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कैंसर से लड़ेगी काई

Priya Esselborn३० अप्रैल २०१२

पानी में पैदा होने वाली काई से ईंधन बनाने की खबरें तो आती रहती हैं. लेकिन अब काई से कैंसर की दवा निकलती दिख रही है. काई कैंसर कोशिशकाओं को रोक रही है.

तस्वीर: flickr/jlastras

उत्तरी जर्मनी के कील शहर में वैज्ञानिक बाल्टिक सागर से काई निकाल रहे हैं. एक खास नाव के जरिए वह लगातार कुछ समय बाद भूरी काई निकालते हैं. लैटिन भाषा में इस काई का नाम जाखरीना लाटिसिमा है.

मरीन बायोलॉजिस्ट वेरेना सैंडो कहती हैं, "यह कुछ मीटर लंबी हो जाती है और करीब आधा मीटर चौड़ी. जब यह पानी की ऊपरी सतह तक पहुंच जाती है तो यह गहरे भूरे रंग की दिखती है. दूसरे तरह की काई से अलग, यह हमारे लिए आदर्श है."

यह वनस्पति पानी के भीतर दो या तीन मीटर की गहराई पर पैदा होती है. रिसर्चरों ने कच्चे माल वाले इलाके में एक रस्सी से घेरा बनाया है. सैंडो कहती हैं, "सर्दियों के महीनों में ज्यादा कुछ नहीं हुआ लेकिन मार्च के शुरुआत में हमने गजब की तेजी देखी." पानी का तामपान 15 डिग्री सेल्सियस होते ही काई को उठाने और एक सफेद डिब्बे में रखने का काम शुरू हो जाएगा.

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प्रयोगशाल में काई को अत्यधिक ठंड में जमाया जाएगा. फिर उसकी सफाई होगी. बायोटैक्नोलॉजी विशेषज्ञ मारीओन जेनथोएफर कहती हैं, "हम खास तरह के शोधक डालते हैं ताकि रिसर्च के लिए जरूरी चीजें हमें मिल जाएं." काई में पॉलीफेनॉल, कारोटेनॉएड्स, पॉलीजाखराइड सल्फेट, ओमेगा 3 एसिड और एंथोसानीन होता है.

इसके बाद वैज्ञानिक काई से निकाले गए इन तत्वों को डिस्क में रखी कैंसर कोशिकाओं पर फैला देते हैं. अगले 48 घंटे में देखा जाता है कि क्या कैंसर कोशिकाओं का बढ़ना बंद हो चुका है, "अगर कोशिकाएं सामान्य ढंग से बढ़ रही हैं तो वह डिस्क के चारों ओर फैल जाएंगी. लेकिन अगर छेद हुए तो मतलब है कि काई के तत्व काम कर रहे हैं."

परीक्षणों से पता चला है कि काई से निकले तत्व कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोक रहे हैं. बारीक नतीजों के लिए रिसर्चरों ने पराबैंगनी किरणों की सहायता ली. स्पेक्ट्रोमीटर से किए टेस्ट के बारे में जेनथिओफर कहती हैं, "काई के तत्वों से क्रिया करने के बाद जो कोशिकाएं (कैंसर) जिंदा हैं वह नारंगी दिखाई पड़ती है."

तस्वीर: AP

रिसर्च टीम मान रही है कि काई कैंसर के इलाज में कारगर जरूर साबित होगी. हालांकि अभी यह पता नहीं चला है कि काई का कौन सा तत्व किस तरह कैंसर पर असर करता है. रिसर्च टीम की अब कोशिश यही जानने की है. रिसर्च को जर्मन सराकर और निजी कंपनियों से मदद मिल रही है.

रिपोर्टः फ्रांक हयाख/ओ सिंह

संपादनः एन रंजन

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