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कोख बदल कर मां बनने में दिक्कत क्या है

१५ नवम्बर २०१८

कई औरतों का मां बनने का सपना इसलिए पूरा नहीं हो पाता क्योंकि उनके शरीर में गर्भाशय यानी यूटरस ही नहीं होता है. कई बार यूटरस होने के बाद भी वह ठीक से काम नहीं कर पाता. ऐसे में, यूटरस ट्रांसप्लांट एक विकल्प है.

Schwangere Frau hält Ihren Bauch
तस्वीर: Imago/PhotoAlto/F. Cirou

गर्भाशय को आम भाषा में कोख कहते हैं. स्त्री रोग विशेषज्ञ सारा ब्रुकर के लिए महिलाओं के कैंसर ग्रस्त गर्भाशय को ऑपरेशन कर निकालना नियमित काम है. गर्भाशय के निकलने के साथ ही उस महिला के मां बनने की उम्मीद खत्म हो जाती है. लेकिन ब्रुकर ने साल 2016 में जर्मनी का पहला यूटरीन ट्रांसप्लांट किया. यह एक पेचीदा ऑपरेशन था.

वह कहती हैं कि जिन महिलाओं का गर्भाशय कैंसर या किसी और वजह से निकाला जा चुका है, वे अगर मां बनना चाहें तो उन्हें गर्भाशय प्रत्यारोपण कराना होगा. डॉक्टर ब्रुकर ने जब पहली बार इस तरह का ऑपरेशन किया था तो स्वीडन के डॉक्टरों ने उनकी मदद की थी क्योंकि उन्हें इसका तजुर्बा था. यूटरीन ट्रांसप्लांट के जरिए किसी बच्चे का जन्म पहली बार 2014 में स्वीडन में ही हुआ था. और इस बच्चे का नाम रखा गया विन्सेंट.

तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/McPHOTOf

इस तरह के प्रत्यारोपण में गर्भाशय देने और लेने वाले, दोनों ही लोगों को बड़े ऑपरेशन से गुजरना पड़ता है. पूरी प्रक्रिया में दस घंटे तक लग सकते हैं और इसमें जोखिम भी बहुत होता है. अधिकतर मामलों में मां अपनी बेटी को गर्भाशय डोनेट करती है ताकि वह भी मां बन सके. इस तरह के ऑपरेशन में यूटरस के साथ साथ फैलोपियन ट्यूब्स को भी बाहर निकाला जाता है. इसके लिए उस धमनी को खोजना होता है जो गर्भाशय तक खून पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार होती है.

प्रोफेसर सारा ब्रुकर बताती हैं, "हम तभी गर्भाशय प्रत्यारोपण कर सकते हैं अगर मरीज का अंडाशय ठीक से काम कर रहा हो. ये बहुत जरूरी है कि उनके पास अपनी ओवरी हों और वो ठीक से काम भी कर रही हों, ताकि वो जो बच्चा पैदा करें, जेनेटिक रूप से वह उन्हीं का हो. इसके लिए उनके पास अपने खुद के अंडाणु होना जरूरी हैं."

प्रत्यारोपण के बाद मरीज के अंडाणु ले कर उन्हें इनविट्रो तकनीक के जरिए फर्टिलाइज किया जाता है. फिर भ्रूण को ट्रांसप्लांट किए गए गर्भाशय में डाला जाता है. दूसरे अंग प्रत्यारोपण की तरह यहां भी मरीज को इम्यून सप्रेसेंट दिए जाते हैं ताकि शरीर नए अंग को स्वीकारने में दिक्कत ना करे. आगे चल कर मां और बच्चे पर इसका क्या असर होता है,  इस पर अभी ज्यादा शोध नहीं हुआ है. प्रोफेसर सारा ब्रुकर ने अपने पहले ट्रांसप्लांट के नतीजों को श्टुटगार्ट में हुए एक गायनाकॉलोजी सम्मलेन में पेश किया.

गर्भाशय प्रत्यारोपण पर विवाद

इस तकनीक पर विवाद भी हो रहा है क्योंकि ये लिवर और हार्ट ट्रांसप्लांट की तरह जीवन बचाने के लिए नहीं किया जाता. सारा ब्रुकर कहती हैं, "कौन तय करेगा कि किस औरत को अपनी पसंद का बच्चा मिले और किसे नहीं? गर्भाशय प्रत्यारोपण के फायदे भी हैं,  नुकसान भी. हमें जर्मनी में इस पर खुल कर चर्चा करने की जरूरत है." हालांकि अभी तक इस पर कोई चर्चा शुरू नहीं हुई है.

जर्मन एथिक्स काउंसिल ने भी अब तक इस मुद्दे को नहीं उठाया है. सवाल यह है कि क्या वाकई इस तरह के ट्रांसप्लांट की जरूरत है. एक तरफ मेडिकल साइंस है तो दूसरी तरफ नैतिकता और दोनों के बीच टकराव जारी है.  

जर्मनी में एथिक्स काउंसिल की सदस्य प्रोफेसर जीग्रिड ग्राउमन प्रजनन से जुड़ी तकनीकों की नैतिकता और उनके सामाजिक असर जैसे सवालों के जवाब खोजने में लगी हैं. प्रोफेसर ग्राउमन का कहना है, "मैं गर्भाशय प्रत्यारोपण को नैतिक रूप से सही नहीं मानती. उस पर अब भी टेस्ट किए जा रहे हैं. उसकी पूरी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है जिससे आपको पता चले कि इसका नतीजा क्या होगा. हो सकता है कि शरीर ट्रांसप्लांट किए गए गर्भाशय को स्वीकार ही ना करे. ऐसे में अगर मरीज गर्भ धारण कर ले तो भी बच्चे पर जोखिम बना रहता है. 

इस तकनीक के जरिए अब तक दुनिया भर में दर्जन भर बच्चे पैदा हो चुके हैं लेकिन जर्मनी में एक भी नहीं. कानूनी पेचीदगियों को लेकर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है. ट्यूबिंगन में हुए प्रत्यारोपण को इलाज की कोशिशों के तौर पर देखा गया था और इसलिए इसे मेडिकल कॉलेज के एथिक्स कमीशन या जर्मन मेडिकल एसोसिएशन की मंजूरी की जरूरत नहीं पड़ी थी. हालांकि इसकी जानकारी सब को दी गई थी. कानूनी तौर पर इस तरह के ट्रांसप्लांट पर रोक नहीं है लेकिन साफ साफ कोई नियम भी नहीं है.

प्रोफेसर ग्राउमन के अनुसार रिसर्च के मूल सिद्धांतों को दांव पर रखा जा रहा है. इलाज की कोशिशों की जरूरत तब पड़ती है जब इलाज के लिए या जान बचाने के लिए और कोई रास्ता ना बचा हो. ग्राउमन ने साफ साफ कहा, " इस मामले में हम ऐसे ट्रायल की बात कर रहे हैं जिसकी जर्मनी में इजाजत ही नहीं है. ये क्लिनिकल ट्रायल का वो तरीका नहीं है जिसमें आप एक कदम से दूसरे की ओर बढ़ते हैं, बल्कि यहां पहला कदम ही इनवेजिव सर्जरी के रूप में लिया जा रहा है. मेरा सुझाव है कि रिसर्चर पहले इस पर शोध करें, जैसा कि क्लिनिकल ट्रायल में होता है, बजाय इसके कि वो एक मरीज पर काम करें.

हेलसिंकी में मौजूद वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन का भी यही कहना है. यहां की एथिक्स पॉलिसी के आखिरी अनुच्छेद के अनुसार कोई भी डॉक्टर किसी मरीज पर उसकी सहमति से ऐसे तरीके अपना सकता है जिन्हें सिद्ध नहीं किया गया है लेकिन ऐसे में जल्द से जल्द शोध के जरिए इस तरीके को सिद्ध करना जरूरी है.

तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

यूटरीन ट्रांसप्लांट पर अमेरिका, एशिया और यूरोप के कई देशों में शोध जारी है. लेकिन जर्मनी में ऐसा नहीं हो रहा है. यहां के डॉक्टरों का मानना है कि गर्भाशय प्रत्यारोपण उन महिलाओं के लिए अच्छा विकल्प है जो इसके बिना पैदा हुई हैं या फिर जिन्होंने किसी हादसे में उसे खो दिया है. सारा ब्रुकर ने कहा, "अगर आप कुछ नया करना चाहते हैं, अगर आप चिकित्सा की दुनिया में आगे बढ़ना चाहते हैं, अगर आप लोगों की मदद करना चाहते हैं, तो आपको नई चीजें आजमानी होंगी, आपको शोध के मामले में कुछ नया करना होगा और उसमें विश्वास भी दिखाना होगा."

लेकिन ग्राउमन की राय है, "सिर्फ मां बनने का सपना पूरा कर देने से आप इसे सही नहीं ठहरा सकते. बच्चे की ख्वाहिश आपको मजबूर कर सकती है. जाहिर है, आपकी प्राथमिकता ऐसी बीमारियों का इलाज करना होनी चाहिए जिनसे जीवन को खतरा है. लेकिन इस तरह की ख्वाहिशें पूरा करने के लिए हम कहां तक जाएंगे, ये एक ऐसा सवाल है जिसकी नैतिकता पर विवाद है."

जर्मन शहर ट्यूबिंगन में अब तक तीन महिलाओं का यूटरीन ट्रांसप्लांट किया जा चुका है और एक महिला के गर्भाशय में तो आईवीएफ के जरिए भ्रूण भी डाला जा चुका है. यानी जल्द ही जर्मनी में भी गर्भाशय के प्रत्यारोपण के ज़रिए एक बच्चा जन्म लेने वाला है.

रिपोर्ट: डीटमार क्लुम्प/एनआर

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