समाज के दबाव में मां बाप उन्हें ताली बजाने और नाचने गाने के लिये छोड़ देते हैं. ऐसे में केरल का नया स्कूल क्या किन्नरों की जिंदगी बदल सकेगा?
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दक्षिण भारतीय राज्य केरल में सहज अल्टरनेट लर्निंग सेंटर खोला गया है. शुरुआत में यहां 10 किन्नर छात्र होंगे. सामाजिक कार्यकर्ता और वॉलंटियर टीचर उन्हें पढ़ाएंगे. सेंटर की स्थापना करने वाली समाजिक कार्यकर्ता विजयराजा मल्लिका कहती हैं, "यह सेंटर उन ट्रांसजेंडर छात्रों के लिये है, जिन्होंने बुरे व्यवहार के कारण स्कूल छोड़ दिया या फिर उन्हें उनके परिवार या स्कूल प्रशासन ने निकाल दिया."
सेंटर सामाजिक दंश झेल रहे किन्नरों की जिंदगी आसान करना चाहता है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स से बातचीत करते हुए मल्लिका ने कहा, "हम उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश करेंगे, पूरी शिक्षा और कौशल के साथ उन्हें समाज का हिस्सा बनाएंगे. वे नौकरी कर सकेंगे और आजाद जिंदगी जी सकेंगे."
भारत में करीब 20 लाख किन्नर हैं. 2014 में देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि किन्नरों को भी बराबर कानूनी अधिकार हैं. अदालत ने उन्हें तीसरे लिंग का कानूनी दर्जा भी दिया. इसके साथ ही किन्नरों को शादी और पैतृक संपत्ति का अधिकार भी मिला. तीसरे लिंग को नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में कोटा पाने के योग्य भी करार दिया गया.
कानूनी दस्तावेजों में भले ही बदलाव हो गये हों, लेकिन आम जिंदगी में आज भी किन्नर होना किसी अभिशाप से कम नहीं. आम तौर पर किन्नरों को बचपन में ही घर से निकाल दिया जाता है. उन्हें किन्नरों की टोली को दे दिया जाता है. इसके बाद उनके लिये जिंदगी के मायने ही बदल जाते हैं. नाचना गाना, पैसा मांगना या मजबूरन सेक्स में धकेला जाना, ज्यादातर किन्नर इन्हीं अनुभवों से गुजरते हैं.
लेकिन अब बदलाव की हल्की आहट मिल रही है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उड़ीसा की सरकार ने भी ट्रांसजेंडरों के लिये एक कल्याण योजना बनाई है. इसके तहत उन्हें पेंशन जैसी मदद भी मिलेगी. बॉलीवुड भी सहारा दे रहा है. हाल ही में ट्रांसजेंडर महिलाओं के 6 पैक बैंड का एक गाना एक फिल्म में शुमार किया गया.
लेकिन आम समाज में बदलाव कब होगा, यह सवाल बना हुआ है. विजयराजा मल्लिका ने जब केरल में सेंटर खोलने के लिए जमीन लेनी चाही तो 50 से ज्यादा लोगों ने उन्हें प्लॉट देने से मना कर दिया.
दुआ देने वाले किन्नरों का अभिशाप सा जीवन
किसी के घर शादी हो, बच्चा हो या कोई और खास मौका, किन्नरों को खबर मिल जाती है और वे वहां नाचने आते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि इनकी की दुआएं जल्दी कुबूल होती हैं. लेकिन इनकी खुद की जिंदगी में क्या दुआओं की कोई जगह है.
तस्वीर: picture-alliance/AP/Muhammed Muheisen
एक शख्स, दो रूप
दिन में वसीम एक मोबाइल रिपेयर की दुकान में काम करता है. अंधेरा होते ही वह नया रूप धारण कर लेता है. रावलपिंडी के कोठों में 27 साल का वसीम नाचता दिखता है. यहां उसकी पहचान महज एक किन्नर की है.
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क्या है पहचान
वसीम के साथ काम करने वाले उसकी इस दोहरी जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते. पाकिस्तान में करीब आठ लाख किन्नर रहते हैं. वसीम उन्हीं में से एक है.
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वसीम या रानी
अपना पेट भरने के लिए वसीम ने यह रास्ता चुना है. वह बताता है, "मोबाइल की दुकान में काम के मुकाबले नाच कर मैं ज्यादा पैसे कमा लेता हूं." वसीम कोठे पर नाचता है लेकिन जिस्मफरोशी कहीं करता.
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अलग थलग जिंदगी
भारत की तरह पाकिस्तान में भी किन्नर समाज से अलग रहने पर मजबूर हैं. कट्टरपंथी उन्हें अपवित्र मानते हैं. 43 साल के बख्तावर का कहना है, "जब मैं सड़कों पर निकलता हूं तो लोग मुझे अजीब सी नजरों से देखते हैं. मैं केवल अपनी तरह के लोगों के बीच ही सुरक्षित महसूस करता हूं."
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तितर बितर सपने
पाकिस्तान में किन्नर अपनी असली पहचान छिपा कर रखते हैं. 2011 में ही पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने "तीसरे लिंग" को मान्यता दे दी थी. वे अपना पासपोर्ट बनवा सकते हैं, वोट दे सकते हैं, बैंक में खाता खुलवा सकते हैं और यहां तक कि सरकारी नौकरी भी कर सकते हैं.
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हक की लड़ाई
2013 में पहली बार किसी किन्नर ने चुनाव में हिस्सा लिया. बिंदिया रानी (दाएं) चुनाव तो नहीं जीत पाईं, लेकिन किन्नरों के हक की लड़ाई उन्होंने जारी रखी है.
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दोहरी जिंदगी
44 साल के अमजद भी बाकी किन्नरों की तरह दोहरी जिंदगी जीने पर मजबूर हैं. फिर भी उन्हें खुद पर नाज है और वह कहते हैं, "एक औरत के तौर पर बस एक ही चीज है जो मैं नहीं कर सकता, वह है बच्चे पैदा करना."