सैटेलाइट पोजिशनिंग डिवाइस, नेवीगेशन सिस्टम और स्मार्टफोन ये सभी सैटेलाइट से मिलने वाले सिग्नलों के जरिए गणना कर आपको सही पोजिशन बताते हैं. चलिये जानते हैं इसके पीछे छुपे विज्ञान को.
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आम जिंदगी में यह बहुत उपयोगी और आसान सा लगने वाला सिस्टम लगता है. लेकिन इसके पीछे धरती का चक्कर काट रही 25 अमेरिकी सैटेलाइटों का तंत्र है, जो बीते 15 साल से हमारी मदद कर रहा है..
डिजिटल सेटेलाइट सिस्टम जीपीएस हमें किसी जगह का पता करने में मदद करता है और मंजिल तक पहुंचने का सही रास्ता बताता है. लेकिन हमें ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टन का सिर्फ रिसीवर टर्मिनल ही दिखता है.
इसके पीछे का विज्ञान नहीं दिखता. असल में पृथ्वी का चक्कर काटते और अपनी स्थिति और समय की सूचना देते 25 उपग्रह इस सिस्टम का आधार हैं. इस डाटा की मदद से नेविगेशन उपकरण अपनी स्थिति का आकलन करते हैं और कहीं पहुंचने के लिए रास्ते की खोज करते हैं. इन उपग्रहों को अमेरिका ने पृथ्वी की कक्षा में भेजा है. वे 1978 से 20,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं. लेकिन सेटेलाइट तकनीकी उससे भी पुरानी है.
अंतरिक्ष युग
अंतरिक्ष युग की शुरुआत 4 अक्टूबर 1957 को हुई, जब सोवियत संघ के स्पुतनिक 1 अंतरिक्ष में भेजा. सेर्गेई कोरोलियोव के दिमाग की उपज यह उपग्रह 58 सेंटीमीटर व्यास का था. इसने अंतरित्र से पृथ्वी को संकेत भेजा जिसे उपयुक्त उपकरण की मदद से धरती पर कहीं भी कैच किया जा सकता था.
सोवियत तकनीकी के इस प्रदर्शन के बाद अमेरिका को महसूस हुआ कि उसका शीत युद्ध का प्रतिद्वंद्वी तकनीकी के मामले में एक कदम आगे चला गया है. स्पुतनिक शॉक के बाद अमेरिका ने व्यापक अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत की. अंतरिक्ष एजेंसी नासा की स्थापना हुई. 1969 में पहले इंसान पर चांद पर भेजकर अमेरिका ने दिखा दिया कि उसने तकनीकी के मामले में सोवियत संघ को पकड़ लिया है.
हाई पब्लिसिटी वाले अपोलो कार्यक्रम के अलावा अमेरिका ने सेटेलाइट तकनीकी का विकास जारी रखा. शुरुआत में उपग्रहों को सैनिक जासूसी के लिए इस्तेमाल किया गया. पहली जीपीएस सेटेलाइट को 1978 में कक्षा में भेजा गया. इसका मुख्य मकसद दूसरे उपग्रहों के साथ मिलकर अमेरिकी सैन्य ऑपरेशन में मदद करना था.
2000 में अमेरिका ने जीपीएस सिस्टम को आम लोगों के इस्तेमाल के लिए खोल दिया. उसके बाद अब कोई भी पृथ्वी के किसी भी हिस्से का पता ठीक ठीक कर सकता है. यह हर नेविगेशन सिस्टम का आधार है.
ओएसजे/आईबी
अंतरिक्ष से नजारा
जर्मनी के अंतरिक्ष यात्री अलेक्जांडर गैर्स्ट ने अपनी पहली अंतरिक्ष यात्रा के दौरान अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर छह महीने गुजारते हुए कुछ मजेदार तस्वीरें ली थीं. देखिए.
तस्वीर: ESA/NASA
विज्ञान से ज्यादा
"हैलो बर्लिन, यहां ऊपर से मुझे कोई सीमाएं नजर नहीं आ रही हैं." 9 नवंबर, बर्लिन दीवार के गिरने की 25वीं वर्षगांठ के मौके पर अलेक्जांडर गैर्स्ट ने यह ट्वीट किया. विज्ञान से जुड़े कई प्रयोगों के अलावा गैर्स्ट का मकसद था लोगों को दिखाना कि अंतरिक्ष से हमारी पृथ्वी कितनी खूबसूरत लगती है. अपने प्रोजेक्ट का नाम उन्होंने 'ब्लू डॉट' रखा.
तस्वीर: Alexander Gerst/ESA/picture-alliance/dpa
शब्दों में नहीं कह सके
उत्तरी ध्रुव के पास रोशनी का ऐसा अनोखा नजारा देखने को मिलता है. इसे ऑरोरा कहते हैं. अंतरिक्ष से ऑरोरा की तस्वीर भेजते हुए गैर्स्ट ने लिखा, "मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता कि ऑरोरा के बीच से उड़ान भरते हुए मुझे कैसा महसूस हो रहा है." गैर्स्ट शब्दों में भले ही ऑरोरा की खूबसूरती को व्यक्त ना कर पाए हों, लेकिन तस्वीर सब कुछ कह रही है.
ऑरोरा को नॉदर्न लाइट्स के नाम से भी जाना जाता है. धरती पर भी इन्हें देखना कम ही लोगों को नसीब हो पाता है. नॉर्वे के बर्फीले इलाकों में लोग रोशनी के मंजर को देखने पहुंचते हैं. गैर्स्ट खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें अंतरिक्ष में ऑरोरा का अनुभव करने का मौका मिला.
तस्वीर: ESA/NASA
बूझो तो जानें
अंतरिक्ष में रहते हुए भी गैर्स्ट सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहे. उन्होंने वहां से कई तस्वीरें फेसबुक और ट्विटर पर शेयर कीं. #geochallenge के साथ वे अक्सर तस्वीर पोस्ट किया करते और लोगों से पूछते कि उनके अनुसार यह किस जगह की तस्वीर है. किसी पहाड़ या ज्वालामुखी जैसा दिखने वाला दरअसल यह एरिजोना में एक उल्कापिंड द्वारा बनाया गड्ढा है.
देखने में तो यह बादलों के बीच एक छोटा सा सुराख लगता है, पर यह 80 किलोमीटर बड़ा है. इसे 'आय ऑफ स्टॉर्म' यानि तूफान की आंख कहा जाता है. यह देखने में भले ही खूबसूरत हो, लेकिन इससे धरती पर भारी नुकसान पहुंच सकता है. इस तस्वीर को पोस्ट करते हुए गैर्स्ट, "यहां ऊपर से देख कर हैरानी होती है कि हमारी दुनिया एक दूसरे से कितने प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई है."
गैर्स्ट की तस्वीरों की खास बात है कि इनमें किसी भी तरह के फेर बदल नहीं किए गए हैं. यह तस्वीर गाजा और इस्राएल की है. वहां हो रही बमबारी और धमाकों को इसमें साफ देखा जा सकता है. जब गैर्स्ट ने यह तस्वीर भेजी, तो उन्होंने लिखा, "यह अब तक की मेरी सबसे दुखद तस्वीर है."
तस्वीर: picture-alliance/dpa/ESA/NASA
एलियन का काम?
ऊपर से नजर आ रही ये गोल आकृतियां किसी एलियन का काम नहीं हैं, बल्कि इंसानों द्वारा बनाए गए खेत हैं. यह मेक्सिको की तस्वीर है जहां सूखे इलाके में भी खेती को मुमकिन बनाया गया है. गैर्स्ट ने भी अंतरिक्ष में रहते हुए कुछ पौधों को उगाने की कोशिश की ताकि पता किया जा सके कि पानी को बेहतर रूप से कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है.
तस्वीर: ESA/NASA
कैनवस जैसा
गैर्स्ट के ऐसी कई तस्वीरें किसी कलाकार का काम लगती हैं. कुदरत के ये नजारे हैरान करते हैं. यह तस्वीर कजाकिस्तान की एक नदी को दिखाती है. अलग अलग रंगों से नदी के अब तक के नए और पुराने रास्तों को भी देखा जा सकता है.
तस्वीर: ESA/NASA
रेगिस्तान में
कहते हैं कि सहारा में जा कर ऐसा लगता है जैसे रेत के पहाड़ कभी खत्म ही नहीं होंगे. लेकिन अंतरिक्ष से देखें तो इन रेतीले पहाड़ों की सीमाएं पता चलती हैं. इस तस्वीर के साथ गैर्स्ट ने लिखा, "आइसिस के अंदर जब नारंगी रोशनी आने लगती है, तो मुझे बिना बाहर देखे ही पता चल जाता है कि मैं अफ्रीका के ऊपर उड़ रहा हूं."
तस्वीर: ESA/NASA
खोज और तलाश
यह उत्तरी अफ्रीका की तस्वीर है. इस तरह की पुरानी तस्वीरें भी मौजूद हैं. नई और पुरानी की तुलना कर वैज्ञानिक भौगोलिक बदलावों को बेहतर रूप से समझ सकते हैं.