बॉन के जलवायु सम्मेलन में आखिरी दिन रात भर माथापच्ची के बाद कुछ मामलों पर सहमति बनी. लेकिन नतीजों ने डूबने का खतरा झेल रहे द्वीय देशों को निराश किया.
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रात भर की चर्चा के बाद जर्मनी के शहर बॉन में संयुक्त राष्ट्र का 23वां जलवायु सम्मेलन खत्म हुआ. सम्मेलन में हिस्सा ले रहे 195 देशों ने जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे देशों के लिए "एडेप्टेशन फंड" बनाने पर रजामंदी जताई. एडेप्टेशन फंड 2001 में हुए क्योटो प्रोटोकॉल का हिस्सा है. इस फंड का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे विकासशील देशों में स्वच्छ ऊर्जा के प्रोजेक्ट्स को फाइनेंस करने के लिए किया जाएगा. लेकिन पैसा किसे दिया जाएगा, सरकार को या सीधे प्रोजेक्ट्स को, यह पेंच अब भी फंसा हुआ है.
हल्की प्रगति के बावजूद बॉन में मौजूद प्रतिनिधियों ने शनिवार सुबह एक दूसरे को बधाई दी. पृथ्वी को बचाने के लिए वो बहुत कुछ भले ही न कर पाएं हो लेकिन 2015 की पेरिस संधि को बचाए रखने में सफल हुए. सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे फिजी के प्रधानमंत्री फ्रांक बैनिमारामा ने कहा, बॉन का नतीजा "हमारे पेरिस समझौते की भावना और उसके दृष्टिकोण और उसकी गति की अहमियत को रेखांकित करता है."
सम्मेलन के बाद चीन के मुख्य वार्ताकार शी जेनहुआ ने कहा, "जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती है. पेरिस संधि ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक ऐतिहासिक गति प्रदान की है, जिसे अब रिवर्स नहीं किया जा सकता." बॉन की कॉन्फ्रेंस में द्वीय देशों की कुछ चिताओं को हल करने पर सहमति बनी. पेरिस संधि के बड़े लक्ष्य हासिल करने के लिए जरूरी कदम अब 2018 में पोलैंड में होने वाले जलवायु सम्मेलन में तय किये जाएंगे.
जलवायु सम्मेलन के दौरान प्रदर्शन क्यों?
जर्मनी के बॉन शहर में जलवायु सम्मेलन कॉप23 के शुरू होने से पहले कई प्रदर्शन हुए हैं. शहर का नजारा किसी मेले जैसा रहा, जहां करीब 20,000 लोग रंग बिरंगी पोशाकों और हाथों में पोस्टर लिये दिखे.
तस्वीर: Reuters/W. Rattay
युवाओं की आवाज
मैं चाहती हूं कि युवा एकजुट हों, अगर हमारा हैंडप्रिंट बढ़ेगा, तो दुनिया में कार्बन फुटप्रिंट घटेगा. आने वाली पीढ़ियां जलवायु परिवर्तन से काफी प्रभावित होंगी, इसे रोकने की जिम्मेदारी हमारी है: भारत की पूजा
तस्वीर: DW/K. Wecker
खुद को बदलो
हमें लगता है कि आप दुनिया में जो बदलाव लाना चाहते हैं, वह तभी मुमकिन है, जब आप खुद उस बदलाव का हिस्सा बन जाएं. हर कोई पर्यावरण के लिए कुछ ना कुछ कर सकता है, आपको बस अपने छोटे छोटे फैसलों पर ध्यान देना है: जर्मनी की एफा
तस्वीर: DW/K. Wecker
बच्चों की खातिर
यह हमारे बच्चों के लिए बेहद जरूरी है, हमें पर्यावरण के लिए खड़ा होना होगा ताकि हम अपने बच्चों का भविष्य ना खराब कर दें: पूरे परिवार के साथ पहुंचे ग्रेगर और टिनी
तस्वीर: DW/K. Wecker
मुनाफा छोड़ो
पर्यावरण को नुकसान इसलिए पहुंच रहा है क्योंकि लोगों को मुनाफे की पड़ी है. सरकारों को अब इसे बदलना होगा, हम यहां बदलाव की मांग के साथ आये हैं: बेल्जियम से आया परिवार
तस्वीर: DW/K. Wecker
उम्र में क्या रखा है
अगर हम दुनिया को बचाने की कोशिश नहीं करेंगे, तो कुछ भी नहीं होगा. हम हर उस चीज के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है: हेल्गा, उम्र 80 साल
तस्वीर: DW/K. Wecker
हर कोने से
हम यह सुनिश्चित करने आये हैं कि प्रशांत महासागर के आसपास रहने वाले लोगों की आवाजें भी सुनी जा रही हैं: जोसेफसेन, पैसिफिक क्लाइमेट वॉरियर
तस्वीर: DW/K. Wecker
कोयले से दूरी
कोयला सस्ता नहीं है, उस पर सब्सिडी होती है, इसलिए सस्ता लगता है. और फिर पर्यावरण को जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसका क्या? पवन और सौर ऊर्जा ही सबसे सस्ते विकल्प हैं: योहानेस, पवन चक्की इंजीनियर
तस्वीर: DW/K. Wecker
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2015 के पेरिस समझौते के तहत 197 देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का वादा किया था. समृद्ध देशों ने 2020 तक 100 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता देने पर हामी भरी थी. 2020 के बाद हर साल 100 अरब डॉलर जमा करने थे. इस रकम से गरीब देशों को स्वच्छ ऊर्जा मुहैया कराने की योजना है. साथ ही प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ भी यह पैसा काम आता. लेकिन कौन कितना पैसा देगा, वित्तीय सहयोग की पारदर्शिता कैसे तय की जाएगी, इन मुद्दों पर इस बार भी रजामंदी नहीं हो सकी.
बॉन की कॉन्फ्रेंस में इस बात पर सहमति जरूर बनी कि उत्सर्जन कम करने का वादा करने वाले देशों की सही से जांच कैसे की जाए. लेकिन इसका पता 2018 में ही चलेगा कि विकसित देश कितना उत्सर्जन कम कर रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पहले ही 2020 तक पेरिस संधि से बाहर निकलने का एलान कर चुके हैं. ज्यादातर लोगों को लग रहा था कि बॉन कॉन्फ्रेंस में अमेरिका नकारात्मक भूमिका निभाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
बॉन सम्मेलन की अध्यक्षता प्रशांत महासागर का द्वीय देश फिजी कर रहा था. उसकी अगुवाई में बॉन पहुंचे द्वीय देशों के नेता विकसित देशों के रुख से मायूस हुए. विकसित देशों ने बड़े बदलावों का विरोध किया. "लॉस एंड डैमेज" जैसे तकनीक बिंदु पर बात करने के लिए तकनीकी विशेषज्ञों का ग्रुप जरूर बना. लेकिन द्वीय देशों के मुताबिक वे अभी ही जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं और उन्हें तुरंत वित्तीय सहायता की जरूरत है. इस पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. पलाऊ के राष्ट्रपति टॉमी रेमेनगेसाऊ ने कहा, "हमारे लिए जीवन और मृत्यु का सवाल है. यह एक नैतिक सवाल है, जिसका नैतिक जवाब मिलना चाहिए."
(कैसे काम करता है कृत्रिम सूर्य)
कैसे काम करता है कृत्रिम सूर्य
जर्मन एयरोस्पेस एजेंसी डीएलआर ने कृत्रिम सूर्य बनाया है. इसकी मदद से वैज्ञानिक तापमान और विकिरण की अंजान दुनिया में झांकते हैं.
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कृत्रिम सूर्य का ढांचा
जर्मन शहर यूलिष में 149 रिफ्लेक्टर लैंपों का यह ढांचा ही कृत्रिम सूर्य है. देखने में भले ही यह सामान्य सा लगे लेकिन इससे 3,000 डिग्री सेल्सियस की गर्मी पैदा की जा सकती है. इससे सूरज की रोशनी के मुकाबले 10 गुना ज्यादा विकिरण निकलता है.
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ताप का खेल
149 शक्तिशाली लैपों की प्रोजेक्टर रोशनी को एक ही जगह पर केंद्रित किया जाता है. सारी रोशनी एक गोल्फ की गेंद के बराबर छोटे आकार पर फोकस की जाती है. और तब जाकर 3,000 डिग्री सेल्सियस की गर्मी पैदा होती है. इतनी गर्मी किसी भी धातु को सेकेंडों में पिघला देती है.
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सूर्य से अलग
आम तौर पर पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्य की रोशनी हर वक्त बदलती रहती है. वायुमंडल में मौजूद नमी, धूल और अन्य तत्व हर वक्त विकिरण में परिवर्तन करते रहते हैं. विशाल लैब के भीतर मौजूद कृत्रिम सूर्य के साथ ऐसा नहीं होता.
तस्वीर: DLR
एक सा माहौल
लैब के भीतर एक जैसा माहौल रहने से विकिरण संबंधी शोध किये जाते हैं. यह देखा जाता है कि अलग अलग रसायनों और प्राकृतिक तत्वों पर विकिरण का कैसा असर पड़ता है. प्रयोग के दौरान रोशनी घटायी या बढ़ायी जा सकती है.
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कोई मैटीरियल नहीं
लेकिन वैज्ञानिकों के सामने एक मुश्किल है. परेशानी यह है कि 3,000 डिग्री के तापमान को बर्दाश्त करने के लिए कौन सा मैटीरियल इस्तेमाल किया जाए? पृथ्वी पर मौजूद ज्यादातर पदार्थ अधिकतम 1,800 या 2,000 डिग्री सेल्सियस तक का ही तापमान बर्दाश्त कर सकते हैं.
तस्वीर: picture alliance/dpa/C. Seidel
रिएक्टर बनाने की चुनौती
ऐसे में 3,000 डिग्री के ताप के लिए रिएक्टर कैसे बनाया जाए, यह चुनौती है. फिलहाल जो रिएक्टर बनाया गया है वह 1,800 डिग्री सेल्सियस का तापमान बर्दाश्त कर सकता है.
तस्वीर: DLR/Markus Hauschild
हाइड्रोजन का निर्माण
असल में 1,400 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर पानी की भाप हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में टूटने लगती है. वैज्ञानिक सौर ऊर्जा और कृत्रिम सूरज के सहारे बड़े पैमाने पर हाइड्रोजन का निर्माण करना चाहते हैं.
तस्वीर: Imago/Science Photo Library
ताप संबंधी प्रयोग
आखेन के निकट यूलिष शहर में डीएलआर ने एक मिरर पार्क भी बनाया है. असल में यह सोलर थर्मल पावर प्लांट हैं. 2,100 विशाल दर्पण सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर एक टावर पर फोकस करते हैं. इससे करीब 1600 से 2000 डिग्री तक तापमान पैदा होता है.
तस्वीर: DW/O. S. Janoti
कृत्रिम सूर्य के लिए बिजली
दर्पण वाले पार्क की मदद से बनी बिजली का इस्तेमाल कृत्रिम सूर्य को चमकाने के लिए किया जाता है. कृत्रिम सूर्य को बहुत ज्यादा बिजली चाहिए. चार घंटे में ही वह चार घरों की सालाना बिजली के बराबर ऊर्जा इस्तेमाल करता है.
तस्वीर: DW/O. S. Janoti
बिजली और गर्मी
इस गर्मी से पानी खौलाया जाता है और उस भाप से बिजली बनती है. इसके साथ ही वैज्ञानिक गर्मी को स्टोर करने के तरीके भी खोज रहे हैं. डीएलआर अब तक गर्मी को एक हफ्ते तक सुरक्षित रख पा रहा है.
तस्वीर: DW/O. S. Janoti
भारत और अफ्रीका के लिए अहम
डीएलआर के वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे थर्मल पावर प्लांट भारत और अफ्रीका के लिए खासे कारगर साबित हो सकते हैं. धूप का सही इस्तेमाल किया जाए तो पांच मेगावॉट बिजली प्रति वर्गमीटर हासिल की जा सकती है.