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280711 Krebs Bekämpfung

३ अगस्त २०११

माना जाता है कि जिस तेजी से कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं आने वाले कुछ सालों में दुनिया में सबसे अधिक मौतों का कारण यह खतरनाक बीमारी ही होगी. इसलिए वैज्ञानिक इसके इलाज के नए और बेहतर तरीके ढूंढने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे है.

Im Vorfeld der Behandlung des Patienten wird die richtige Strahlendosis mit Hilfe des „Rasterscan-Verfahrens“ geplant. Mit Hilfe eines Computertomographie-Geräts wird die Dosisverteilung des Tumors dreidimensional abgebildet.
तस्वीर: HIT

जर्मनी में हर साल करीब चार लाख लोगों को कैंसर होता है. अधिकतर मामले में कैंसर को ठीक करने के लिए ऑपरेशन, रेडिएशन थेरपी या कीमोथेरपी का सहारा लेना पड़ता है. कीमोथेरपी के कई दुष्प्रभाव भी होते हैं, जिस कारण इसका नाम सुनते ही लोगों को डर लगने लगता हैं.

"कैंसर मेरे अंदर ही जीता है"

गिजेला अपना असली नाम नहीं बताना चाहती. 60 साल की गिजेला ऊन की बुनी हुई टोपी से अपना सर ढक कर रखती हैं. कीमोथेरपी के कारण उनके बाल झड़ गए हैं. पांच साल पहले उनकी ओवरी यानी अंडाशय में ट्यूमर पाया गया. तब से यह बीमारी उनका पीछा नहीं छोड़ रही है. गिजेला बताती हैं, "जब ट्यूमर दूसरी बार हुआ, तो मुझे ऐसा लगने लगे कि कैंसर अब मेरा एक हिस्सा है, जो मेरे साथ, मेरे अंदर ही जीता है. मेरे शरीर में उसका पूरा ध्यान रखा जाता है, उसे अच्छा खासा खाना मिलता है, शाम को दो घूंट वाइन भी मिल जाती है. मैं उसका पूरा ख्याल रखती हूं और जब यह उत्पात मचाने लगता है तो हमें अपने हथियार निकालने पड़ते हैं, डॉक्टर के पास जाना पड़ता है. और फिर वह होता है जो अभी इस टोपी के नीचे है."

हाइडलबर्ग के कैंसर थेरपी सेंटर में इलाजतस्वीर: HIT

प्रोटॉन से इलाज

अब तक डॉक्टरों के पास कीमोथेरपी और ऑपरेशन जैसे ही हथियार थे, लेकिन जर्मनी के म्यूनिख और हाइडलबर्ग शहरों में डॉक्टर एक नए तरीके से मरीजों का इलाज कर रहे हैं. वे मरीजों के शरीर में प्रोटॉन डालते हैं. गेर्ड डाटत्समान म्यूनिख के रीनेकर प्रोटॉन सेंटर में फिजिसिस्ट हैं. एक सफेद रंग के कमरे में वह अपने मरीज का इलाज कर रहे हैं. यह कमरा स्टराइल है यानी कीटाणुओं से मुक्त, इसलिए और किसी को यहां आने की इजाजत नहीं है.

कमरे के बीचोबीच मरीज को एक ऐसे बिस्तर पर लिटाया जाता है जिसे पूरी तरह गोल घुमाया जा सकता है, वैसे ही जैसे एक टर्बाइन को. डाटत्समन बताते हैं, "एक नोजल से प्रोटॉन की किरणें मरीज के शरीर में भेजी जाती हैं. हम इस मशीन को घुमा सकते हैं, ताकि मरीज के पूरे शरीर में जहां भी जरूरत हो वहां प्रोटॉन पहुंच सकें. मरीज ना तो इन्हें देख सकता है, ना ही सुन सकता है. वह इन्हें सूंघ भी नहीं सकता और किसी तरह महसूस भी नहीं कर सकता."

एक्स रे में फेफड़े का कैंसरतस्वीर: picture alliance/dpa

इन प्रोटॉन को ट्यूमर वाली जगह पर केन्द्रित किया जाता है, ताकि ये ट्यूमर तोड़ सकें. डाटत्समान मानते हैं कि यह तरीका आम रेडिएशन थेरपी से बहुत बेहतर है, "रेडिएशन पूरे शरीर पर असर करती है. हमेशा ऐसा होता है कि ट्यूमर के आस पास की कोशिकाओं पर भी इनका असर होता है, जो बुरा है. प्रोटॉन इस से अलग है. इन्हें शरीर में कितना अंदर भेजना है यह हमारे हाथ में है, हम इनकी रफ्तार को तेज या कम कर सकते हैं."

मिला दूसरा जीवन

प्रोटॉन थेरपी से गिजेला को भी फायदा मिला है. पिछले पांच सालों में वह पांच ऑपरेशन करा चुकी हैं और एक बार कीमोथेरपी भी. इस सब के बाद भी डॉक्टर को एक बार फिर उनके शरीर में ट्यूमर मिला. इस बार उनके लीवर में. ट्यूमर लीवर में ऐसी जगह था जहां ऑपरेशन करना भी मुमकिन नहीं था. प्रोटॉन थेरपी उनके लिए आखिरी उम्मीद थी. गिजेला बताती हैं, "पिछले पांच सालों से डॉक्टर मुझे कह रहे थे कि यह एक ऐसी बीमारी है जिस से मुझे कभी निजात नहीं मिल सकेगी. लेकिन मुझे इस बार बहुत बड़ी कामयाबी मिली. लीवर से मेरा ट्यूमर खत्म हो गया है. कीमोथेरपी से भी यह नहीं निकल सकता था. इसका मतलब यह था कि या तो मैं लगातार कीमोथेरपी करवाती रहती ताकि उस ट्यूमर का आकार ना बढ़े, या कुछ भी नहीं करती और तो फिर मेरी जान चली जाती."

हाइडलबर्ग के अस्पताल में कैंसर के इलाज का एक कमरातस्वीर: HIT

प्रोटॉन से नुकसान नहीं

हाइडलबर्ग के प्रोटॉन रेडिएशन थेरपी सेंटर के तकनीकी विभाग के निदेशक थोमास हाबेरेर का कहना है कि इस तरह की तकनीक से हर साल दस से पंद्रह हजार मरीजों का इलाज किया जा सकता है. हाबेरेर कहते हैं, "इसका खास तौर से वहां इस्तेमाल किया जा सकता है जहां आस पास के अंगों को खतरा हो. मिसाल के तौर पर यदि ब्रेन ट्यूमर हो तो वहां ऑप्टिक नर्व्स पर भी बुरा असर पड़ने का खतरा बन जाता है. इसी तरह आप प्रोस्टेट में आंतों और ट्यूमर को अलग अलग कर के इलाज नहीं कर सकते हैं. यह सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल होता है कि जो डोज दिया जा रहा है वह केवल ट्यूमर पर ही असर करेगा और आस पास के स्वस्थ अंगों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा. ऐसे मामलों में प्रोटॉन का इस्तेमाल करने की सलाह दी जा सकती है."

इस तरह के इलाज के लिए मशीनों का खर्च दस से बीस करोड़ यूरो के बीच आ सकता है. जानकारों का मानना है कि जर्मनी में इस तरह की कम से कम छह से आठ मशीनों का होना जरूरी है ताकि गिजेला जैसे खास मामलों में इनका इस्तेमाल किया जा सके.

रिपोर्ट: डोएचे वेले/ ईशा भाटिया

संपादन: आभा मोंढे

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