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"कृपया हमें पिछड़ा बना दो"

ओंकार सिंह जनौटी२६ सितम्बर २०१५

आरक्षण की ताकत का अंदाजा होते ही राजनैतिक दलों ने इसे हथियार बना लिया. इसी हथियार ने देश को बुरी तरह घायल कर दिया है. जरूरत अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरियों की है. ओंकार सिंह जनौटी का ब्लॉग.

Indien Schüler Symbolbild
तस्वीर: AFP/Getty Images/S. Hussain

हम सबने बच्चों को खेलते हुए देखा है. हम खुद भी उस प्रक्रिया से गुजरे हैं. खेलते समय बच्चे तय करते हैं कि किसकी बारी कब आएगी. कभी कभार जब किसी बच्चे की बारी नहीं आ पाती तो अगले गेम में उसे पहले चांस दिया जाता हैं. इस दौरान झगड़े भी होते हैं, लेकिन झगड़ते झगड़ते बच्चे समस्या का स्थायी समाधान करना सीख जाते हैं.

अब बड़ों की बात करते हैं, जो काफी समय से कुछ नहीं सीख रहे हैं. आरक्षण ही की मिसाल ले लें. यह भी काफी हद तक खेल में बच्चों की बारी आने जैसा है. लेकिन यहां हार जीत के बजाए पूरी जिंदगी दांव पर लगी होती है, क्योंकि मौके बहुत कम है. सब नौकरी करना चाहते हैं क्योंकि सभी को उसी में सम्मान दिखता है. किसान, लोहार, सफाई कर्मचारी, कलाकार और शिल्पकार बनने में हर किसी को लज्जा आती है. इन क्षेत्रों में बहुत कम आमदनी है. और जब समाज में हर इंसान की हैसियत आमदनी से तय हो और उसी के मुताबिक उससे व्यवहार हो, तो कौन पीछे रहना चाहेगा. इसी धुरी में आरक्षण का पहिया भी घूमता है.

ओंकार सिंह जनौटीतस्वीर: DW/P. Henriksen

भारत में आरक्षण देने का उद्देश्य वंचित वर्ग को सामाजिक और आर्थिक रूप से बराबरी का हक देना था. लेकिन अब यह राजनैतिक औजार बन चुका है. वंचित वर्ग को बराबरी का अवसर मिलना चाहिए, तभी वे राष्ट्र के विकास में समुचित योगदान दे सकते हैं. लेकिन पिछड़ा होने और फायदा लेने के लिए खुद को पिछड़ा साबित करने की होड़, इन दोनों में फर्क है. अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने क्रीमी लेयर की सीमा बदलने की वकालत की है. आयोग के अनुसार क्रीमी वर्ग उन्हीं को कहा जाना चाहिए जिनकी वार्षिक आय 10.5 लाख रुपये हो. फिलहाल यह सीमा छह लाख रुपये हैं. आयोग का कहना है कि ऐसा करके ही अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए तय 27 फीसदी कोटा भरा जा सकेगा. लेकिन क्या कोटा भरने के लिए संपन्न परिवारों के बच्चों को विरासत के तौर पर आरक्षण दिया जाना चाहिए. भारत में आज प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय करीब 90 हजार रुपये हैं. लाखों लोग तो साल भर में इतना भी नहीं कमा पा रहे हैं. एक बड़ा तबका 70 रुपये प्रति दिन की औसत आय पर गुजारा करता है. इस लिहाज से देखें तो देश में कम आमदनी वाला एक नया पिछड़ा वर्ग खड़ा हो चुका है. क्या इसे भी आरक्षण दिया जाना चाहिए. इसका हां या ना में जवाब देने से पहले इसके कारणों की समीक्षा जरूरी है.

बीते दो दशकों से तेज विकास कर रहे देश में आखिर नया और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग कैसे खड़ा हुआ. बहुत हद तक सरकारी नीतियां पिछड़ेपन को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हैं. देश भर में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है. आज सरकारी प्राइमरी स्कूलों या इंटर कॉलेजों में वही बच्चे जाते हैं जो या तो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं या फिर इलाके में इन स्कूलों के अलावा और कुछ नहीं है. गौर से देखिये आपको पिछड़ेपन की जड़ें ऐसे ही जर्जर सरकारी स्कूल के बरामदों में छुपी दिखेंगी.

कई प्रमुख लोग आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने पर जोर दे रहे हैं. समय बदल चुका है, हालात बदल चुके हैं. लेकिन किसी राजनैतिक दल में फिलहाल यह हिम्मत नहीं कि वो बार बार परेशानी खड़ी करने वाली नीति का मू्ल्यांकन कर सके. कम नौकरियों के बंटवारे पर राजनीति करने के बदले सब के लिए स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराना प्राथमिकता होनी चाहिए. जिस दिन हर वर्ग के बच्चे को अच्छी शिक्षा और हर क्षेत्र में समान और मौलिकता से भरे मौके मिलने लगेंगे, उस दिन पिछड़ेपन की यह बहस खुद दम तोड़ने लगेगी.

ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी

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