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केंद्र और राज्य सरकार की उपेक्षा झेलता मणिपुर

७ जनवरी २०१२

भारत के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर भी शामिल है. साठ सीटों वाली इस विधानसभा का चुनाव राष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति पर कोई असर नहीं डालता. राज्य उपेक्षा का शिकार है.

तस्वीर: DW

मुख्यधारा से दूर मणिपुर विधानसभा चुनाव
60 सीटों के लिए 28 जनवरी को वोट पड़ेंगे. प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर मणिपुर अपनी खूबियों नहीं बल्कि खामियों के चलते ही अकसर सुर्खियों में रहता है. दुनिया भर में मशहूर विशाल लोकटक झील भी यहीं है. लेकिन खबरों में उसका कोई जिक्र तक नहीं होता. आजादी के बाद से ही विभिन्न समस्याओं और उग्रवाद ने इस राज्य की खूबियों को ढक दिया है. मुख्यधारा के मीडिया में मणिपुर की खबरें न के बराबर रहती हैं.
यहां एक दशक से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के खिलाफ उपवास पर बैठी ईरोम शर्मिला हैं तो पल-पल उग्रवाद के साए में जीते लोग हैं. राज्य में मीडिया भी उग्रवादियों के असर से अछूता नहीं है. अभी सदर हिल्स को अलग जिले का दर्जा देने की मांग के समर्थन और विरोध में विभिन्न संगठनों की ओर से लगभग 100 दिन तक इस राज्य के लोगों को नाकेबंदी भी झेलनी पड़ी थी. ग्रेटर नगालैंड आंदोलन के चलते भी इस राज्य में अकसर हिंसा होती रहती है.


राजनीतिक हालात
मणिपुर में मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार सत्ता में है. लेकिन इस बार पहली बार राष्ट्रीय व स्थानीय राजनीतिक दलों ने कांग्रेस के खिलाफ एकजुटता दिखाते हुए प्रोग्रेसिव पीपुल्स फ्रंट (पीपीएफ) नामक एक नए मोर्चे का गठन किया है. इसमें बीजेपी, आरजेडी, मणिपुर पीपुल्स पार्टी और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) शामिल है. सीपीएम भी इस मोर्चे में शामिल थी. लेकिन अब इसमें बीजेपी के शामिल होने के बाद वह बाहर निकलने पर विचार कर रही है. 18 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली तृणमूल कांग्रेस ने फिलहाल गठजोड़ के बारे में कोई फैसला नहीं किया है. नगालैंड से सटे चार जिलों के 12 विधानसभा क्षेत्रों में तो नगा जनजातियां ही निर्णायक हैं. वहां उस नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं जिस पर उग्रवादी संगठन नेशनल काउंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन) से सहायता लेने के आरोप लगते रहे हैं.

ईरोम शर्मिलातस्वीर: DOK Leipzig Festival 2011

मुद्दे उग्रवाद प्रभावित मणिपुर में तमाम दल शुरू से ही राज्य में उग्रवाद के खात्मे, शांति बहाल करने और विकास की गति तेज करने को अपना मुख्य मुद्दा बनाते रहे हैं. लेकिन विपक्ष ने इसमें सशस्त्र बल विशेष अधिनियम को भी शामिल कर लिया है. वैसे, यह मुद्दा बरसों से चला आ रहा है. लेकिन राज्य के हालात को देखते हुए केंद्र यह अधिनियम हटाने के खिलाफ है. इसी अधिनियम के खिलाफ सामाजिक कार्यकर्ता ईरोम शर्मिला 10 साल से अनशन पर बैठी हैं. राज्य की महिलाओं ने भी इसके खिलाफ कोई पांच साल पहले अपने कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया था, जिसकी तस्वीरें दुनिया के तमाम अखबारों में छपी थीं. मणिपुर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष गाईखांगम कहते हैं कि राज्य का विकास और इसकी अखंडता ही पार्टी के मुख्य चुनावी मुद्दे रहेंगे. अखंडता का मुद्दा यहां भावनात्मक है. राज्य के नगाबहुल इलाकों को लेकर ग्रेटर नगालैंड के गठन की मांग नगा संगठन अक्सर उठाते रहे हैं. इस मुद्दे पर राज्य में कई बार खूनखराबा हो चुका है. दूसरी ओर, एमपीपी के प्रवक्ता एन. जय सिंह कहते हैं कि इस बार कांग्रेस का सत्ता से जाना तय है. उनका आरोप है कि कांग्रेस की गलत नीतियों की वजह से राज्य का विकास ठप है. सरकार उग्रवाद पर अंकुश लगाने में नाकाम रही है. इसलिए राज्य का विकास ठप है.

महिलाओं की स्थिति
राज्य की राजनीति में महिलाओं की भूमिका नगण्य है. बीते विधानसभा चुनाव में महज एक महिला ओ लांधोनी देवी ही चुनाव जीत सकी थी. वह भी इसलिए कि वह मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह की पत्नी थीं. चुनाव मैदान में उतरीं बाकी छह महिलाओं की जमानत तक जब्त हो गई थी.


इस तथ्य के बावजूद कि राज्य में महिला वोटरों की तादाद पुरुषों से कहीं ज्यादा है. जाने-माने मणिपुरी लेखक राजकुमार कल्याणजित कहते हैं, "बहुत कम महिलाएं राजनीति में आती हैं. उनमें से भी चुनाव जीतने वाली महिलाओं की तादाद अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. इस बार कई महिला संगठनों ने ज्यादा महिलाओं को टिकट देने की मांग की है."


महिला संगठन वीमेन एक्शन फार डेवलपमेंट की सचिव सबिता मंगसतबाम कहती हैं, विभिन्न महिला संगठनों के दबाव के बावजूद राजनीतिक दल महिलाओं को टिकट नहीं देते. पहले जिनको टिकट मिला भी, वह जीत नहीं सकीं." दूसरी ओर, राजनीतिक दलों की दलील है कि महिलाओं में चुनाव जीतने की क्षमता नहीं है. कांग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं, "पार्टी जीत सकने लायक महिला उम्मीदवार तलाश रही है. लेकिन राज्य में ऐसी ज्यादा महिलाएं नहीं हैं." विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी यही दलील देती हैं.

उग्रवाद का असर इस राज्य में कोई भी चुनाव उग्रवाद से अछूता नहीं रहता. लगभग हर सीट पर हार-जीत तय करने में उग्रवादियों की भूमिका अहम होती है. इस बार भी राज्य के सात प्रमुख उग्रवादी संगठनों ने वोटरों को सत्तारुढ़ कांग्रेस की चुनावी रैलियों से दूर रहने को कहा है. इन संगठनों ने एक साझा बयान में कहा है कि हमारा मकसद मणिपुर को एक आजाद देश बनाना है. ऐसे में चुनावों से राज्य के लोगों का भला नहीं होगा. लेकिन विधानसभा अध्यक्ष और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आई. हेमचंद्र सिंह दावा करते हैं, "इस धमकी का कोई असर नहीं होगा." उन्होंने लोगों से निडर होकर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने की अपील की है. क्या उग्रवादियों की कोई चुनावी भूमिका होती है ? इस सवाल पर विपक्षी राजनीतिक दलों का कहना है कि कुछ इलाकों में ऐसा हो सकता है. लेकिन आम तौर पर लोग खुल कर वोट डालते हैं. लेकिन एक गैर-सरकारी संगठन के संयोजक दोरेंद्र सिंह कहते हैं, "राज्य में चुनाव हमेशा उग्रवाद के साए में ही होते रहे हैं और इस बार भी अपवाद नहीं होगा."´

सरकार के खिलाफ प्रदर्शनतस्वीर: DW

उग्रवादी हिंसा
दरअसल, मणिपुर घाटी में जितने उग्रवादी संगठन हैं उतने शायद इलाके के किसी भी राज्य में नहीं हैं. इस राज्य में कोई तीन दर्जन छोटे-बड़े संगठन सक्रिय है. यहां उग्रवाद के फलने-फूलने की एक प्रमुख वजह इस राज्य की सीमा का म्यामांर से मिलना है. इस राज्य की कई समस्याएं हैं. पहले तो यह कई आदिवासी समुदायों में बंटा है. पड़ोसी राज्य नगालैंड से सटे इलाकों में नगा उग्रवादी संगठन तो सक्रिय हैं ही, ग्रेटर नगालैंड की मांग भी यहां जब-तब हिंसा को हवा देती रही है. यहां उग्रवादी संगठनों के फलने-फूलने व सक्रिय होने की सबसे बड़ी वजह है साढ़े तीन सौ किमी लंबी म्यांमार सीमा से होने वाली मादक पदार्थों की अवैध तस्करी. मादक पदार्थों के सेवन के चलते ही राज्य में एड्स के मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा है. नगा बहुल उखरुल जिले में तो नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड यानी एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट का समानांतर प्रशासन चलता है. वहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं डोलता. वहां हत्या से लेकर तमाम आपराधिक मामलों की सुनवाई भी नगा उग्रवादी ही करते हैं. लोग सरकार या अदालत के फैसलों को मानने से तो इनकार कर सकते हैं. लेकिन एनएससीएन नेताओं का फैसला पत्थर की लकीर साबित होती है.

मीडिया भी अछूता नहीं
उग्रवादियों ने पत्रकारों को भी नहीं बख्शा है. उग्रवादी संगठन अकसर अपने खिलाफ खबरें छापने पर मीडिया संगठनों को धमकियां भी देते रहते हैं. नतीजतन राज्य में पूरे साल के दौरान ऐसे कई मौके आते हैं जब उग्र्रवादी हमलों व उनकी धमकियों के विरोध में राज्य में अखबार नहीं छपते. मणिपुर में पत्रकारों पर हमले की घटनाएं तो पहले भी होती रही हैं. लेकिन हाल के वर्षों में इन घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है. बीते एक दशक के दौरान राज्य में दर्जन भर पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. कुछ मीडिया कर्मियों पर जानलेवा हमले हुए तो कुछ का अपहरण कर लिया गया. अभी इसी सप्ताह उग्रवादियों की धमकी के विरोध में तमाम अखबारों ने अपना संपादकीय पेज खाली रखा था. उग्रवादियों का आरोप है कि मीडिया उनके बयानों को ज्यादा तरजीह नहीं देता जबकि सुरक्षा बलों के बयानों को प्रमुखता से छापा जाता है.


ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन (एएमडब्लूजेयू) ने सरकार से इन बढ़ते हमलों पर अंकुश लगाने के लिए असरदार उपाय करने की मांग की है. एएमडब्लूजेयू के अध्यक्ष एस हेमंत कहते हैं "पत्रकारों पर हमला करना सबसे आसान है." हाल की धमकियों के बाद सरकार ने पत्रकारों की सुरक्षा बढ़ाई है. स्थानीय पत्रकार के. प्रदीप सिंह कहते हैं, "यहां उग्रवादी संगठन चाहते हैं कि वह जो कहें वही छपे, बाकी कुछ नहीं. वे लंबे अरसे से प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने का प्रयास कर रहे हैं."

नाकेबंदी के दौरान मणिपुरतस्वीर: DW

अभूतपूर्व इंतजाम
चुनाव आयोग ने इस बार राज्य में चुनाव के मौके पर सुरक्षा के अभूतपूर्व इंतजाम किए हैं. आयोग के निर्देश पर इसी सप्ताह पुलिस महानिदेशक वाई जयकुमार सिंह को हटा कर रत्नाकर ब्राल को उनकी जगह नियुक्त किया गया. इसके अलावा राज्य में अंगुली पर स्याही का निशान लगाते वक्त तमाम वोटरों की फोटो खींची जाएगी. देश में पहली बार यह प्रक्रिया अपनाई जाएगी ताकि फर्जी वोटिंग पर अंकुश लगाया जा सके. इस बार चुनावों के मौके पर पहले के मुकाबले ज्यादा तादाद में सुरक्षा बलों को तैनात किया जा रहा है. वोटरों और उम्मीदवारों को मिलने वाली धमकियों पर भी नजर रखी जा रही है.

अहम सवाल
लेकिन क्या इन तमाम उपायों से मणिपुर में शांति बहास हो सकेगी. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राज्य में सरकार चाहे किसी की भी हो, हालात में ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं है. एक गैर-सरकारी संगठन मणिपुर पीपुल्स फोरम के प्रवक्ता जे हेमेंद्र सिंह कहते हैं, "यहां राजनीति और उग्रवाद के आपसी रिश्तों की जड़ें काफी गहरी हो चुकी हैं. उग्रवादियों के साथ मंत्रियों व विधायकों की साठ-गांठ की खबरें इतनी आम हैं कि अब आम लोगों को इस पर कोई आश्चर्य नहीं होता. ऐसे में तमाम दलों के चुनावी वादे हवाई ही साबित होते हैं." पर्यवेक्षकों की दलील है कि राजनीति के उग्रवादीककरण को दूर किए बिना राज्य का विकास संभव ही नहीं है. ऐसे में चक्की के दो पाटों (सुरक्षा बलों और उग्रवादियों) के बीच पिसना ही राज्य के लोगों की नियति बन चुकी है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: ओ सिंह

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