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शिक्षाएशिया

कॉलेज में दाखिले की मारामारी और बदहाल शिक्षा-तंत्र

शिवप्रसाद जोशी
२१ अक्टूबर २०२०

दिल्ली विश्वविद्यालय के दाखिलों में 100 प्रतिशत की सीलिंग, छात्रों के बेहतर प्रदर्शन के अलावा कॉलेजों की कमी और गुणवत्ता के स्तर की ओर भी इशारा करती है. अन्य राज्यों के छात्रों की ‘दिल्ली चलो’ की चाहत आखिर क्या कहती है?

Indien Bildung Symbolbild UPSC
तस्वीर: Naveen Sharma/ZUMAPRESS/picture-alliance

कोरोना के चलते अधिकांश विश्वविद्यालयों में दाखिले की प्रक्रिया ऑनलाइन है. दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की कटऑफ अधिकांश विषयों में 98 और 100 प्रतिशत के बीच है. बहुत से विषयों में तो 100 प्रतिशत की पहली कटऑफ के साथ दाखिले बंद हो चुके हैं. दिल्ली विवि में स्नातक कक्षाओं के लिए 70 हजार सीटें हैं और पचास प्रतिशत सीटें पहली सूची के आधार पर भरी जा चुकी हैं. हो सकता है इस बार भी हजारों छात्रों को मायूसी हाथ लगे. दाखिलों को लेकर वैसे ये घमासान कोई पहली बार नहीं हुआ है. इस वर्ष कुछ ज्यादा इसलिए नजर आ रहा है क्योंकि महामारी के बीच अंक निर्धारण पद्धति में किए गए बदलावों और उनके तहत दी गयी राहतों के फलस्वरूप 12वीं के नतीजे अप्रत्याशित और रिकॉर्ड स्तर पर बढ़े हुए आए हैं.

सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार विद्यार्थियों ने जिन विषयों में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था, उसके आधार पर अंक दिए गए क्योंकि कुछ विषयों के पेपर रद्द भी करने पड़े थे. इस वर्ष सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा देने वाले करीब 12 लाख छात्रों में साढ़े दस लाख से कुछ अधिक छात्र पास हुए थे. 95 प्रतिशत और उससे अधिक नंबर लाने वाले छात्रों की संख्या पिछले साल 17690 थी, इस बार थी 38686. यानी सौ प्रतिशत से भी ज्यादा. 90 से 95 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों की संख्या इस बार करीब एक लाख 58 हजार थी, जबकि पिछले साल थी 94 हजार. अंकों में ये उछाल सिर्फ सीआईसीएसई और आईबी बोर्डों के साथ साथ राज्य सरकारों के शिक्षा बोर्डों में भी हैं जिनकी परीक्षाओं में पास प्रतिशत की दर इस बार बढ़ी हुई थी. सभी बोर्डो के तहत कुल एक करोड़ से अधिक छात्र 12वीं परीक्षा में बैठे थे.

गार्गी कॉलेजतस्वीर: DW/A. Ansari

लोकप्रिय हैं कुछ कॉलेज और यूनिवर्सिटी

जब अंकों की ये बरसात हो रही थी तो ये मुद्दा तभी उभर आया था कि इस बार दिल्ली विवि जैसे संस्थानों में दाखिले की होड़ मचेगी. 91 कॉलेजों, 86 विभागों, 20 केंद्रों, 3 संस्थानों और 70 हजार सीटों वाले दिल्ली विश्वविद्यालय में करीब ढाई लाख बच्चों ने दाखिले के लिए अर्जी दी. ऊंची कटऑफ की एक वजह इंजीनियरिंग, मेडिकल और लॉ कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं में देरी को भी बताया जा रहा है. एक वजह ये भी बतायी गयी है कि विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने वाले संभावित छात्रों ने इस बार महामारी के चलते दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे घरेलू प्रतिष्ठित संस्थानों का ही रुख किया. माना तो ये भी जा रहा था कि सुरक्षा और सुविधा देखते हुए छात्र अपने अपने शहरों या राज्यों में ही दाखिला लेंगे लेकिन इतने अधिक आवेदनों को देखते हुए ये बात सही नहीं निकली. ऑनलाइन आवेदन की सुविधा और महामारी के चलते निकट भविष्य में ऑनलाइन पढ़ाई की संभावना ने भी छात्रों को दिल्ली यूनिवर्सिटी की ओर आकर्षित किया. धारणाएं ये भी है कि दिल्ली में अधिक सहज, सुगम, साधनसंपन्न सामाजिक और शैक्षणिक पर्यावरण मिल सकता है और डीयू की डिग्री का मतलब रोजगार के बेहतर अवसर है.

डीयू के मोह से ये भी स्पष्ट होता है कि इस दिशा में केंद्र और राज्यों की ओर से पर्याप्त और प्रभावी पहल नहीं हुई है जिससे छात्रों का अनावश्ययक माइग्रेशन यथासंभव रोका जा सके. एक बात ये भी है कि अगर 12वीं की परीक्षा के नतीजे बहुत अच्छे आ रहे हैं तो सीटें और कॉलेजों की संख्या भी उस हिसाब से बढ़नी चाहिए. एक आंकड़े के मुताबिक दिल्ली में हर साल करीब ढाई लाख विद्यार्थी 12वीं की परीक्षा पास करते हैं. उनमें से करीब सवा लाख छात्रों को ही दिल्ली के कॉलेजों में दाखिला मिल पाता है. सीटें कम हैं और छात्रों की संख्या अधिक. ये हाल कमोबेश सभी राज्यों में हैं, उन राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों में तो दाखिले की वैसी ही होड़ है जो अकादमिक रुतबे और संसाधनों की सुविधा के मामले में डीयू के समान या उससे भी अव्वल हैं.

80-90 प्रतिशत या शत-प्रतिशत अंक न ला पाने वाले विद्यार्थियों के प्रति अघोषित नाइंसाफी आखिर कैसे दूर होगी. शिक्षा न सिर्फ बढ़ते खर्च के बोझ से बल्कि अंकों के खौफ से भी डगमगा रही है. ज्यादा से ज्यादा अंकों की ये मारामारी एक डरा हुआ और व्यग्र समाज बना चुकी है. अंकों में अंतर उच्च शिक्षा में एक नया विभाजन भी पैदा करता रहा है. इसे सब जानते हैं सरकार से लेकर अकादमिक विशेषज्ञों तक, लेकिन सभी लाचार नजर आते हैं. समस्या के कई बिंदु हैं, सीटों की तुलना में आवेदनों की अधिक संख्या, 12वीं की मूल्याकंन पद्धति की कमजोरियां, ओवर एडमिशन से बचने के लिए कॉलेजों की ऊंची कटऑफ, गुणवत्तापूर्ण सरकारी विश्वविद्यालयों की कमी.

दिल्ली यूनिवर्सिटी की आर्ट्स फैकल्टीतस्वीर: Mana Vatsyayana/Getty Images/AFP

दिल्ली में नए कॉलेजों की समस्या

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नए कॉलेजों की स्थापना के लिए 1927 के दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन की मांग की है. उनके मुताबिक अधिनियम में लिखा है कि अगर दिल्ली में कोई नया कॉलेज खुलता है तो वो डीयू से ही संबंद्ध किया जा सकता है, किसी और यूनिवर्सिटी से नहीं. लेकिन पिछले 30 साल में डीयू ने कोई नया कॉलेज नहीं खोला है और ये संभव भी नहीं है कि क्योंकि उनकी क्षमता पूरी हो चुकी है. एक मामूली सा संशोधन 1998 में हुआ था जिसके मुताबिक डीयू के अलावा नए कॉलेज आईपी यूनिवर्सिटी से भी संबद्ध किए जा सकते हैं. लेकिन वहां भी क्षमता पूरी हो चुकी है.

सरकारी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की गुणवत्ता को बेहतर बनाया जाए, राज्य उच्च शिक्षा में और अधिक संसाधन लगाने और निवेश के लिए आगे आएं. हर राज्य अपने यहां कम से कम दो या तीन नामीगिरामी विश्विविद्यालयों को खड़ा करने या संवारने का एक वृहद और संवेदनशील खाका शिक्षा विशेषज्ञों, अकादमिकों, शिक्षकों और नीति नियोजकों के साथ मिलकर तैयार करे. यानी ये काम इतने व्यापक, बहुआयामी और गहन स्तर पर किए जाने की जरूरत है कि छात्र डीयू, जेएनयू या किसी और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का मुंह न ताके बल्कि अपने राज्य में ही दाखिले के लिए उत्सुक बनें. इस काम में अकादमिक और शैक्षणिक अनुभवों वाले नयी और पुरानी पीढ़ी के जानकार शिक्षकों की एक समन्वित और पारदर्शी टीम भी गठित की जा सकती है, जो उच्च शिक्षा के बारे में और विषयों के बारे में एक जागरूकता अभियान छात्रों के बीच चला सके. कुछ इस तरह का अभियान जिसमें सिर्फ 90 या सौ अंक लाने वालों की जगह न हो बल्कि उत्साही और बेहतरी का सपना संजोने वाले सभी विद्यार्थियों को समावेशित किया जा सके.

क्या व्यावहारिक रूप से ऐसा हो पाना संभव है कि उच्चशिक्षा के क्षेत्र में चुनिंदा संस्थानों और उच्च अंकों का वर्चस्व टूट सके. इस विभाजन को खत्म करने के लिए जरूरी है कि सरकारें प्रतिबद्धता दिखाते हुए शिक्षा का बजट बढ़ाएं, शिक्षा को सार्वभौम बनाएं और उसके निजीकरण की आंधी को हवा न दें. जाहिर है इसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही करनी होगी. सवाल यही है कि क्या सरकारें शिक्षा के लिए इतना समय और संसाधन खर्च करने को तैयार हैं? क्या एनईपी 2020 में ये भावना परिलक्षित होती है?

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