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समाज

भारत में मध्यम वर्ग के सपने तोड़ रहा है कोविड-19

१७ अगस्त २०२०

भारत की कोरोना वायरस तालाबंदी ने निरंतर मध्यम वर्ग में शामिल होने वाले लाखों लोगों की योजनाओं को उलट-पलट कर रख दिया है. ये समूह दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाली देश में आर्थिक विकास की योजनाओं का एक मुख्य हिस्सा रहा है.

Indien Kochi | Coronavirus
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. S. Iyer

मार्च तक आशीष कुमार फेर्रेरो रोशर चॉकलेटों के लिए प्लास्टिक के डब्बे और किंडर जॉय के अंडों के अंदर घुसा कर रखने वाले प्लास्टिक के चम्मच बनाने में मदद कर रहे थे. उनके पास प्लास्टिक के ढांचे बनाने की तकनीक का डिप्लोमा है और उसकी मदद से उन्होंने अपने करियर में तरक्की की राह पकड़ ली थी.

उनके छोटे भाई आदित्य ने कानून की दुनिया चुनी लेकिन आशीष की नजर प्लास्टिक पर ही थी. वो कैसे अपनी खुद की फैक्टरी में प्लास्टिक को रिसायकल कर रोजमर्रा की जरूरत का सामान बनाना चाहते हैं, ये समझाते हुए उन्होंने बताया, "मैं अपना व्यापार शुरू करता हूं."

भारत की कोरोना वायरस तालाबंदी ने उनकी योजनाओं को उलट-पलट कर रख दिया है. पूरी दुनिया में आशीष कुमार जैसे शिक्षित लेकिन बेरोजगार अनगिनत लोग हैं जिनकी तरक्की की राह को कोरोना वायरस ने रोक दिया. वायरस ने अभी तक भारत में 20 लाख से भी ज्यादा लोगों को संक्रमित कर दिया है और अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया है. इसी के साथ, करोड़ों लोगों के अरमान भी धुंधले होते जा रहे हैं.

तालाबंदी के दौरान नई दिल्ली से उत्तर प्रदेश लौटने के लिए ट्रेन में यात्रा करने वालों की कतार.तस्वीर: Reuters/A. Abidi

मध्यम वर्ग के सपने

ये लोग सालों से ग्रामीण भारत के लिए समृद्धि हासिल कर रहे हैं और एक ऐसे वर्ग में शामिल रहे हैं जिसे अर्थशास्त्री एक निरंतर फैलता हुआ मध्यम वर्ग कहते हैं. कुछ परिभाषाओं के अनुसार ये प्रतिदिन 10 डॉलर से ज्यादा कमाते हैं. ये समूह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाली देश में आर्थिक विकास की योजनाओं का एक मुख्य हिस्सा रहा है.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार महामारी के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था के 4.5 प्रतिशत सिकुड़ने का अनुमान है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार कम से कम 40 करोड़ श्रमिकों के और गहरी गरीबी में जाने का खतरा है.

आशीष कुमार उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के उन अनुमानित 1,31,000 लोगों में से हैं जो महामारी के दौरान पूरे देश से अपने जिले वापस लौट आए हैं. कुमार ने पिछले साल जून में गोंडा छोड़ा था. पूरे देश में करीब एक करोड़ लोग लंबी और मुश्किल यात्राएं करके अपने उन गांवों में वापस लौट आए जिन्हें उन्होंने छोड़ दिया था. कुछ तो फिर से वापस शहर लौट चुके हैं, लेकिन कई अभी भी गांवों में ही फंसे हुए हैं.

कुमार महाराष्ट्र के बारामती जिले में एक फैक्टरी में काम कर रहे थे और हर महीन 13,000 रुपये (173 डॉलर) कमा रहे थे. ये रकम उनके पिता की कमाई से दुगुने से भी ज्यादा जो वो अपने गांव के पास ही एक अनाज मंडी में काम करके हर महीने घर लाते थे. इस कमाई में से कुमार हर महीने लगभग 9,000 रुपये अपने घर भेज रहे थे, जिसका अधिकांश हिस्सा उनके छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च उठाने में काम आ रहा था.

तालाबंदी के दौरान बिहार के पटना से हो कर अपने अपने गांवों की तरफ पैदल लौटते लोग.तस्वीर: IANS

पिछले एक साल में उनकी कमाई की मदद से उनके माता-पिता ने चार कमरों का ईंटों का एक घर बना लिया. इसके पहले वो दशकों से एक मिटटी की झोंपड़ी में रह रहे थे जिसकी छत से बरसातों में पानी टपकने लगता था. उनकी कमाई से उनके छोटा भाई की कानून की पढ़ाई की फीस भी भरने में मदद मिली.

पोषक से बोझ तक

पर अब सब बदल गया है. कुमार कभी अपने परिवार के लिए एक पोषक थे, लेकिन अब वो एक बोझ बन गए हैं. कुमार अब अपने दत्ता नगर गांव में बस समय काट रहे हैं. विश्व बैंक के अनुसार उत्तर प्रदेश की 20 करोड़ आबादी में करीब छह करोड़ लोग गरीबी में रहते हैं. कुमार कहते हैं कि उन्होंने गुजरात और दूसरे राज्यों में कई प्लास्टिक फैक्टरियों में नौकरी के लिए आवेदन किया है लेकिन उन्हें अभी तक काम नहीं मिला है. लहलाते हुए धान के खेतों से घिरे हुए अपने माता-पिता के एक मंजिला मकान के पास बैठे हुए कुमार कहते हैं, "कुछ भी हो जाए, मुझे एक नौकरी चाहिए."

मई में राज्य सरकारों ने तालाबंदी के बाद खुलने वाली फैक्टरियों के लिए स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनमें मास्क, तापमान मापना, दूरी बनाए रखना इत्यादि शामिल थे. श्रम संगठनों का आरोप है कि कई कंपनियों ने सभी कदमों का पालन नहीं किया, लेकिन इस संदर्भ में उन्होंने कुमार की फैक्टरी का नाम नहीं लिया है. कुमार की फैक्टरी मई में खुल गई थी, लेकिन फैक्टरी ने सुरक्षा के क्या क्या कदम उठाए थे, इस सवाल का जवाब फैक्टरी ने नहीं दिया.

बिहार के जमुई में दूसरे राज्यों से लौटे हुए लोग एक क्वारंटाइन केंद्र में.तस्वीर: DW/Manish Kumar

कुमार के अलावा और भी कई कर्मचारियों से रॉयटर्स ने बात की और उन सब ने कहा कि उन्हें वापस लौटना सुरक्षित नहीं लग रहा था. जून तक उनके पास पैसे भी खत्म हो गए. खाना खरीदना तक मुश्किल हो गया था. उनके माता-पिता के दिल में भी कुमार के लिए डर समा गया. ट्रेन सेवा के खुलते ही तीन जून को कुमार ने कुछ पैसे उधार लिए और ट्रेन, बस और टैक्सी में 48 घंटों की यात्रा कर गोंडा वापस लौट आए. 

अब उनके माता-पिता उन्हें दोबारा भेजने के बारे में चिंतित हैं, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास भी है कि बड़े बेटे की कमाई के बिना छोटा बेटा कानून की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाएगा. कुमार अपनी प्लास्टिक फैक्टरी के सपने का त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं. वो कहते हैं, "मैं वो कर के ही रहूंगा. चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपना सपना जरूर पूरा करूंगा."

सीके/ओएसजे (रॉयटर्स)

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