कैसे आजाद रहें किताबें
१७ फ़रवरी २०१४


ताजा मिसाल वेंडी डॉनिगर जैसी विद्वान भारतविद और संस्कृत की प्रकांड ज्ञाता की किताब "हिन्दूः वैकल्पिक इतिहास" है. पुस्तक प्रेमियों और कट्टरपंथ के प्रतिरोध ने किताब को मरने नहीं दिया. हिन्दू धर्म की ऐतिहासिक गुत्थियों को समझाते हुई लिखी गई 851 पृष्ठों वाली किताब की पीडीएफ फाइल इंटरनेट पर आजाद हो गई.
पेंग्विन ने तो न जाने किस दबाव में या किस पॉलिटिक्ल टाइमिंग के झांसे में अपनी प्रकाशन प्रतिष्ठा को ताक पर रख दिया लेकिन समाज को और अनुदारवादी बनाने के लिए ऐसी हरकतें जिम्मेदार बनती हैं. किसी भी नामालूम से संगठन को तवज्जो मिल जाती है और इस तरह जिसका मन किया आ जाता है छड़ी फटकारने. सब संस्कृति और नैतिकता के मास्टर बन जाते हैं.
हमारे समय के एक बड़े फनकार मकबूल फिदा हुसैन के साथ इन ताकतों ने क्या किया, याद कीजिए. तस्लीमा नसरीन का पीछा तो नए मीडिया में भी किया जा रहा है. ऐसा ही बहुत सारे रचनाकारों के साथ हो रहा है. प्रकांड विद्वान एके रामानुजम का एक निबंध ही दक्षिणपंथियों के दबाव में कोर्स से हटाया गया. इतिहासकार डीडी कोसांबी को लेकर एक उत्पात पिछले दिनों हिन्दी में हो चुका है.
अन्वेषण करने की हमारी परंपरा के आगे, उसके ही ये स्वयंभू रखवाले अवरोध बन कर खड़े हैं. वे धर्म को ऐसे समझते हैं जैसे उनकी तिजोरी का कोई सामान. धर्म की सच्ची अवधारणा से कोसों दूर. समाज संस्कृति भाषा कला विचार प्रेम तो छोड़ ही दीजिए. असहमति का साहस और सहमति का विवेक तो वहां है ही नहीं.
विवाद करने वाली शक्तियों पर कानूनन काबू पाने के जतन तो लोकतंत्र में रखने ही होंगे. ऐसी स्पेस छोड़ी ही न जाए जहां कट्टरपंथी विचारों को प्रश्रय मिल सके, कोई राजनैतिक हित उनकी आड़ में न साधे जा सकें. ऐसी स्पेस, क्या हम सोच सकते हैं, आज के राजनैतिक सामाजिक माहौल में संभव है, जहां लोकतंत्र को वोट के गणित में उलझा दिया गया है. कहां बनाई जाए खुली और वास्तविक लोकतंत्र वाली जगह. क्या इंटरनेट वो जगह हो सकती है. लेकिन वो तो गांव गांव गया नहीं. नये मीडिया के कई इस्तेमाल उतने ही खतरनाक हैं. पूर्वोत्तर की घटनाएं और मुजफ्फरनगर कांड की मिसालें सामने हैं.


आईटी एक्ट की धारा 66ए तो अभिव्यक्ति की आजादी को ही चुनौती देती जान पड़ती है. आपने अगर "ग्रोस्ली अफेन्सिव" यानी बहुत भारी अपमान या बहुत आक्रामक कोई बात या चित्र इंटरनेट पर रवाना किया तो आप कानून के घेरे में. अपमान क्या, कैसा और कितना, इस पर धारा खामोश है. ममता बनर्जी से लेकर शरद पवार और बाल ठाकरे के मामलों में हम ये देख चुके हैं. तो इंटरनेट पर भी अभिव्यक्ति के लिए मुश्किलें हैं. अमेरिका के तो एक विश्वव्यापी जासूसी अभियान से पर्दा उठ ही चुका है. सरकारें भी इंटरनेट को एक खुली उदार जगह नहीं रहने देना चाहती. वे उस पर काबू चाहती हैं.
अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाले कानूनों को उदार बनाना ही होगा. उनकी सही सही व्याख्या हो और कोई लूपहोल न छोड़े जाएं. एक आंदोलन इसे लेकर नये सिरे से छेड़ा जा सकता है. आईटी एक्ट को लेकर बहस चल पड़ी है, इधर 295 ए को लेकर देश के बुद्धिजीवियों ने ऑनलाइन पेटीशन से एक मुहिम छेड़ी है. देर सबेर सरकारों को जगना ही होगा.
इतनी हिम्मत तो लानी ही होगी कि हम खुले समाज में भी बहस के लिए अवसर जुटाएं. अफसोस की बात है कि हमें आज ये सब सोचना पड़ रहा है जबकि इसी भारतवर्ष में खुली बहसों और शास्त्रार्थ की एक महान परंपरा रही है. वेदों और उपनिषदों को ही देखिए. इतने विवेचन, इतने विमर्श. इस महादेश की वैचारिक विविधता के सशक्त प्रमाण. अलग अलग संस्कृतियां, भाषाएं, बोलियां.
भक्तिकाल की निर्गुण और सगुण परंपरा रही, कबीर का विरोध हुआ लेकिन वो लोगों की जुबानों में बस गए. बुद्ध का विरोध हुआ लेकिन बुद्ध आज हमारे लिए शांति की सबसे बड़ी रोशनी की तरह काम करते हैं. अशोक और अकबर के युग इस देश में आए. हमारा लोकतंत्र और हमारा समाज उन युगों से निकली अच्छाइयों से बना और संवरा.
फ्रांसीसी फिल्मकार त्रूफो की एक फिल्म है "फॉरेनहाइट 451". इसमें किताबों से नफरत करती हुई सत्ता उन्हें आग के हवाले करने का अभियान छेड़े हुए है और किताब के दीवाने कुछ लोग जैसे तैसे उस यातना से बच निकलकर एक ऐसी स्पेस में पहुंचते हैं जहां हर व्यक्ति ने कोई न कोई किताब कंठस्थ कर ली है. और वे एक दूसरे को सुना रहे हैं. इस तरह किताबें स्मृति में बचाई जा रही हैं.
क्या स्मृति ही वो स्पेस रह जाएगी जिसकी हम सबको तलाश है एक उदार गतिशील समाज में सोचने और बात करने के लिए.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः अनवर जे अशरफ