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कृषि कानून वापस लेने से बीजेपी को कितना फायदा

समीरात्मज मिश्र
१९ नवम्बर २०२१

करीब एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग करते हुए धरने पर बैठे किसानों में कानून रद्द करने संबंधी प्रधानमंत्री की घोषणा पर खुशी तो है, लेकिन भरोसे की कमी अब भी दिख रही है.

Indien | Agrarreform - Protest der Landwirte
तस्वीर: Anushree Fadnavis/REUTERS

गाजीपुर बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने साफतौर पर कहा कि किसान धरने से तभी उठेंगे, जब संसद में अंतिम रूप से कानून को रद्द कर दिया जाएगा. ऐसी ही प्रतिक्रिया सिंघु बॉर्डर पर बैठे किसानों और किसान नेताओं की ओर से भी आई.

कानून का विरोध करने के लिए मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत देश भर के किसान करीब एक साल से इन सीमाओं पर बैठे हैं. धरने पर बैठे किसानों को न सिर्फ बीजेपी के तमाम नेताओं ने अपमानित किया बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘आंदोलनजीवी' जैसे शब्दों का प्रयोग करके उनका मजाक उड़ाया. यही नहीं, करीब सात सौ किसानों की मौत के बावजूद प्रधानमंत्री ने कभी इस पर अफसोस का एक शब्द भी नहीं कहा.

लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरीके से पार्टी के नेताओं का जगह-जगह विरोध देखने को मिला, पार्टी के भीतर से भी विरोध के स्वर उठने लगे और उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी को राजनीतिक नुकसान के फीडबैक मिलने लगे, उसे देखते हुए किसान कानूनों को वापस लेना लाजिमी हो गया था.

कितना फायदा होगा?

किसान आंदोलन को शुरू से ही कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार अनिल चौधरी कहते हैं, "कानून वापस लेने की घोषणा की टाइमिंग सही नहीं है. यही काम साल भर पहले यदि हो गया होता तो विरोध करने वाले यही किसान समर्थन में कूद गए होते. लेकिन इस एक साल में आंदोलनरत किसानों पर जैसी टिप्पणियां की गईं, सरकार ने जो जिद्दीपन दिखाया और सैकड़ों किसानों की मौत हुई, उसे देखते हुए लगता नहीं है कि इन चुनावों में बीजेपी कोई बहुत फायदा ले जाएगी. हां, नुकसान में कुछ कमी जरूर हो सकती है.”

एक साल से चल रहा है किसानों का आंदोलनतस्वीर: Haripriya/Pacific Press/picture alliance

दरअसल, किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी को सबसे ज्यादा नुकसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाकों में दिख रहा है. उत्तराखंड में भी यूपी के साथ अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लगभग 130 सीटों पर इस आंदोलन की वजह से बीजेपी को नुकसान का खतरा दिख रहा था. इसी वजह से पार्टी ने पूर्वांचल में अपनी रणनीति को धार देते हुए बड़ी रैलियां और सभाएं करने लगी थी. दो दिन पहले ही पूर्वांचल एक्सप्रेस वे का भी उद्घाटन हुआ था जिसमें प्रधानमंत्री ने अन्य पार्टियों पर पूर्वांचल का विकास न करने के आरोप लगाए.

एक दिन पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पश्चिमी यूपी की कमान सौंपी गई है जहां किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा असर है और बीजेपी के खिलाफ बहुत नाराजगी है.

दस दिन बाद संसद का शीतसत्र शुरू हो रहा है और 26 नवंबर को किसान आंदोलन के भी एक साल पूरे हो रहे हैं. किसानों ने घोषणा की थी कि 26 नवंबर के बाद वो आंदोलन को और धार देंगे. राकेश टिकैत ने सरकार और बीजेपी के खिलाफ पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में रैलियां की थीं और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों में भी बीजेपी का विरोध किया था. दोनों ही जगहों पर बीजेपी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा.

पटाखे चलाकर किसानों ने मनाई खुशियांतस्वीर: Manish Swarup/AP Photo/picture alliance

यह अलग बात है कि यूपी के पंचायत चुनाव में ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायतों के अध्यक्ष पद पर बीजेपी अपने उम्मीदवारों को जिताने में कामयाब रही, लेकिन यह जीत इसलिए बहुत मायने नहीं रखती क्योंकि ये चुनाव सीधे मतदाताओं के जरिए न होकर उनके प्रतिनिधियों के जरिए होते हैं.

बीजेपी का विरोध

शामली में वरिष्ठ पत्रकार शरद मलिक कहते हैं, "पिछले एक साल से पश्चिमी यूपी में बीजेपी नेताओं का यह हाल हो गया है कि वो अपने क्षेत्र में भी नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि हर जगह उनका विरोध हो रहा है. बीजेपी नेताओं का यह हाल हो चुका है कि उन्हें चुनाव में प्रचार करने तक में दिक्कतें आतीं और ये बात वो बड़े नेताओं को लगातार बता भी रहे थे. इन कानूनों को वापस लेने के बाद अब इन नेताओं का इस तरह से विरोध नहीं होगा लेकिन किसान इस एक साल के समय को भूलने को तैयार नहीं हैं.”

इसे भी देखिए: आखिर क्यों वापस लिए गए कृषि कानून

आखिर क्यों वापस लिए गए कृषि कानून

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पिछले दिनों कुछ राज्यों में हुए उपचुनाव में मिली हार के बाद केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में राहत देने की घोषणा की और इससे पहले भी मोदी सरकार अपने कई फैसलों पर पीछे हट चुकी है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कृषि कानून को वापस लेने का फैसला मोदी सरकार के लिए आसान नहीं था लेकिन चुनाव में हार के डर से इसे वापस लेने के लिए उन्हें बाध्य होना पड़ा.

पंजाब पर नजर

जानकारों का यह भी कहना है कि यूपी और उत्तराखंड के अलावा बीजेपी की निगाह पंजाब विधानसभा चुनावों पर भी हैं जहां अब तक उसकी उपस्थिति नाममात्र की है. पंजाब में बीजेपी अब तक अकाली दल के साथ चुनाव लड़ती रही है लेकिन कृषि कानूनों से नाराज होकर अकाली दल ने गठबंधन तोड़ दिया था. कानून वापस लेने के बाद अकाली दल गठबंधन में फिर से वापस आता है या नहीं, ये बाद की बात है लेकिन बेजेपी की निगाहें पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर लगी हैं जो कांग्रेस से अलग होने के बाद अपनी नई पार्टी बना चुके हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कृषि कानूनों पर पुनर्विचार करने की बात कह चुके हैं.

किसान आंदोलन में महिलाओं की भी हिस्सेदारीतस्वीर: Naveen Sharma/SOPA Images via ZUMA Wire/picture alliance

हालांकि राजनीतिक विश्लेषक इन सबके बावजूद पंजाब में बीजेपी को बहुत फायदा होते नहीं देखते. पंजाब के एक कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाने वाले डॉक्टर वीरेंद्र सिंह कहते हैं, "कैप्टन अमरिंदर सिंह और बीजेपी एक साथ मिलकर तो कुछ खास नहीं कर पाएंगे, लेकिन अकाली दल को भी यदि साथ ले लें तो कांग्रेस का नुकसान जरूर कर सकते हैं. हालांकि कांग्रेस को यह नुकसान कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए जितना होता, उसकी तुलना में अब होने की आशंका कम ही है.”

इस बीच, विपक्षी दलों ने यह कहना भी शुरू कर दिया है कि पीएम मोदी ने चुनावों को ही ध्यान में रखकर कानून वापसी का फैसला किया है और चुनाव बाद इसे फिर संसद में लाएंगे, लेकिन इसकी संभावना बहुत कम ही है क्योंकि दो साल बाद ही उन्हें लोकसभा चुनाव का भी सामना करना है और तब वो इतना बड़ा जोखिम नहीं ले पाएंगे.

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