भारत में एक लाख से अधिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं. प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में पेश रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की हालत सबसे बुरी है.
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ये रिपोर्ट भारत में स्कूली शिक्षा की काफी बदहाल तस्वीर पेश करती है. अगर आजादी के 70वें साल में भी भारत में स्कूली शिक्षा को पटरी पर नहीं लाया जा सका है तो ये एक बेहद शोचनीय स्थिति है. अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि एक अकेला शिक्षक भला पूरे स्कूल को कैसे चलाएगा. जब वो किसी एक कक्षा को पढ़ाता होगा तो बाकी कक्षाओं में क्या होता होगा या कि पहली से लेकर आठवीं तक सभी बच्चे किस तरह एक ही साथ पढ़ाए जाते होंगे. ऐसे में अध्यापक कितनी जिम्मेदारी से पढ़ा पाता होगा और छात्रों की भी क्या प्रेरणा रह जाती होगी और वो क्या पढते-समझते होंगे.
भारत में शिक्षा समवर्ती सूची में है और हर सरकार की ये जिम्मेदारी है कि वो सुचिंतित ढंग से शिक्षा का अधिकतम प्रसार करे. लेकिन इस रिपोर्ट से साफ है कि शिक्षा को लेकर सरकारें गंभीर नहीं हैं. ये विडंबनापूर्ण स्थिति इसलिए है क्योंकि नीति और उसे लागू करने के बीच काफी बड़ी खाई है. शिक्षा के प्रसार के लिए जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम लाया गया उसके अनुसार छात्र-शिक्षक अनुपात प्रति 30-35 छात्रों पर एक शिक्षक का होना चाहिए. कई बार मीडिया में ऐसी खबरें भी सुर्खियों में आती हैं कि किसी स्कूल में चार शिक्षकों की तैनाती है और उसमें सिर्फ एक या दो बच्चे पढ़ते हैं. किसी भी लोकतंत्र के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय हैं. संयुक्त राष्ट्र ने जो सहस्त्राब्दी लक्ष्य तय किए हैं उनमें शिक्षा भी एक है.
सबसे खतरनाक स्कूल
खतरनाक चट्टानें, सर्पीली पगडंडियां या फिर मुश्किल से नदी पार करना, कई देशों में हजारों गरीब बच्चे आज भी इसी तरह स्कूल जाते हैं. ग्रामीण इलाकों के इन बच्चों के पास और कोई विकल्प भी नहीं है.
तस्वीर: Senator Film Verleih, Berlin
चट्टान और मौत पर चढ़ाई
चीन के शिचुआन प्रांत के अतुलेर गांव का एक स्कूल शायद दुनिया का सबसे खतरनाक स्कूल है. हर दिन बच्चों को बेहद कड़ी 800 मीटर की चढ़ाई चढ़ स्कूल जाना पड़ता है, वापसी में इसी रास्ते से नीचे भी उतरना पड़ता है.
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तीन घंटे का सफर
स्कूल पहुंचने में बच्चों को करीब डेढ़ घंटा लगता है. पथरीली चट्टान में कुछ जगहों पर लकड़ी के तख्तों वाली सीढ़ी भी लगाई गई है. भीगने के बाद फिसलने वाली इस कामचलाऊ सीढ़ी से गिरकर कई लोगों की मौत हो चुकी है. अब आखिरकार शिचुआन की प्रांतीय सरकार ने स्टील की सीढ़ियां लगाने का वादा किया है.
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अकेला मामला नहीं
अतुलेर का स्कूल अपवाद नहीं है. दक्षिणी चीन के गुआंशी प्रांत में भी बहुत से बच्चों को हर दिन दो घंटे पहाड़ी रास्ते पर चलकर स्कूल पहुंचना पड़ता है. नोग्योंग के इस पहाड़ी रास्ते में कोई रैलिंग वगैरह भी नहीं है.
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निर्धन हैं, पर निराश नहीं
चीन के गुलु नेशनल जियोपार्क के पास बसे पहाड़ी गांव गुलु के बच्चे हर दिन ऐसे ही स्कूल जाते हैं. पहाड़ी पगडंडी वाला यह रास्ता कुछ जगहों पर दो फुट चौड़ा है. एक तरफ चट्टान है तो दूसरी तरफ गहरी खाई और वहां उफनती नदी.
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ट्यूब का सहारा
टायर ट्यूब कितनी अहम होती है, इसका जबाव दुनिया भर में दूर दराज के इलाकों में बिना गाड़ियों के रहने वाले लोगों से पूछिये. फिलिपींस में बच्चे टायरट्यूब में हवा भरकर नदी पार करते हैं. बच्चे इस बात का भी ख्याल रखते हैं, उनकी यूनिफॉर्म गीली न हो.
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रस्सी पर
इंडोनेशिया के ही लेबना हुंग जिले में कई बार आर पार जाने के लिए सिर्फ रस्सी बचती है. नदी पार स्कूल जाने के लिए रस्सी वाले जुगाड़ को पार करना ही पड़ता है. अब वहां पुल बनाया जा रहा है.
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पानी के ऊपर
इंडोनेशिया के बोयोलाली के बच्चे हर दिन पेपे नदी के ऊपर संतुलन साधते हुए 30 मीटर नदी पार करते हैं. साइकिल हो तो और सावधानी से रास्ता पार करना पड़ता है.
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तरह तरह के जुगाड़
फिलिपींस के एक पिछड़े गांव में बच्चे बांस की जुगाड़ु नाव के सहारे रिजाल नदी पारकर स्कूल जाते हैं. ये हाल सिर्फ यहीं का नहीं है, देश के दूसरे पिछड़े इलाकों में भी हालात ऐसे ही हैं.
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जज्बे को सलाम
पढ़ाई के लिए हर दिन ऐसे हालात से सिर्फ गुलु के बच्चे ही नहीं गुजरते हैं. मोरक्को की जाहिरा हर दिन 22 किलोमीटर का पथरीला रास्ता पार करती है. स्कूल आने जाने में ही उसे चार घंटे लगते हैं.
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केंद्र सरकार की एक प्रमुख शैक्षणिक संस्था, एनसीईआरटी और गैर सरकारी संगठन “प्रथम” ने स्कूलों और सीखने की गुणवत्ता पर एक सर्वेक्षण किया जिससे हताश कर देने वाले आंकड़े सामने आए. इस रिपोर्ट के अनुसार आठवीं कक्षा के 25 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो दूसरी क्लास की किताबें पढ़ नहीं पाते हैं. दूसरी क्लास के 32 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो हिंदी अंग्रेजी की वर्णमाला ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं. पांचवीं क्लास के 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने वे बुनियादी कौशल भी नहीं सीखे हैं जो उन्हें दूसरी क्लास में ही सीख लेने चाहिए थे. इससे भी अधिक आठवीं के आधे से अधिक बच्चे बुनियादी गणित करने में भी सक्षम नहीं बन पाए हैं. यही कारण है कि अधिक से अधिक लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं. इसका लाभ उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर निजी स्कूल खुलते जा रहे हैं लेकिन उनकी गुणवत्ता को लेकर भी विवाद रहा है.
जर्मन किशोरों के आविष्कार और खोजें
जर्मनी में टीनएजर्स के लिए हर साल रिसर्च प्रतियोगिता "युगेंड फोर्श्ट" आयोजित होती है. 2016 में 191 युवाओं ने अपनी अपनी खोजों के साथ हिस्सा लिया. प्रस्तुत हुए 110 रिसर्च प्रोजेक्ट्स में से यहां देखिए कुछ चुनिंदा खोजें.
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क्या लड़कों से ज्यादा मददगार लड़कियां?
इस सवाल का जवाब ढ़ूंढने की कोशिश की जर्मनी में फ्रांकेनबर्ग की स्कूली छात्राओं - लॉरा क्रुपके, मारी डिपेल और इजाबेल ड्राथ ने. इन्होंने एक 'अल्टीमेटम गेम' विकसित किया और प्रश्नावली बनाई. 600 से भी ज्यादा हाई स्कूल छात्र, छात्राओं पर टेस्ट कर के नतीजा मिला कि महिलाएं ज्यादा कोऑपरेटिव होती हैं.
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वैसे लड़के भी जानते हैं कोऑपरेशन
इस टीम में यानोश ओट और रॉबिन फॉन वेरडेन ने साथ मिल कर ही एलईडी शूज बनाए हैं. डार्मश्टाट के स्कूली छात्रों ने इंडक्शन कॉयल को स्पोर्ट्स शूज के सोल में लगा दिया. इन जूतों को पहन कर दौड़ने पर इसके छोटे डायनेमो से बैटरी चार्ज हो जाती है.
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आग से बचाने वाला कागज
क्या आप सोच सकते हैं कि कोई कागज आग ना पकड़े बल्कि आग से बचाए. जर्मन शहर कासेल के छात्र यानो शाडे ने रिसाइकिल किए कागज से एक आगरोधी परत बना डाली. इसके लिए इस किशोर ने ज्वलनशील इन्सुलेशन पैनल का आविष्कार किया.
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'ऑगमेंटेड' सरौता
वुपरटाल के छात्र थोमास गेयरब्राख्ट ने होलोग्राफिक प्रोजेक्शन तकनीक का इस्तेमाल किया. इस सरौते का केवल आधा हिस्सा सचमुच है और आधा आभासी है.
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गर्म और ठंडा दोनों कर सकने वाले ब्लाइंड्स
खिड़कियों पर लगने वाले ब्लाइंड्स जिनका गहरे रंग का हिस्सा सूर्य की रोशनी लेकर गर्मी दे और चमकीली सतह वाला हिस्सा गर्मी को दूर रखे, ऐसी है पाइने शहर के छात्र लार्स विटे की ऊर्जा बचाने वाली खोज. खास बात यह भी है कि यह शटर ऑटोमेटिक हैं और कमरे के तापमान के अनुसार एडजस्ट हो सकते हैं.
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आपके घर के लिए 3डी स्कैनर
गिसन-ओस्ट हाइस्कूल के छात्र यूलियान कूलेनकाम्फ ने घरों में आसानी से इस्तेमाल किये जाने लायक 3डी स्कैनर बनाया है. इसे बनाने में उन्होंने एक साधारण वेबकैम और लेसर का प्रयोग किया. उनका असल काम था इस साधारण से उपकरण को काम करने लायक बनाने के लिए सॉफ्टवेयर विकसित करना, जो यूलियान ने खुद कोड किया.
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लीवर कैंसर से बचाने वाली बूटी
नॉए-इजेनबुर्ग के गोएथे स्कूल के छात्रों रोबेर्ट सेजलिंस्की और लुकास हरफ्रिश को ऐसी बूटी ढूंढनी थी. उन्होंने नीले फूलों और रोयेंदार पत्तियों वाले बोराज पौधे से एक जहरीला क्षारीय तत्व निकाला. यहां वे उसी तत्व के अणु 'लाइकोसामिन' का मॉडल पकड़े हुए दिख रहे हैं. अभी इस बूटी पर आगे टेस्ट किया जाना बाकी है, इसलिए फिलहाल इसका सेवन ना करें.
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दरअसल देश को एक नई शिक्षा नीति की जरूरत है. 1986 की शिक्षा नीति भारत में शिक्षा की मार्गदर्शक है. इस नीति की समीक्षा करके 1992 में इसे अपना लिया गया और आज भी यही लागू है. जबकि भारत के आर्थिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इन 24 वर्षों में व्यापक बदलाव आया है. उदारवादी आर्थिक नीतियों और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के आग्रह में सरकारें सामाजिक दायित्वों से मुंह मोड़ रही हैं और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय उनकी प्राथमिकता नहीं रह गए हैं. इतने बड़े पैमाने पर सरकार ने अपनी बुनियादी जवाबदेहियों का पीपीपीकरण कर डाला है. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का ये सरलीकृत फार्मूला, दिख ही रहा है, विफल हो रहा है और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों में इसकी नाकामी जगजाहिर हो चुकी है. इस सबके बीच से एक चुभने वाला सवाल उभरता है कि आखिर वोट देकर ऐसी सरकारें चुनने का क्या औचित्य है जो बच्चों को शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार तक मुहैया नहीं करा पाए.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
क्यों खास है फिनलैंड का शिक्षा मॉडल
शिक्षा और साक्षरता के मामले में विकसित देशों में फिनलैंड का स्थान काफी ऊंचा है. इसका कारण फिनलैंड की असाधारण शिक्षा प्रणाली को बताया जाता है. देखिए क्या हैं वे खास बातें.
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देर से शुरुआत
अंतरराष्ट्रीय स्कूलों की रैंकिंग में लगातार टॉप पर रहने वाले फिनलैंड के स्कूलों की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को आदर्श माना जाता है. पहला कारण बच्चों को ज्यादा लंबे समय तक बच्चे बने रहने देना है. यहां बच्चे करीब सात साल की उम्र में स्कूल जाना शुरु करते हैं जबकि भारत में 3 साल में.
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खेल खेल में पढ़ाई
बच्चों को हर घंटे के हिसाब से कम से कम 15 मिनट खेल के मैदान में बिताने ही होते हैं. ऐसा पाया गया है कि खेल के बाद बच्चों का पढ़ाई में काफी ध्यान लगता है. जिसको ध्यान में रखते हुए फिनलैंड में बच्चों को लगातार कक्षा में नहीं बैठाया जाता.
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परीक्षा का बोझ नहीं
फिनलैंड का राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड बताता है कि "शिक्षा का जोर परखने से अधिक सिखाने पर है." यहां हाई स्कूल में स्कूल छोड़ने के पहले एक अनिवार्य परीक्षा देनी होती है. उसके पहले की क्लासों में शिक्षक बच्चों के असाइनमेंट पर विस्तार से केवल अपना फीडबैक देते हैं, कोई ग्रेड या अंक नहीं.
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शिक्षक का सम्मान
फिनलैंड में शिक्षकों को नए नए प्रयोग करने की पूरी आजादी होती है. शिक्षक का पेशा बहुत इज्जत से देखा जाता है और इसके लिए आपको कम से कम मास्टर्स डिग्री लेना जरूरी होता है. ओईसीडी का सर्वे दिखाता है कि शिक्षक बच्चों पर होमवर्क का बोझ भी नहीं डालते. फिनलैंड के किशोर हफ्ते में औसतन 2.8 घंटे ही होमवर्क में लगाते हैं.
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हर हुनर की कीमत
फिनलैंड में 1960 के दशक में नए शिक्षा सुधार लाए गए. यह सबके लिए मुफ्त और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराने के सिद्धांत पर आधारित है. यहां हर बच्चे पर ध्यान देकर उसके किसी खास हुनर को पहचानने और उसे बढ़ावा देने पर जोर होता है.
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डिजिटल दुनिया के लिए तैयार
दुनिया में कुछ ही देशों में बच्चों को डिजिटल युग के लिए ठीक से तैयार किया जा रहा है. फिनलैंड उनमें से एक है क्योंकि 2016 तक ही यहां के सभी प्राइमरी स्कूलों में कोडिंग उनके पाठ्यक्रम का एक मुख्य विषय होगा. कोडिंग की मदद से ही कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, ऐप और वेबसाइटें बनाई जाती हैं.
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मुफ्त पर बहुमूल्य शिक्षा
फिनलैंड में केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कॉलेज की पढ़ाई भी मुफ्त है. यहां प्राइवेट स्कूल नहीं होते. धीमी गति से सीखने वाले बच्चों के लिए खास संस्थान हैं. सालाना करीब दो प्रतिशत बच्चे इन विशेष संस्थानों में जाते हैं.