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केवल साग भाजी खाने से भी नहीं रुकेगा जलवायु परिवर्तन

१७ सितम्बर २०१९

पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन की समस्या से निबटने के लिए पूरी तरह से शाकाहारी हो जाना ही जरूरी नहीं है. मांस खाते रह कर भी धरती को बचाया जा सकता है.

USA Iowa State Fair 2019 in Des Moines | preisgekröntes Gemüse
तस्वीर: Getty Images/C. Somodevilla

वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि ऐसी खुराक जिसमें मांस, मछली या फिर दूध दही मक्खन केवल एक बार खाया जाए वह शाकाहारी खाने की तुलना में जलवायु परिवर्तन के लिए कम जिम्मेदार होगा.  इसमें पानी की खपत भी कम होगी. यहां शाकाहारी खाने में दूध और अंडे को भी शामिल किया गया है.

करीब 95 देशों में खानपान का विश्लेषण करने के बाद रिसर्चरों ने यह बात कही है. इसकी वजह यह है कि दूध, दही और पनीर के लिए गाय पालने में भारी मात्रा में ऊर्जा और जमीन की जरूरत होती है. इसके साथ ही उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल इनके लिए चारा जुटाने में होता है. इन सबसे ग्रीन हाउस गैसें यानी धरती को गर्म करने वाली गैसों का बहुत उत्सर्जन होता है.

जॉन हॉपकिंस सेंटर फॉर ए लिवेबल फ्यूचर के रिसर्चरों का कहना है कि ऐसा भोजन जिसमें कीड़े, छोटी मछलियां या फिर घोंघें शामिल हों वो सिर्फ पेड़ पौधों से मिलने वाले भोजन जितना ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं. हालांकि इनमें पोषण ज्यादा होता है.

तस्वीर: DW/L. von Richthofen

वैज्ञानिकों ने इस रिसर्च में 9 अलग अलग तरह के भोजन में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ताजे पानी के इस्तेमाल की गणना की है.  9 तरह के भोजन में बगैर मांस के एक हफ्ते में एक दिन से लेकर रेड मीट रहित भोजन, सीफूड समेत शाकाहारी भोजन और वीगन यानी केवल पेड़ पौधों से मिले वाला भोजन भी शामिल है.

कई पर्यावरण कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए भोजन को ज्यादा से ज्यादा शाकाहारी बनाया जाए. इससे जंगलों की कटाई रुकेगी क्योंकि रेड मीट के लिए मवेशियों को पालने में जंगलों को साफ कर चारा उगाया जाता है.  खेती, कृषि और इसी तरह की दूसरी जमीन पर होने वाली गतिविधियों की इंसान के जरिए होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में करीब एक चौथाई हिस्सेदारी है.

पिछले महीने ही संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट साइंस पैनल ने एक रिपोर्ट में यह बात कही. हालांकि नई रिसर्च का नेतृत्व कलवे वाले प्रोफेसर कीव नाखमान का कहना है कि ऐसा कोई एक समाधान नहीं है जो सारी समस्याओं के लिए उपयुक्त हो. कम या फिर मध्यम आय वाले देशों में आमतौर पर लोगों को ज्यादा मांस वाले प्रोटीन की जरूरत होती है ताकि पर्याप्त पोषण मिल सके. इसका मतलब है कि गरीब देशों में लोगों की भूख मिटाने और पर्याप्त पोषण के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और पानी का इस्तेमाल बढ़ाना होगा. इसके उलट उच्च आय वाले अमीर देशों को मीट, दूध दही और अंडे का उपयोग घटाना चाहिए.

तस्वीर: Reuters/Antara Foto

आमतौर पर एक आदमी के भोजन में दाल की बजाय बीफ परोसने पर 316 गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है इनेमं मीथेन भी शामिल है. इसी तरह मेवो की तुलना में यह 115 गुना ज्यादा और सोया की तुलना में 40 गुना ज्यादा होता है.

अमेरिका के थिंक टैंक वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक उत्तर और दक्षिण अमेरिका, यूरोप और पूर्व सोवियत संघ के देशों में महज एक चौथाई आबादी रहती है लेकिन ये लोग दुनिया का आधा से ज्यादा मांस खा जाते हैं. यह आंकड़ा 2010 का है.

नई रिसर्च में यह भी पता चला है कि एक पाउंड बीफ का उत्पादन डेनमार्क की तुलना में पराग्वे में 17 गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है. इसकी वजह ये है कि अकसर इसकेलिए जंगलों की कटाई कर चारे का इंतजाम किया जाता है.

नाइजर में भोजन पैदा करने में सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है क्योंकि यहां बाजरा खाया जाता है जिसके उत्पादन में बहुत सी चीजें बेकार बचती हैं.

एनआर/आरपी(रॉयटर्स)

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