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समाज

कोरोना: भोपाल में दोहरी त्रासदी

२३ जून २०२०

गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि भोपाल में अभी तक कोविड-19 की वजह से जितने लोगों की जान गई है, उनमें से कम से कम 75 प्रतिशत लोग 1984 की गैस लीक त्रासदी के पीड़ित थे. क्या इनकी मौत सरकार की लापरवाही से हुई?

Bhopal Indien Gas Chemiekatastrophe Explosion
तस्वीर: picture-alliance/EPA/Sanjeev Gupta

भारत में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतों में यूं तो हर शहर की अपनी ही कहानी है, लेकिन भोपाल में समस्या दोहरी त्रासदी की है. भोपाल के कुछ जाने माने गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि शहर में अभी तक कोविड-19 की वजह से जितने लोगों की जान गई है, उनमें से कम से कम 75 प्रतिशत लोग 1984 की गैस लीक त्रासदी के पीड़ित थे.

भोपाल में अब तक महामारी की वजह से 85 लोगों की मौत हो चुकी है और गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए काम करने वाले चार संगठनों ने उनमें से 60 की मौत से संबंधित जानकारी हासिल की है. संगठनों का दावा है कि इन 60 में से कम से कम 45 गैस कांड के पीड़ित थे. इसके अलावा, संगठनों ने यह भी दावा किया है कि इनमें से 81 प्रतिशत रोगियों में ऐसी सहरूग्णता थी जिसका संबंध घातक मिथाइल आइसोसायनेट गैस से संपर्क में आने से था.

इन संगठनों ने मिल कर एक रिपोर्ट तैयार की है और उसे कुछ मांगों के साथ राज्य सरकार को सौंपा है. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कोविड-19 की वजह से मरने वाले गैस पीड़ितों में से 75 प्रतिशत ऐसे थे जिनकी मृत्यु अस्पताल में भर्ती करवाने के पांच दिन के अंदर हो गई. इसके अलावा रिपोर्ट का यह भी दावा है कि मरने वालों में इनके अतिरिक्त पांच प्रतिशत गैस पीड़ितों के बच्चे भी थे. संगठनों का यह भी कहना है कि कोविड-19 की वजह से मरने वालों में जिन लोगों की उम्र 60 वर्ष से कम थी उनमें से 85 प्रतिशत लोग गैस लीक से प्रभावित थे.

दिसंबर 1984 की इस तस्वीर में गैस त्रासदी के उन पीड़ितों को देखा जा सकता है जिनकी आंखों की रौशनी चली गई थी.तस्वीर: Getty Images/AFP

आबादी में एक-तिहाई, मृतकों में तीन-चौथाई

इन चार संगठनों में से एक भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा ने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्होंने शहर में एक भी मौत होने से पहले मार्च में ही सरकार को इस बारे में आगाह किया था लेकिन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. ढींगरा ने कहा  कि आज हालात ये हैं कि शहर की कुल आबादी में गैस त्रासदी के पीड़ितों का अनुपात एक-तिहाई है लेकिन कोविड-19 के वजह से मारे गए कुल मरीजों में गैस पीड़ितों का अनुपात तीन-चौथाई है.

ये आंकड़े इस तथ्य की तरफ इशारा कर रहे हैं कि भोपाल में गैस पीड़ितों के हालात को लेकर अभी तक सरकार में जो समझ थी उसका फिर से आकलन करने की जरूरत है. ये आंकड़े यह साबित करते हैं कि गैस त्रासदी के 35 सालों बाद आज भी गैस लीक से पीड़ित व्यक्ति चिंताजनक रूप से बीमार हैं. इनमें से जिन 45 मरने वालों के बारे में संगठनों ने जानकारी जुटाई है वो उन 5,21,322 लोगों में से हैं जो त्रासदी में बच गए थे लेकिन जिन्हें सरकार ने ऐसे रोगियों की श्रेणी में रखा था जिन पर गैस लीक का अस्थायी या कम असर हुआ था और जिन्हें लंबे समय तक देखभाल की जरूरत नहीं थी.

गैस लीक पीड़ितों के लिए काम करने वालों के लिए ये आंकड़े चौंकाने वाले नहीं हैं. अधिकतर गैस पीड़ितों में रोगों से लड़ने की शक्ति कम होती है और इनमें हृदय-रोग, गुर्दों और फेफड़ों से जुड़ी समस्याएं, थैलसीमिया आदि जैसे रोग आम हैं. ऐसे सहरूग्णता वाले लोग कोविड-19 के सामने विशेष रूप से कमजोर होते हैं. भोपाल में महामारी के फैलने के शुरूआती दिनों से ही एक्टिविस्ट गैस पीड़ितों में संक्रमण को ट्रैक कर रहे थे. मारे जाने वाले सबसे पहले मरीजों में तो सब के सब गैस पीड़ित ही थे.

भोपाल में अब वीरान पड़ी यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी.तस्वीर: DW/O. Singh Janoti

संगठनों ने राज्य सरकार से मांग की है कि इन सभी मरने वालों को उस श्रेणी में डाला जाए जिसमें उन लोगों के नाम हैं जिन्हें गैस लीक से स्थायी क्षति पहुंची थी, ताकि इनके परिवार को सही मुआवजा मिल सके. अस्थायी क्षति की श्रेणी के लोगों को सिर्फ 25,000 रुपए मुआवजा मिलता है, जबकि स्थायी क्षति वालों को पांच लाख रुपए तक मिले हैं. ढींगरा और उनके साथियों की मांग है कि कोविड-19 से मरने वाले इन गैस पीड़ितों के परिवारों को छह लाख रुपए मुआवजा दिया जाए.

एक और लापरवाही

गैस पीड़ितों की तरफ सरकार की लापरवाही का एक नमूना भोपाल मेमोरियल अस्पताल भी है. ये गैस पीड़ितों के लिए शहर का एक मात्र मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल है. सरकार ने 22 मार्च को इसे अचानक से कोविड-19 अस्पताल बना दिया लेकिन आगे के दिशा-निर्देश नहीं दिए. इसकी वजह से लगभग अगले एक महीने तक यहां ना गैस पीड़ितों का ही इलाज हुआ और ना कोविड-19 मरीजों को. इस दौरान पहले से भर्ती कई मरीजों को आनन-फानन डिस्चार्ज कर दिया गया और उनमें से कई की या तो अपने घर में या किसी दूसरे अस्पताल में मौत हो गई.

एक्टिविस्टों ने जब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तब जा कर अस्पताल को फिर से गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए नामित किया गया. ढींगरा कहती हैं कि इसके बावजूद आज भी अस्पताल कोविड-19 की जांच के बिना गैस पीड़ितों का इलाज नहीं कर रहा है.

गैस पीड़ितों द्वारा विरोध प्रदर्शन का एक बैनर.तस्वीर: DW/I. Bhatia

गैस पीड़ितों की लड़ाई पर असर

कोविड-19 से हुई गैस पीड़ितों की मौत की उनके संबंध में चल रही एक बड़ी लड़ाई में अहम् भूमिका है. सरकारी दस्तावेजों में त्रासदी से आहत कुल 5,60,000 लोगों में से 93 प्रतिशत, यानी करीब 5,20,000 गैस पीड़ितों को अस्थायी/कम असर वाले पीड़ित बताया गया है, जबकि एक्टिविस्टों का मानना है कि सभी पीड़ितों पर स्थायी या लंबे समय तक रहने वाला असर पड़ा था. एक्टिविस्टों द्वारा लड़ी गई एक लंबी लड़ाई के बाद 2010 में केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ने सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव याचिका दायर करके यह बात मानी थी और कहा था कि वे फिर से स्थायी असर वाले पीड़ितों की गिनती करवाएंगे और उचित मुआवजा देंगे.

लेकिन याचिका अभी तक लंबित है और पीड़ित अभी भी फैसले की राह देख रहे हैं. ढींगरा कहती हैं कि 2011 में बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री थे और वो एक्टिविस्टों की राय से सहमत हो गए थे, लेकिन आज जब केंद्र सरकार में कांग्रेस की जगह उनकी अपनी पार्टी है तो वो फिर से असहमत हो गए हैं. हालांकि एक्टिविस्टों को विश्वास है कि कोविड-19 ने गैस पीड़ितों के असल हाल को उजागर करने का जो काम किया है उसकी वजह से आज नहीं तो कल वे ये लड़ाई जीत ही जाएंगे.

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