भारत प्रशासित कश्मीर में लोग दो सप्ताह से बिना संचार के रह रहे हैं. सड़कें बंद हैं. डीडब्ल्यू के रिपोर्टर रिफत फरीद ने बाकी दुनिया से कट कर श्रीनगर में रह रहे लोगों की जिंदगी का जायजा लिया. उनसे सुनिए वहां की पूरी कहानी.
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भारतीय प्रशासित कश्मीर के सबसे बड़े शहर श्रीनगर में 5 अगस्त की आधी रात के आसपास सब कुछ अचानक शांत हो गया. फोन बजने बंद हो गए. इंटरनेट भी बंद हो गया. गलियां सुनसान हो गईं. सभी सड़कों को बंद कर दिया गया था. अर्धसैनिक बल के जवान पूरे शहर में तैनात कर दिए गए. श्रीनगर पूरी तरह बंद हो गया.
मैं यहां सात वर्षों से पत्रकार के रूप में काम कर रहा हूं लेकिन जिस तरह से यह घटना हुई, मुझे एक बड़े झटके का एहसास हुआ. जब मैं सुबह सात बजे घर से निकला, यह पता नहीं था कि क्या हो रहा था. इस बात की पुष्टि करने के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था कि आखिर शहर में इतनी घेराबंदी क्यों की गई है? श्रीनगर में पूरी तरह खामोशी छायी हुई थी. ऑफिस पहुंचने के लिए मुझे कई चेकप्वाइंट पर तैनात सुरक्षाकर्मियों को सफाई देनी पड़ी.
कुछ चेकप्वाइंट पर सुरक्षाबलों ने बातचीत के बाद मुझे आगे जाने की इजाजत दी लेकिन कई अन्य ने वापस लौटने को कहा. एक चेकप्वाइंट पर जहां मुझे लौटने को कहा गया था, वहां मैंने खुद को एक पत्रकार बता आगे जाने की इजाजत मांगी थी, लेकिन ये मेरी गलती थी. इसलिए आगे से मैंने खुद को पत्रकार बताना छोड़ दिया.
क्या होता है राज्यों का "विशेष दर्जा"
देश का संविधान किसी राज्य को विशेष नहीं कहता लेकिन इसके बावजूद कई राज्यों को "विशेष दर्जा" प्राप्त है. वहीं कई राज्य अकसर यह मांग करते नजर आते हैं कि उन्हें यह दर्जा मिले. लेकिन क्या होता है राज्यों का "विशेष दर्जा."
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क्या है राज्यों का "विशेष दर्जा"
संविधान में किसी राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने जैसा कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन विकास पायदान पर हर राज्य की स्थिति अलग रही है जिसके चलते पांचवें वित्त आयोग ने साल 1969 में सबसे पहले "स्पेशल कैटेगिरी स्टेटस" की सिफारिश की थी. इसके तहत केंद्र सरकार विशेष दर्जा प्राप्त राज्य को मदद के तौर पर बड़ी राशि देती है. इन राज्यों के लिए आवंटन, योजना आयोग की संस्था राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) करती थी.
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क्या माने जाते थे आधार
पहले एनडीसी जिन आधारों पर विशेष दर्जा देती थी उनमें था, पहाड़ी क्षेत्र, कम जनसंख्या घनत्व या जनसंख्या में बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों या जनजातियों का होना, रणनीतिक महत्व के क्षेत्र मसलन अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे इलाके, आर्थिक और बुनियादी पिछड़ापन, राज्य की वित्तीय स्थिति आदि. लेकिन अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग ने ले ली है. और नीति आयोग के पास वित्तीय संसाधनों के आवंटन का कोई अधिकार नहीं है.
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14वें वित्त आयोग की भूमिका
केंद्र सरकार के मुताबिक, 14वें वित्त आयोग ने अपनी सिफारिशों में राज्यों को दिए जाने वाले "विशेष दर्जा" की अवधारणा को प्रभावी ढंग से हटा दिया था. केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश के मसले पर कहा कि केंद्र, प्रदेश को स्पेशल कैटेगिरी में आने वाला राज्य मानकर वित्तीय मदद दे सकता है. लेकिन सरकार आंध्र प्रदेश को "विशेष राज्य" का दर्जा नहीं देगी.
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"विशेष दर्जा" का क्या लाभ
नीति आयोग से पहले योजना आयोग विशेष दर्जे वाले राज्य को केंद्रीय मदद का आवंटन करती थी. ये मदद तीन श्रेणियों में बांटी जा सकती है. इसमें, साधारण केंद्रीय सहयोग (नॉर्मल सेंट्रल असिस्टेंस या एनसीए), अतिरिक्त केंद्रीय सहयोग (एडीशनल सेंट्रल असिस्टेंस या एसीए) और विशेष केंद्रीय सहयोग (स्पेशल सेंट्रल असिस्टेंस या एससीए) शामिल हैं.
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क्या है मतलब
विशेष दर्जा प्राप्त राज्य में केंद्रीय नीतियों का 90 फीसदी खर्च केंद्र वहन करता है और 10 फीसदी राज्य. वहीं अन्य राज्यों में खर्च का 60 फीसदी ही हिस्सा केंद्र सरकार उठाती है और बाकी 40 फीसदी का भुगतान राज्य सरकार करती है.
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किन राज्यों के पास है दर्जा
एनडीसी ने सबसे पहले साल 1969 में जम्मू कश्मीर, असम और नगालैंड को यह दर्जा दिया था. लेकिन कुछ सालों बाद तक इस सूची में अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा शामिल हो गए. साल 2010 में "विशेष दर्जा" पाने वाला उत्तराखंड आखिरी राज्य बना. कुल मिलाकर आज 11 राज्यों के पास यह दर्जा है.
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अन्य राज्यों की मांग
देश के कई राज्य "विशेष दर्जा" पाने की मांग उठाते रहे हैं. इसमें आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बिहार की आवाजें सबसे मुखर रही है. लेकिन अब तक इन राज्यों को यह दर्जा नहीं दिया गया है.
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एक झटके में समाप्त हो गया अर्ध-स्वायत दर्जा
मैंने शहर के एक बड़े अस्पताल में जाने का फैसला किया ताकि यह पता चल सके कि कहीं कुछ हुआ तो नहीं है. वहां मैंने करीब दो घंटे इंतजार किया. लेकिन जैसा मैंने उम्मीद की थी, वैसा कुछ नहीं था. मरीजों की भीड़ नहीं थी. बावजूद इसके संशय बरकरार था. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर हो क्या रहा है? लेकिन जैसे ही मैं ऑफिस पहुंचा, भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने सात दशक पुराने धारा 370 को निरस्त करने की घोषणा कर दी थी. धारा 370 से मुस्लिम बहुल क्षेत्र को अर्ध-स्वायत होने का दर्जा मिला हुआ था, जो एक झटके में समाप्त हो गया.
इस फैसले की घोषणा के बाद भारत सरकार चिंतित थी कि विरोध और प्रदर्शन शुरू हो जाएंगे, जैसा कि 2008, 2010 और 2016 में हो चुका था. भारत सरकार इन्हीं संभावनाओं को देखते हुए अर्धसैनिक बल के जवानों को तैनात कर चुकी थी और हजारों की संख्या में राज्य में मौजूद पर्यटकों और हिंदू श्रद्धालुओं को निकाला जा चुका था. श्रीनगर में पूरी तरह घेराबंदी कर दी गई थी. कंटीले तारों के सड़कों को घेर दिया गया था और संचार के सभी साधन बंद कर दिए गए थे.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के भारत सरकार के फैसले ने कश्मीरियों में यह आशंका भी पैदा कर दी कि इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने के बड़े कदम उठाए जाएंगे. भारत-प्रशासित कश्मीर देश का एकमात्र क्षेत्र है जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं.
कश्मीर मुद्दे की पूरी रामकहानी
आजादी के बाद से ही कश्मीर मुद्दा भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में एक फांस बना हुआ है. कश्मीर के मोर्चे पर कब क्या क्या हुआ, जानिए.
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1947
बंटवारे के बाद पाकिस्तानी कबायली सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया तो कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय की संधि की. इस पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हो गया.
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1948
भारत ने कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में उठाया. संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव 47 पास किया जिसमें पूरे इलाके में जनमत संग्रह कराने की बात कही गई.
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1948
लेकिन प्रस्ताव के मुताबिक पाकिस्तान ने कश्मीर से सैनिक हटाने से इनकार कर दिया. और फिर कश्मीर को दो हिस्सों में बांट दिया गया.
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1951
भारतीय कश्मीर में चुनाव हुए और भारत में विलय का समर्थन किया गया. भारत ने कहा, अब जनमत संग्रह का जरूरत नहीं बची. पर संयुक्त राष्ट्र और पाकिस्तान ने कहा, जनमत संग्रह तो होना चाहिए.
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1953
जनमत संग्रह समर्थक और भारत में विलय को लटका रहे कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्लाह को गिरफ्तार कर लिया गया. जम्मू कश्मीर की नई सरकार ने भारत में कश्मीर के विलय पर मुहर लगाई.
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1957
भारत के संविधान में जम्मू कश्मीर को भारत के हिस्से के तौर पर परिभाषित किया गया.
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1962-63
चीन ने 1962 की लड़ाई भारत को हराया और अक्साई चिन पर नियंत्रण कर लिया. इसके अगले साल पाकिस्तान ने कश्मीर का ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट वाला हिस्सा चीन को दे दिया.
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1965
कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान का युद्ध हुआ. लेकिन आखिर में दोनों देश अपने पुरानी पोजिशन पर लौट गए.
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1971-72
दोनों देशों का फिर युद्ध हुआ. पाकिस्तान हारा और 1972 में शिमला समझौता हुआ. युद्धविराम रेखा को नियंत्रण रेखा बनाया गया और बातचीत से विवाद सुलझाने पर सहमति हुई.
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1984
भारत ने सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण कर लिया, जिसे हासिल करने के लिए पाकिस्तान कई बार कोशिश की. लेकिन कामयाब न हुआ.
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1987
जम्मू कश्मीर में विवादित चुनावों के बाद राज्य में आजादी समर्थक अलगाववादी आंदोलन शुरू हुआ. भारत ने पाकिस्तान पर उग्रवाद भड़काने का आरोप लगाया, जिसे पाकिस्तान ने खारिज किया.
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1990
गवकदल पुल पर भारतीय सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 100 प्रदर्शनकारियों की मौत. घाटी से लगभग सारे हिंदू चले गए. जम्मू कश्मीर में सेना को विशेष शक्तियां देने वाले अफ्सपा कानून लगा.
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1999
घाटी में 1990 के दशक में हिंसा जारी रही. लेकिन 1999 आते आते भारत और पाकिस्तान फिर लड़ाई को मोर्चे पर डटे थे. कारगिल की लड़ाई.
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2001-2008
भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की कोशिशें पहले संसद पर हमले और और फिर मुबई हमले समेत ऐसी कई हिंसक घटनाओं से नाकाम होती रहीं.
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2010
भारतीय सेना की गोली लगने से एक प्रदर्शनकारी की मौत पर घाटी उबल पड़ी. हफ्तों तक तनाव रहा और कम से कम 100 लोग मारे गए.
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2013
संसद पर हमले के दोषी करार दिए गए अफजल गुरु को फांसी दी गई. इसके बाद भड़के प्रदर्शनों में दो लोग मारे गए. इसी साल भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मिले और तनाव को घटाने की बात हुई.
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2014
प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ गए. लेकिन उसके बाद नई दिल्ली में अलगाववादियों से पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाकात पर भारत ने बातचीत टाल दी.
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2016
बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में आजादी के समर्थक फिर सड़कों पर आ गए. अब तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और गतिरोध जारी है.
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2019
14 फरवरी 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आतंकी हमले में 46 जवान मारे गए. इस हमले को एक कश्मीरी युवक ने अंजाम दिया. इसके बाद परिस्थितियां बदलीं. भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बना हुआ है.
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2019
22 जुलाई 2019 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से मुलाकात करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दावा किया की भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कश्मीर मुद्दे को लेकर मध्यस्थता करने की मांग की. लेकिन भारत सरकार ने ट्रंप के इस दावे को खारिज कर दिया और कहा कि कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय बातचीत से ही सुलझेगा.
तस्वीर: picture-alliance
2019
5 अगस्त 2019 को भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में एक संशोधन विधेयक पेश किया. इस संशोधन के मुताबिक अनुच्छेद 370 में बदलाव किए जाएंगे. जम्मू कश्मीर को विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाएगा. लद्दाख को भी एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाएगा. धारा 35 ए भी खत्म हो गई है.
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जारी है खामोशी का आलम
फोन लाइन और इंटरनेट कनेक्शन बंद रहने की वजह से श्रीनगर में खामोशी का आलम जारी है. यहां रह रहे लोग दुनिया से पूरी तरह अलग-थलग हो गए हैं. वे दोस्तों और रिश्तेदारों की खबर का इंतजार करते हैं. श्रीनगर में घेराबंदी के पहले दिन से ही मेरे घर पर माता-पिता दबाव महसूस कर रहे थे. हमने अपने घर पर जरूरी सामान इकट्ठा कर लिए थे लेकिन वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि कहीं कुछ छूट तो नहीं रहा है. उन्होंने दवा, खाने के सामान और दूध इत्यादि जैसे सामानों की फिर से जांच की. अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद पहली रात शहर पूरी तरह शांत था.
अगले दिन 7 अगस्त को मैंने फिर से बाहर निकलने और शहर का जायजा लेने का फैसला किया. संचार का कोई माध्यम चालू नहीं था. खबर भेजने के कोई रास्ते नहीं थे. मुझे अगले दिन फिर से चेकप्वाइंट पर रोका गया और पूछा गया, "तुम कहां जाना चाहते हो?" मैंने सावधानी से जवाब दिया. सुरक्षाकर्मी कुछ देर रूके और फिर जाने दिया.
श्रीनगर में हर कुछ सौ मीटर पर सड़क को ब्लॉक कर दिया गया था. श्रीनगर के ऐतिहासिक लाल चौक को सील कर दिया गया था. ये वही लाल चौक है जहां भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कश्मीर के लोगों से जनमत कराने का वादा किया था.
बाहर घूमना खतरे से खाली नहीं था. किसी भी तरह की आपातकालीन स्थिति में परिजनों से संपर्क करने और किसी नंबर पर फोन करने का कोई रास्ता नहीं था. मैं महाराजा हरि सिंह अस्पताल की ओर गया. इसका नाम कश्मीर के अंतिम हिंदू राजा के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने 1947 में इस क्षेत्र को भारत को सौंप दिया था. सड़क हादसे में घायल एक व्यक्ति को स्ट्रेचर पर लादकर लाया जा रहा था. उसकी हालत चिंताजनक थी लेकिन उसके परिजनों से संपर्क करने का कोई साधन नहीं था.
एंबुलेंस ड्राईवर ने बताया कि इसकी बाइक को एक ट्रक ने धक्का मार दिया था और वहां सड़क पर इसे उठाने वाला कोई नहीं था. मैं भावुक होकर अस्पताल से निकल गया. अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद एक महिला अपने घर जाने के लिए किसी गाड़ी का इंतजार कर रही थी. उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा, तुम्हारा दिल भी मेरी तरह कमजोर दिखता है.
मैंने खुद को किसी हारे हुए व्यक्ति की तरह महसूस किया
अपने करियर में मैंने कई कहानियों पर काम किया है और महसूस किया है कि भावनाओं से निपटना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता है. उदाहरण के तौर पर, पिछले महीने मैंने उन तीन लोगों को बारे में रिपोर्टिंग की थी, जो 23 साल जेल में रहने के बाद निर्दोष पाए गए और जेल से रिहा हुए. उनकी कहानी दिल दहलाने वाली थी लेकिन किसी भी चीज से कश्मीर के लोगों की हताशा की तुलना करना मुश्किल है. मैंने चिंतित होकर अस्पताल छोड़ दिया क्योंकि जो लोग परेशानियों का सामना कर रहे थे, उसकी रिपोर्ट करने का कोई साधन नहीं था. मुझे एक पत्रकार के रूप में हारा हुआ महसूस हुआ.
11 अगस्त को घेराबंदी का सातवां दिन था. मैं श्रीनगर में घूम रहा था और देखा कि एक महिला सड़क किनारे गिरी पड़ी है. वह अचेत होकर गिर पड़ी थी और उसके सिर पर गहरी चोट आयी थी. वहां कोई मौजूद नहीं था, जो महिला को अस्पताल ले जा सके. मैंने उसे अस्पताल ले जाने का निश्चय किया. उसने मुझे बताया, "मैं अपने बच्चों के खाने का सामान खरीदने के लिए दुकान की तलाश कर रही थी." वह मुसलमानों के बड़े त्योहार ईद के पहले की शाम थी.
महिला ने कहा, "मैं एक विधवा हूं. मेरे बच्चों ने मुझे बाहर निकलने से मना किया लेकिन मैं उनसे एक घंटे में वापस लौटने का वादा कर बाहर निकली. लेकिन अब देर हो जाएगी. मेरे पास कोई साधन नहीं है कि मैं उन्हें बता सकूं कि मुझे वापस लौटने में देर हो जाएगी."
घेराबंदी में ईद
12 अगस्त को मैं श्रीनगर एयरपोर्ट पर गया. वह ईद का दिन था. एयरपोर्ट के रास्ते में काफी ज्यादा जगहों पर सड़कों को ब्लॉक किया गया था. हर जगर कंटीले तारों से घेराबंदी की गई थी. यह साधारण दिनों से काफी ज्यादा था. इसके बाद मैं घर लौट आया. मेरे एक पड़ोसी ने मुझे रोका और ईद की मुबारकबाद दी. मैं तो भूल ही गया था कि आज ईद भी है. मेरी 9 साल की भतीजी और 3 तथा 5 साल के दो भतीजों के पास पहनने को नए कपड़े नहीं थे. हमने घर पर किसी तरह के पकवान भी नहीं बनाए थे. बच्चे एक बागीचे में जाकर दूसरे बच्चों के साथ खेलना चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं जाने दिया गया.
5 अगस्त को कश्मीर में घेराबंदी की गई थी. कई दिन बीत चुके हैं लेकिन स्थिति में किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ है. लोगों ने तो अब दिन गिनना भी छोड़ दिया है. कश्मीर में अब हर दिन एक जैसे ही दृश्य दिखते हैं. वही घेराबंदी. न तो इंटरनेट चालू है और न ही फोन कर परिजनों और रिश्तेदारों से बात कर सकते हैं. न तो गम के बारे में पता चल रहा है और न ही खुशी के बारे में.
पैसे के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता. ऐसा ही उदाहरण हैं झारखंड से लद्दाख पहुंचे वे मजदूर जो सड़कों का निर्माण कर रहे हैं. हालांकि मजदूर इस बात से खुश हैं कि लद्दाख में काम करते हुए उनका पैसा बच जाता है.
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लद्दाख में सड़क निर्माण
हजारों मील दूर अपना घरबार छोड़ कर गए मजदूरों का एक समूह हिमालय के क्षेत्र में दुनिया की सबसे ऊंची सड़कों में शामिल सड़क को बनाने का काम कर रहे हैं. भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र में करीब पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर चांग ला पास पर झारखंड से आए 13 मजदूर काम कर रहे हैं.
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टूरिस्टों के लिए
झारखंड जैसे गर्म प्रदेश से आए इन मजदूरों को ठंडे मौसम में काम करने का कोई खास अनुभव नहीं है. चार महीने के लिए इन्हें लद्दाख के टांगसे जिले में सड़क बनाने के लिए नियुक्त किया गया है. इस क्षेत्र में साल भर बर्फानी तूफान आते हैं. इन मजदूरों का मुख्य काम यह सुनिश्चित करना है कि नुबरा घाटी और पेंगोंग झील जाने वाला रास्ता बढ़िया स्थिति में रहे.
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मेहनताना बस कुछ हजार
इस कमरतोड़ काम के बाद इन मजदूरों को 40 हजार रुपये तक मिलेंगे. 1.3 अरब की आबादी वाले देश भारत में जहां 21 फीसदी लोग प्रतिदिन 170 रुपये से कम में गुजारा करते हैं वहां 40 हजार एक ठीक ठाक कमाई है. यहां काम कर रहे 30 साल के सुनील टूटू कहते हैं कि उनके गृह प्रदेश में कोई खास काम नहीं है. वहां काम ढूंढना मुश्किल है. इसलिए वे लोग झारखंड से आ गए हैं.
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हफ्ते का एक दिन
ये लोग हफ्ते के छह दिन काम करते हैं. रविवार ही इकलौता ऐसा दिन होता है जब लोग नहा पाते हैं, दाढ़ी बना पाते हैं. सड़क बनाने के काम में कुछ लद्दाखी लोग भी मदद करते हैं और महिलाएं भी सहयोग करती है.
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काम तक पहुंचने का तरीका
हर सुबह नाश्ते में ब्रेड और चाय के बाद मजदूर ट्रकों के इंतजार में बैठ जाते हैं. ट्रक उन्हें उनके कार्य स्थल तक ले कर जाते हैं.
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बिना बिजली जीवन
काम के बाद मजदूर अपने तंबू में जाते हैं और सूर्यास्त के बाद दाल-चावल खाते हैं. इन तंबुओं में कोई बिजली नहीं है. खाना बनाने के लिए स्टोव और मिट्टी के तेल बस है. इसके बावजूद ये मजदूर इस काम की शिकायत नहीं करते. सुनील टूटू कहते हैं कि अगर उन्हें मौका मिलेगा तो वे फिर यहां काम करने आएंगे.
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वापस आने का कारण
33 साल के मजदूर राजशेखर ने कहा कि यहां वह पैसा बचा पाते हैं. उन्होंने कहा कि घर में हम पैसा नहीं बचा पाते, वहां हम खाते हैं, पीते हैं और इसमें पैसे खत्म हो जाते हैं. राजशेखर ने कहा कि उन्हें सड़क बनाने का काम यहां अच्छा लगता है. हालांकि वह ठंडे माहौल को पसंद नहीं करते.
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प्रवासी मजदूर
ग्रामीण क्षेत्रों से अकसर लोग काम की तलाश में शहर की ओर आ जाते हैं. गैर सरकारी संस्था आजीविका ब्यूरो एजेंसी के मुताबिक लाखों मजदूर बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के खतरनाक परिस्थितियों में काम करने को मजबूर हैं. (स्रोत-एएफपी)