है कि मैकमोहन रेखा के जरिए भारत ने अरुणाचल प्रदेश में उसकी 90 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन दबा ली है. भारत इसे अपना हिस्सा बताता है. हिमालयी क्षेत्र में सीमा विवाद को निपटाने के लिए 1914 में भारत तिब्बत शिमला सम्मेलन बुलाया गया.
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किसने खींची लाइन
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने मैकमोहन रेखा खींची जिसने ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच सीमा का बंटवारा कर दिया. चीन के प्रतिनिधि शिमला सम्मेलन में मौजूद थे लेकिन उन्होंने इस समझौते पर दस्तखत करने या उसे मान्यता देने से मना कर दिया. उनका कहना था कि तिब्बत चीनी प्रशासन के अंतर्गत है इसलिए उसे दूसरे देश के साथ समझौता करने का हक नहीं है.
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अंतरराष्ट्रीय सीमा
1947 में आजादी के बाद भारत ने मैकमोहन रेखा को आधिकारिक सीमा रेखा का दर्जा दे दिया. हालांकि 1950 में तिब्बत पर चीनी नियंत्रण के बाद भारत और चीन के बीच ऐसी साझी सीमा बन गयी जिस पर कोई समझौता नहीं हुआ था. चीन मैकमोहन रेखा को गैरकानूनी, औपनिवेशिक और पारंपरिक मानता है जबकि भारत इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा का दर्जा देता है.
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समझौता
भारत की आजादी के बाद 1954 में भारत और चीन के बीच तिब्बत के इलाके में व्यापार और आवाजाही के लिए समझौता हुआ. इस समझौते के बाद भारत ने समझा कि अब सीमा विवाद की कोई अहमियत नहीं है और चीन ने ऐतिहासिक स्थिति को स्वीकार कर लिया है.
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चीन का रुख
उधर चीन का कहना है कि सीमा को लेकर कोई समझौता नहीं हुआ और भारत तिब्बत में चीन की सत्ता को मान्यता दे. इसके अलावा चीन का ये भी कहना था कि मैकमोहन रेखा को लेकर चीन की असहमति अब भी कायम है.
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सिक्किम
1962 में दोनों देशों के बीच लड़ाई हुई. महीने भर चली जंग में चीन की सेना भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में घुस आयी. बाद में चीनी सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा पर वापस लौटी. यहां भूटान की भी सीमा लगती है. सिक्किम वो आखिरी इलाका है जहां तक भारत की पहुंच है. इसके अलावा यहां के कुछ इलाकों पर भूटान का भी दावा है और भारत इस दावे का समर्थन करता है.
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मानसरोवर
मानसरोवर हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ है जिसकी यात्रा पर हर साल कुछ लोग जाते हैं. भारत चीन के रिश्तों का असर इस तीर्थयात्रा पर भी है. मौजूदा विवाद उठने के बाद चीन ने श्रद्धालुओं को वहां पूर्वी रास्ते से होकर जाने से रोक दिया था.
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बातचीत से हल की कोशिश
भारत और चीन की ओर से बीते 40 सालों में इस विवाद को बातचीत के जरिए हल करने की कई कोशिशें हुईं. हालांकि इन कोशिशों से अब तक कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ. चीन कई बार ये कह चुका है कि उसने अपने 12-14 पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद बातचीत से हल कर लिए हैं और भारत के साथ भी ये मामला निबट जाएगा लेकिन 19 दौर की बातचीत के बाद भी सिर्फ उम्मीदें ही जताई जा रही हैं.