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भारतीय रेल में आमूलचूल बदलाव की तैयारी

प्रभाकर मणि तिवारी
७ जुलाई २०२०

भारत में रेल यातायात पर सरकार का वर्चस्व है. लेकिन दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क अब कोरोना को बोझ तले कराह रहा है. उसे अक्षमता के दलदल से निकालने के लिए उसके कुछ हिस्सों को प्राइवेट हाथों में सौंपने की योजना है.

Indien Delhi Budget Eisenbahn
तस्वीर: Uni

अपनी लेटलतीफी, अक्सर होने वाले हादसों के कारण सुरक्षा पर उठने वाले सवालों और कोरोना से उपजे वित्तीय संकट की वजह से अब भारतीय रेल के स्वरूप में आमूलचूल बदलाव की तैयारियां की जा रही हैं. इसके तहत हजारों पदों में कटौती करने के अलावा नई नियुक्तियों पर रोक लगाने और देश के कई रूट पर ट्रेनों को निजी हाथों में सौंपने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं. इस कवायद के चौतरफा विरोध के बीच रेलवे ने सफाई दी है कि सुरक्षा से जुड़े पदों में कोई कटौती नहीं की जाएगी. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र सरकार एक सोची-समझी रणनीति के तहत विदेशों की तर्ज पर रेलवे को निजी हाथों में सौंपने में जुटी है.

ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि इससे आम लोगों के हितों की कहां तक रक्षा हो सकेगी? इसकी वजह यह है कि कोई पौने दो सौ साल से देश की ज्यादातर आबादी के लिए भारतीय रेल जीवनरेखा की भूमिका निभाती रही है. निजी हाथों में जाने के बाद सुविधाओं की तुलना में किराए में असामान्य बढ़ोतरी तय मानी जा रही है. यही वजह है कि तमाम रेलवे कर्मचारी यूनियनों ने इस फैसले के खिलाफ कमर कस ली है. हालांकि सुरक्षा के मामले में वर्ष 2019-2020 के दौरान लेवल क्रासिंग पर एक भी हादसा नहीं होने की दलील देते हुए सुरक्षा के मामले में रेलवे अपनी पीठ जरूर थपथपा रही है.

सबसे बड़ा नियोक्ता

भारतीय रेल देश में सबसे बड़ा नियोक्ता है. फिलहाल इसमें 12 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं. रेलवे के कुल राजस्व का लगभग 65 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च होता है. वर्ष 2018 से रेलवे ने सुरक्षा वर्ग में 72,274 और गैर-सुरक्षा में 68,366 खाली पदों का ऐलान किया है. फिलहाल रेलवे में लगभग 1.41 लाख खाली पद हैं. बीते सप्ताह रेलवे ने तमाम जोन के महाप्रबंधकों को भेजे पत्र में कहा था कि वे नए पदों का सृजन रोक दें और खाली पदों में भी पचास प्रतिशत की कटौती करें. लेकिन इस पर पैदा होने वाले विवाद के बाद अगले दिन ही उसे इस पर सफाई देनी पड़ी. उसने अपनी सफाई में कहा है कि आने वाले दिनों में उसके कुछ कर्मचारियों की जॉब प्रोफाइल में बदलाव हो सकता है, लेकिन उनकी नौकरियां नहीं जाएंगी.

कोरोना संकट में भी अहम भूमिकातस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

रेलवे बोर्ड के महानिदेशक आनंद एस. खाती का कहना था, "भारतीय रेल कर्मचारियों की मौजूदा तादाद में कटौती नहीं कर रही है. नई तकनीक आने की वजह से कुछ लोगों का काम बदल सकता है. इसके लिए उनको ट्रेनिंग भी दी जाएगी. लेकिन किसी भी कर्मचारी की नौकरी नहीं जाएगी.” उन्होंने कहा कि भारतीय रेल बिना कौशल वाली नौकरियों से कौशल वाली नौकरियों की ओर जा रही हैं. सही व्यक्ति को सही काम दिया जाएगा. लेकिन रेलवे ने तमाम जोन के महाप्रबंधकों को पत्र क्यों भेजा है? इस सवाल पर उन्होंने कहा कि इसका मकसद उन पदों पर भर्ती से बचना है जहां कोई काम नहीं है. फिलहाल मौजूदा भर्ती प्रक्रिया जारी रहेगी और उन पर नियुक्तियां भी की जाएंगी. जिन पदों पर भर्ती के लिए में विज्ञापन जारी हो चुके हैं, उनमें कोई बदलाव नहीं होगा.

निजीकरण का एलान

खाली पदों में कटौती और नई भर्तियां रोकने के फैसले के साथ ही रेलवे ने अब निजीकरण की राह पर भी ठोस कदम बढ़ा दिया है. हालांकि तेजस जैसी ट्रेनों के साथ वह इसकी शुरुआत पहले ही कर चुकी है. लेकिन अब देश के 109 रूटों पर 151 ट्रेनों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी है. यह काम वर्ष 2023 से शुरू होगा और संबंधित कंपनियों को 35 साल के लिए संचालन का जिम्मा सौंपा जाएगा. इसके ऐलान के साथ ही टाटा और अडानी समूह जैसे कई व्यापारिक घराने इसमें दिलचस्पी दिखाने लगे हैं. संचालन के लिए चुनी जाने वाली कंपनियों को रेलवे को विभिन्न मद में एक निश्चित रकम देनी होगी. इसके लिए निजी क्षेत्र को तीस हजार करोड़ रुपए का निवेश करना होगा. निजीकरण करने के पीछे रेलवे की दलील है कि इससे रेलवे में नई तकनीक आएगी, मरम्मत औऱ रख-रखाव का खर्च कम होगा, ट्रेन के यात्रा का समय घटेगा, रोजगार को बढ़ावा मिलेगा और यात्रियों को विश्वस्तरीय सुविधाएं मुहैया कराई जा सकेंगी. फिलहाल रेलवे 2800 मेल और एक्सप्रेस ट्रेनों का संचालन करती है.

एक हॉल में ट्रेनों की दुनिया

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निजीकरण के पक्ष में सरकार और रेलवे की ओर से दी जा रही दलीलों में चाहे जितना दम हो इसका असर यात्री किराए पर पड़ना तय है. मिसाल के तौर पर दिल्ली से लखनऊ के बीच चलने वाली तेजस एक्सप्रेस का किराया इसी रूट पर चलने वाली राजधानी एक्सप्रेस से कहीं ज्यादा है. यही वजह है कि इस फैसले का चौतरफा विरोध होने लगा है. देश की आजादी के बाद से ही तमाम सरकारें अब तक रेलवे का संचालन सामाजिक जिम्मेदारी के तौर पर करती रही हैं. इसके लिए किराए में भारी-भरकम सब्सिडी दी जाती है. वैसे, बड़े पैमाने पर ट्रेनों के निजीकरण की योजना के संकेत तो कुछ समय पहले से ही मिलने लगे थे जब अचानक हर टिकट पर छपने लगा कि किराए में सरकारी सब्सिडी 43 फीसदी है. इस सब्सिडी की वजह से सरकार को सालाना 30 हजार करोड़ का नुकसान होता है.

आजाद भारत में रेल का विकास

वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के बाद देश में रेलवे का कामचलाऊ नेटवर्क था. उस समय कुल रेलवे लाइनों का 40 फीसदी हिस्सा पाकिस्तान में चला गया था. ऐसे में कई लाइनों को भारतीय इलाकों के जरिए जोड़ कर संचालन के लायक बनाना पड़ा. वर्ष 1952 में सरकार ने मौजूदा रेल नेटवर्क को जोन में बदलने का फैसला किया. तब कुल छह जोन बनाए गए थे. अर्थव्यवस्था विकसित होने के साथ सभी रेलवे उत्पादन इकाइयां स्वदेशी निर्माण करने लगीं और रेलवे ने अपनी लाइनों को बदलना शुरू कर दिया. वर्ष 2003 में मौजूदा जोन से काट कर छह और जोन बनाए गए और 2006 में एक और जोन जोड़ा गया. भारतीय रेलवे में अब कोलकाता मेट्रो समेत 17 जोन हैं. वर्ष 2018–19 के आकड़ों के अनुसार रेलवे को 1,972 अरब रुपये के राजस्व पर 60 अरब रुपये का शुद्ध मुनाफा हुआ था. निजीकरण के फैसले का विरोध करने वालों की दलील है कि निजी हाथों में जाते ही सब्सिडी तो खत्म होगी ही, रखरखाव और सेवा के नाम पर किराए भी बेतहाशा बढ़ जाएंगे. यानी आम लोगों पर दोहरी मार पड़ेगी.

सुरक्षा बड़ा मुद्दातस्वीर: Reuters/A. Abidi

विभिन्न कर्मचारी यूनियनों और मजदूर संगठनों ने इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया है. रेलवे बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अमरेंद्र कुमार ने अपने एक लेख में कहा है, "सुरक्षा पर रेलवे के तमाम दावों के बावजूद अब भी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है. वर्ष 2019-20 के दौरान हुए 55 हादसों में से 40 रेलवे कर्मचारियों की गलती या लापरवाही के चलते हुए थे. यह गंभीर चिंता का विषय है.” हालांकि रेलवे ने साफ किया है कि सुरक्षा से जुड़े पदों में कोई कटौती नहीं की जाएगी. रेलवे बोर्ड के चेयरमैन वी. के. यादव कहते हैं, "निजी कंपनियां महज पांच फीसदी ट्रेनों का ही संचालन करेंगी. इन ट्रेनों का किराया इन मार्गों के हवाई और बस किराये के अनुरूप प्रतिस्पर्धी होगा. निजी कंपनियों के हाथों में जाने पर रेलगाड़ियों को तेज गति से चलाने के साथ ही रेल डिब्बों की तकनीक में भी बदलाव आएगा.”

लेकिन सीपीएम के मजदूर संगठन सीटू के नेता श्यामल मजुमदार कहते हैं, "मौजूदा परिस्थिति में पदों में कटौती और नई भर्तियां रोकने का प्रतिकूल असर हो सकता है. उसके अलावा कोरोना महामारी के दौरान इस फैसले से रेलवे की नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक है.” ऑल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के महामंत्री शिव गोपाल मिश्रा कहते हैं, "हम किसी भी हालत में भारतीय रेलवे का निजीकरण नहीं होंने देंगे. निजीकरण ही रेलवे का इलाज नहीं है. तकनीक में सुधार और मौजूदा कर्मचारियों की दक्षता बढ़ा कर भी रेलवे की हालत सुधारी जा सकती है.” लेकिन केंद्र के रवैए से साफ है कि वह इस मामले में अपने कदम पीछे नहीं खींचने वाली है.

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