रिसर्चर फिलहाल जिस तरह की दवाओं पर काम कर रहे हैं वे आज की गोलियों जैसी बिल्कुल नहीं दिखेंगी. कोशिकाओं में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले एक अणु की इसमें सबसे अहम भूमिका होगी.
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शरीर की कोशिकाओं के प्लाज्मा में पाए जाने वाले "मैसेंजर आरएनए" को रिसर्चर बहुत सारी संभावनाओं से भरा मानते हैं. यह कोशिकाओं को ऐसा मॉलिक्यूलर ब्लूप्रिंट देता है, जिस पर चल कर कोशिकाएं किसी भी तरह का प्रोटीन बना सकती हैं. फिर यही प्रोटीन शरीर के भीतर होने वाली सभी गतिविधियों पर असर डालते हैं. अब इस अणु के इसी गुण का इस्तेमाल कर वैज्ञानिक नए जमाने की दवाएं और टीके बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इन दवाओं से फेफड़ों के कैंसर से लेकर प्रोस्टेट कैंसर तक का प्रभावी रूप से इलाज किया जा सकेगा.
इस जादुई अणु की संभावनाओं को समझ चुका वैज्ञानिक समुदाय इसे दवाओं के रूप में विकसित करवाने के लिए पूरे विश्व की ओर देख रहा है. जर्मनी के ट्यूबिंगन में वैज्ञानिक मेसेंजर आरएनए की खूबियों को समझने में लगे हैं और इसे एक ऐसा अणु बता रहे हैं जो शरीर को खुद अपना इलाज करने की क्षमता दे सकता है. यहां काम करने वाली जीवविज्ञानी, मारियोला फोटिन म्लेचेक बताती हैं, "मेसेंजर आरएनए कमाल का अणु है. आप कह सकते हैं कि इसे कुदरत ने बनाया ही इसलिए है कि ये इलाज में मदद दे सके. और ये भी जरूरी नहीं कि ये प्रोटीन इंसान की ही कोशिकाओं से बनें. ये बैक्टीरिया और वायरस से भी बन सकते हैं."
अगर इस संदेशवाहक आरएनए के साथ बैक्टीरिया या वायरस के प्रोटीन को शरीर में भेजा जाए तो शरीर का प्रतिरोधी तंत्र ऐसे प्रोटीन की पहचान करना सीख जाता है और उसके लिए प्रतिक्रिया देता है. नए तरह के इलाज में किसी कृत्रिम चीज को शरीर में नहीं डाला जाएगा, बल्कि प्राकृतिक रूप से संदेशवाहक आरएनए में कुछ ऐसे अंश मिलाए जा रहे हैं, जिससे उसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सके.
रिसर्चर इन बायोमॉलिक्यूल्स की मदद से कैंसर के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता तक हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. उनका मानना है कि इससे कई तरह के संक्रमण वाली बीमारियों के खिलाफ टीके विकसित किए जा सकते हैं. बायोकेमिस्ट्री के विशेषज्ञ फ्लोरियान फॉन डेय मुएलबे बताते हैं, "आरएनए के इस्तेमाल का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यहां हम एक ऐसी तकनीक विकसित कर रहे हैं, जिसमें हर बार एक ही तरीके का इस्तेमाल होगा. चाहे कैंसर हो या फिर कोई और बीमारी, टीका बनाने का तरीका हमेशा एक जैसा ही होगा. फर्क सिर्फ इतना होगा कि हम प्रक्रिया को शुरू करने के लिए मैसेंजर आरएनए को जानकारी अलग अलग तरह की देंगे."
2014 में इस रिसर्च कॉन्सेप्ट को यूरोपीय संघ ने अपने पहले 'इनोवेशन इंड्यूसमेंट प्राइज' से सम्मानित किया. यह पुरस्कार ऐसी रिसर्चरों को दिया जाता है जो पूरी दुनिया के सामने खड़ी समस्याओं के नए हल खोजने में जुटे हैं. इसकी संभावनाएं अपार हैं लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इसे उत्पाद यानि दवाइयों और टीकों में कैसे बदला जाए. इस पर जर्मन फार्मा कंपनी क्योर वैक के सीईओ, इंगमार होएर कहते हैं, "फिलहाल हम प्रोस्टेट कैंसर के मरीजों पर टेस्ट कर रहे हैं. शुरुआती नतीजे अच्छे हैं. अगर शोध के नतीजे ऐसे ही रहे, तो इसका मतलब होगा कि हम इस तकनीक पर आधारित पहली दवा को बाजार में उतारने के अपने लक्ष्य के बहुत करीब हैं."
भविष्य में ऐसी दवाओं और टीकों पर भी काम शुरू हो सकता है, जिन्हें रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज की जरूरत ना हो. खास कर फेफड़ों के कैंसर के इलाज में यह तरीका मील का पत्थर साबित हो सकता है.
आरपी/आईबी
इलाज के और भी कई तरीके हैं
भारत में डॉक्टर एनएमसी विधेयक से नाराज हैं क्योंकि यह वैकल्पिक चिकित्सा को मुख्यधारा से जोड़ता है. लेकिन यह वैकल्पिक चिकित्सा या अल्टरनेटिव मेडिसिन है क्या?
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एलोपैथी
भारत के अलावा शायद ही कहीं इस शब्द का इस्तेमाल होता है. आम तौर पर इसे मेनस्ट्रीम मेडिसिन कहा जाता है क्योंकि दुनिया भर में दवा से इलाज का यही तरीका स्थापित है. इसके अलावा हर तरीके को अल्टरनेटिव माना जाता है. इसमें घरेलू नुस्खे भी आते हैं और कुछ तरह की खास तकनीक भी.
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आयुर्वेद
जड़ी बूटियों पर आधारित भारत का प्राचीन विज्ञान आयुर्वेद अब विदेशों में भी प्रचलित होने लगा है. भारत में कई कॉलेज हैं जहां आयुर्वेद की पढ़ाई की जा सकती है. आयुर्वेद के डॉक्टर अक्सर नाड़ी पकड़कर ही बीमारी के बारे में बता देते हैं.
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नैचुरोपैथी
यह भी आयुर्वेद जैसा ही है लेकिन पश्चिम के सिद्धांतों और वहां मिलने वाली चीजों पर आधारित है. जैसा कि नाम से पता चलता है, इसमें नेचर यानि कुदरत पर यकीन किया जाता है. दवाओं की जगह तरह तरह के फूल पत्तों और बीजों का इस्तेमाल किया जाता है.
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होम्योपैथी
जर्मनी से निकला चिकित्सा का यह तरीका आज जर्मनी से ज्यादा भारत में लोकप्रिय है. इसका सिद्धांत है कि जहर को जहर ही काटता है, इसलिए बीमारी की वजह से ही बीमारी को ठीक किया जाता है. होम्योपैथी का नाम सुनते ही चीनी की छोटी छोटी गोलियां याद आती हैं लेकिन इन गोलियों में दवा मिली होती है.
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एक्यूप्रेशर
हाथों और पैरों पर कुछ खास बिंदुओं पर जोर लगाया जाता है और इससे बीमारी को ठीक किया जाता है. इस तकनीक में माना जाता है कि हाथों और पैरों से पूरे शरीर में ऊर्जा पहुंचती है. ऊर्जा के बहाव के रुकने के कारण ही इंसान बीमार होता है. इसलिए बिंदुओं पर जोर लगा कर ऊर्जा के बहाव को फिर से शुरू करना होता है.
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एक्यूपंक्चर
इसका सिद्धांत भी एक्यूप्रेशर जैसा ही है, फर्क इतना है कि बिंदुओं को दबाने की जगह उनमें सुई लगाई जाती है. जोड़ों के दर्द ने निजात पाने के लिए और अवसाद में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. चीन से निकला इलाज का यह तरीका आज पश्चिम में अपनी जगह बना चुका है.
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रेकी
यहां भी ऊर्जा ही केंद्र में है. रेकी में माना जाता है कि बीमारी या अवसाद शरीर में ऊर्जा के कम होने का संकेत हैं. जब शरीर में ऊर्जा की मात्रा सही होती है, तो शरीर स्वस्थ और व्यक्ति खुशमिजाज रहता है. रेकी के दौरान चिकित्सक अपने हाथों के जरिये मरीज में ऊर्जा उतारने की कोशिश करता है.
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कायरोप्रैक्टिस
पारंपरिक रूप से पीठ में दर्द होने पर पहलवान के पास मालिश के लिए भेजा जाता है. कायरोप्रैक्टिकर भी कुछ ऐसे ही काम करता है. इस चिकित्सक का मुख्य काम रीढ़ की हड्डी को ठीक करना है. रीढ़ पर दबाव डाल कर वह उसे सीधा करता है और रीढ़ की मांसपेशियों के संतुलन पर ध्यान देता है.
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अरोमा थेरेपी
यहां अरोमा यानि खुशबू से इलाज किया जाता है. तरह तरह के फूल पत्तों और बीजों के तेल का इस्तेमाल होता है. अक्सर इस तेल को पानी में मिला कर जलाया जाता है, जिससे मरीज खुशबू ले सके. कई बार इस तेल से मालिश भी की जाती है. सरदर्द, घबराहट और डिप्रेशन में इसका काफी फायदा देखा गया है.
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कीगॉन्ग
यह एक चीनी विद्या है जो व्यायाम, प्राणायाम, ध्यान और मार्शल आर्ट्स का मिश्रण है. यह आध्यात्म से भी जुड़ा है और माना जाता है कि कीगॉन्ग के सही इस्तेमाल से मरीज खुद ही अपना इलाज कर सकता है.