केंद्र और राज्य सरकारों के संबंधों के लिए इम्तिहान है कोरोना
शिवप्रसाद जोशी
२८ अप्रैल २०२०
भारत में कोरोना संकट और लॉकडाउन के बीच राज्यों और केंद्र सरकार के गहरे मतभेद उजागर हुए हैं. संवैधानिक राज के तहत संघवाद की हिफाजत और राज्यों के साथ विश्वास बहाली के लिए जरूरी है कि अंतरराज्यीय परिषद को सक्रिय किया जाए.
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गैर एनडीए शासित राज्यों ने हाल के दिनों में केंद्र पर अत्यधिक दबाव डालने और सलाहों की अनसुनी के आरोप लगाए हैं. केरल, पंजाब, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, राजस्थान जैसे राज्य तो किसी न किसी मुद्दे पर आक्रोशित हैं ही, बिहार में बीजेपी के सहयोग वाली सरकार चला रहे मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने भी लॉकडाउन में आवाजाही और परिवहन को लेकर कड़ी नाराजगी जताई है. अंतरराज्यीय परिषद (इंटरस्टेट काउंसिल) को फिर से सक्रिय करने की मांग नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और एनआरसी को लेकर हुए व्यापक आक्रोश, विवाद और विरोध आंदोलनों के दौरान ही होने लगी थी. अब जबकि देश कोरोना महामारी के सघन दौर से गुजर रहा है तो जानकारों का मानना है कि ऐसा न हो कि राज्यों और केंद्र के बीच टकराव इतना तीखा हो जाए कि संघीय ढांचे पर ही इसका असर दिखाई देने लगे.
संविधान के अनुच्छेद 263 के जरिए ऐसी प्रविधि के लिए रास्ता बनाया गया था जहां केंद्र और राज्य आपसी समन्वय को सुदृढ़ कर सकें. केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के बाद 1990 में राष्ट्रपति के आदेश के जरिए अंतरराज्यीय परिषद के गठन को मंजूरी मिल गई थी जिसमें अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री और सदस्यों के रूप में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री, केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासक और छह केंद्रीय मंत्री शामिल होते हैं. लेकिन पिछले तीन दशकों में परिषद की महज छह बैठकें ही हो पाईं हैं. आखिरी बैठक एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान नवंबर 2017 में हुई थी. केंद्र में दोबारा एनडीए सरकार बनी तो अगस्त 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में अंतरराज्यीय परिषद का पुनर्गठन किया गया. केंद्रीय गृहमंत्री की अध्यक्षता में परिषद की स्टैंडिग कमेटी का भी पुनर्गठन किया गया है.
भारत की विशालता, विविधता और व्यापकता को देखते हुए और आज के प्रतिस्पर्धी और राजनीतिक-आर्थिक रूप से संवेदनशील माहौल में सभी राज्यों के लिए एक सी नीति या एक सा फैसला लागू नहीं किया जा सकता. हो सकता है कि कोई फैसला किसी एक राज्य के लिए सही हो लेकिन दूसरे राज्य के हितों से टकराता हो, तो संघवाद की भावना पर ही असर पड़ेगा. हाल के वर्षों में मिसाल के लिए बीफ पर लगाए प्रतिबंध को ही ले सकते हैं. केरल, गोवा, तमिलनाडु और पूर्वात्तर राज्यों में इस आदेश का भारी विरोध हुआ था. इसी तरह देश के 19 राज्यों की सरकारों ने सीएए लागू करने के खिलाफ अपनी विधानसभाओं में प्रस्ताव पास किए थे. सबसे पहले केरल ने सुप्रीम कोर्ट मे गुहार लगाते हुए अनुच्छेद 131 का हवाला दिया था, जिसके तहत केंद्र और राज्यों के आपसी विवादों में सुप्रीम कोर्ट को ही आखिरी निर्णय देने का प्रावधान है. केंद्र-राज्य संबंधों में गतिरोध की एक प्रमुख वजह वित्त आयोग की कुछ फंड आवंटन नीतियों को भी बताया जाता है.
कोरोना वायरस के समय बेघरों की बेबसी
दुनिया भर में ऐसे कई लोग हैं जो कोरोना संकट के समय भी सड़क पर जिंदगी बिताने को मजबूर हैं. चाहे अमेरिका हो या फिर लंदन संकट के इस समय में भी कुछ बेघर सड़क पर ही रहने को मजबूर हैं. एक नजर बेघरों की हालत पर.
तस्वीर: Reuters/S. Marcus
लंदन, ब्रिटेन
लंदन में बेघर तख्ती पर अपनी स्थिति लिख लोगों से दान की अपील करते हुए. जिन लोगों के पास रहने के लिए घर नहीं वह किसी तरह से मेट्रो स्टेशन या फिर सड़क किनारे संकट के समय में जिंदगी बिता रहे हैं.
तस्वीर: Reuters/H. McKay
डकार, सेनेगल
35 साल के इब्राहिम के पास रहने को घर नहीं है. वह रात के समय में इसी तरह से बेंच पर बैठ कर अपना समय काटते हैं. यहां 4 मई तक सुबह से लेकर शाम का कर्फ्यू लगा हुआ है.
तस्वीर: Reuters/Z. Bensemra
फ्लोरिडा, अमेरिका
ऐसा नहीं है कि अमीर देश अमेरिका में सबके पास रहने को मकान है. कोरोना संकट के समय भी लोग सड़क के किनारे रह रहे हैं. हालांकि स्वास्थ्य कर्मचारी उनके बारे में पता करने के लिए जरूर जाते हैं.
तस्वीर: Reuters/M. Bello
बैंकॉक, थाईलैंड
थाईलैंड में बेघरों को कोरोना वायरस से बचाने के लिए राहत शिविरों में रखा गया हैं. उन्हें सामाजिक दूरी के बारे में जानकारी दी जाती है और सख्ती से पालन करने को कहा जाता है. खाने के लिए भी लोग कतार में लगते हैं और बारी बारी से भोजन लेते हैं.
तस्वीर: Reuters/A. Perawongmetha
लास वेगस, अमेरिका
लास वेगस का नाम सुनते ही दिमाग में ऐसी तस्वीर आ जाती है जिसमें रात को चमकती इमारतें होती हैं, शानदार पार्टियां और ना जाने क्या-क्या. लेकिन कोरोना वायरस के कारण यहां की भी तस्वीर बदल चुकी है. बेघर लोग यहां अस्थायी पार्किंग की जगहों पर सो रहे हैं.
तस्वीर: Reuters/S. Marcus
प्राग, चेक गणराज्य
प्राग में भी बेघरों के रहने के लिए कुछ इस तरह से इंतजाम किए गए हैं. कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए बेघरों के टेंट एक दूसरे के बीच दूरी रख कर लगाए गए हैं.
तस्वीर: Reuters/D.W. Cerny
पेरिस, फ्रांस
फ्रांस की राजधानी पेरिस में हर साल लाखों लोग पर्यटन के लिए आते हैं. देश की कमाई भी इससे अच्छी खासी होती है लेकिन यहां भी बेघर हैं. संकट के दौर में किसी को आश्रय मिल गया तो कोई इसी तरह से सड़क पर है.
तस्वीर: Reuters/C. Platiau
ओस्लो, नॉर्वे
नॉर्वे जैसे छोटे देश में भी बेघर हैं. करीब 54 लाख की आबादी वाले देश ने बेघरों के रहने के लिए केंद्रों का इंतजाम किया है. सामाजिक दूरी को ध्यान में रखते हुए बिस्तर को अलग-अलग लगाया है. नॉर्वे ने बड़े आयोजनों पर प्रतिबंध को 1 सितंबर तक बढ़ा दिया है.
तस्वीर: Reuters/NTB Scanpix/H. Junge
रोम, इटली
रोम के मशहूर पर्यटन स्थल कोलोजियम के बाहर खड़े इस शख्स के पास रहने को घर नहीं है. महामारी का सबसे ज्यादा असर यूरोप के इसी देश पर पड़ा है. क्या अमीर और क्या गरीब कोरोना वायरस की मार सभी झेल रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/F. Monteforte
कोलकाता, भारत
भारत में केंद्र और राज्यों ने बेघरों के लिए अस्थायी केंद्र बनाए हैं जहां ऐसे लोग रह सकते हैं जिनके पास घर नहीं हैं. यहां उन्हें तीनों वक्त का भोजन दिया जाता है और चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम चलाए जाते हैं.
तस्वीर: Reuters/R. de Chowdhuri
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पिछले दिनों मोटर वाहन अधिनियम में किए गए भारीभरकम बदलावों को अस्वीकार कर कई राज्यों ने इस कानून को शिथिल और लचीला बनाया. केंद्रीय परिवहन मंत्रालय ने उस दौरान कहा था कि उसके बदलाव राज्यों के लिए बाध्यकारी हैं लेकिन राज्यों ने इसे धमकाने की कोशिश की तरह लिया. जल बंटवारे की बात हो या जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के विस्थापन या पुनर्वास का मामला- राज्यों के साथ केंद्र के टकराव बढ़ते ही जा रहे हैं और इस दिशा में कोई सामंजस्यपूर्ण कोशिशें फिलहाल नजर नहीं आती. देश के आर्थिक विकास में राज्यों की बुनियादी भूमिका के बावजूद जीएसटी और नोटबंदी जैसे निर्णय एक अतिकेंद्रीकृत सत्ता व्यवस्था के निशान दिखाते हैं.
और इधर केंद्र ने 1887 के महामारी कानून और 2005 के आपदा प्रबंधन कानू को लागू कर असाधारण शक्तियां हासिल की. हालांकि मुख्यमंत्रियों से ऑनलाइन बैठकें कर प्रधानमंत्री ने ये दिखाने की कोशिश की है कि राज्यों को भरोसे में लेकर ही बड़े फैसले किए जा रहे हैं लेकिन ये भी सच्चाई है कि अंदरखाने राज्यों में केंद्र के रवैये को लेकर असंतोष भी हैं, खासकर लॉकडाउन से जुड़े नियम कायदों को लेकर, उद्योगों में काम बहाली या बंदी को लेकर, और केंद्रीयकृत जांच अभियानों के जरिए राज्यों से जवाबतलबी को लेकर. कुछ राज्यों ने इसे अपने अधिकारों में दखल और कार्यक्षमता पर सवाल उठाने की मंशा की तरह लिया. क्या इन टीमों का स्वरूप केंद्र और राज्य आपस में मिलकर तय नहीं कर सकते थे, ऐसे कुछ सवाल तो उठ ही रहे हैं. राज्यों की राहत पैकेज की मांग भी अब तक कार्रवाई का इंतजार कर रही है.
इस अभूतपूर्व संकट के बीच आपसी तालमेल और विश्वास का अभाव नहीं दिखना चाहिए. अत्यधिक केंद्रीकृत रवैये को भी छोड़ना होगा. ये कठिन समय केंद्र राज्य संबंधों के लिए भी कठिन इम्तिहान की तरह है. इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम ये हो सकता है कि अंतरराज्यीय परिषद को सक्रिय किया जाए जहां राज्य अपनी शिकायतें रख सकें, उनकी सुनवाई हो और उनके निराकरण की कोशिशें की जा सकें, सबसे अहम बात केंद्र और राज्यों के बीच संवादहीनता, संशय और गलतफहमी खत्म हो सकें. परिषद की बैठकें नियमित रूप से साल में कम से कम तीन बार रखी जा सकती हैं.
कोरोना के जाल में फंसा मीडिया
कोरोना महामारी से जुड़ी खबरों को दुनिया के सामने रखने वाले पत्रकारों को कई देशों में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. कई देशों में अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए सरकारें पत्रकारों की कलम पर पाबंदियां लगा रही हैं.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
चीन
कोरोना से जुड़ी खबरों पर चीन की पैनी नजर है. मीडिया में उनकी कवरेज पर कई तरह की सेंसरशिप के आरोप लग रहे हैं. सीएनएन की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन में कोरोना वायरस के जुड़ी किसी भी अकादमिक रिसर्च के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई है.
तस्वीर: picture-alliance/Photoshot
तुर्की
राष्ट्रपति रैचेप तैयप एर्दोवान अपनी आलोचना करने वाले मीडिया को दबाने के लिए कोरोना वायरस की आड़ ले रहे हैं. खबर है कि कुछ दिन पहले एर्दोवान ने कैबिनेट की बैठक में कहा था, "देश को सिर्फ कोरोना वायरस से ही नहीं, बल्कि सभी मीडिया राजनीतिक वायरसों से भी बचाना है."
तस्वीर: picture-alliance/abaca/Depo Photos
ईरान
कोरोना वायरस से जुड़ी खबरों की ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को ईरान में भी परेशान किया जा रहा है. इस सिलसिले में ना सिर्फ कई पत्रकारों को हिरासत में लिया गया है, बल्कि सोशल मीडिया यूजर्स पर भी कार्रवाई की गई है.
तस्वीर: Reuters/WANA/A. Khara
इराक
इराक की सरकार ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स का लाइसेंस तीन महीने के लिए निलंबित रखा. इसकी वजह थी एक रिपोर्ट जिसमें इराक में कोविड19 के आधिकारिक आंकड़ों को लेकर सवाल उठाए गए थे.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/H. Mizban
मिस्र
मिस्र में कोरोना वायरस की कवरेज के लिए ब्रिटिश अखबार गार्डियन के लिए काम करने वाले एक रिपोर्टर का लाइंसेंस रद्द किए जाने की खबर है जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार को भी इसी तरह की धमकी दी गई.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Ajjour
हंगरी
हाल में ही प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान की सरकार ने कोरोना वायरस कानून पारित किया. इसके तहत गलत सूचना देने पर पांच साल तक की जेल हो सकती है. हंगरी में प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर यूरोपीय संघ लगातार चिंता जताता रहा है.
तस्वीर: picture-alliance/AP/MTI/Z. Mathe
कैद में पत्रकार
वेनेजुएला में कोविड-19 के बारे में रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार डार्विन्संस रोजस को जेल में डाला गया. दूसरी ओर, कंबोडिया में सरकार के 17 आलोचकों को जेल की सजा हुई. इसी तरह थाईलैंड में एक व्हिसल-ब्लोअर को जेल में डाला गया.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
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तिमाही रिपोर्टे मिलेंगी तो केंद्र और राज्य दोनों को सहूलियत होगी. किसी एक राजनीतिक दल या किसी एक व्यक्ति का डंका पीटते रहने की मानसिकता से देश को बदला नहीं जा सकता है. भारत का राजनीतिक इतिहास तो यही कहता है. हालांकि सरकार का कहना है कि मुख्यमंत्री कोरोना के खिलाफ लड़ाई में उसके साथ हैं लेकिन उसका रवैया ऐसा नहीं दिखना चाहिए कि महामारी से जूझने और हालात को सामान्य बनाए रखने में केंद्र ही अग्रणी है और तमाम राज्य उसके आदेशों काअनुपालन करते हुए अपनी भूमिका निभा रहे हैं.
दुनिया के कई अहम देशों के भूगोलों से भी बड़े नक्शे वाले भारतीय राज्य किसी भी समन्वित कार्रवाई में बराबर के भागीदार बने रहना चाहेंगे, इससे कम की भूमिका न सिर्फ उन्हें नागवार गुजरेगी बल्कि वे उसे अपनी तौहीन भी मानेंगे. केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों में इस प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कड़वाहट को खत्म करने के लिए आपसी संवाद को और प्रगाढ़ और पारदर्शी बनाए जाने की जरूरत है. इसलिए महामारी के काल में डिस्टेंसिंग की अनिवार्यता का ख्याल रखते हुए भी केंद्र को राज्यों के और निकट जाना होगा तभी देश में संघवाद कामयाब बना रह सकता है.
स्पैनिश फ्लू से क्यों हो रही है कोरोना महामारी की तुलना
एक सदी पहले की बात है जब स्पैनिश फ्लू नाम की महामारी ने दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी को अपनी चपेट में ले लिया और कोई पांच करोड़ इंसानों की जान ले ली. क्या कोरोना वायरस इस जानलेवा इतिहास को दोहरा सकता है?
तस्वीर: Imago/United Archives
महामारी बना 1918 में शुरु हुआ इन्फ्लुएंजा
सन 1918 से 1920 के बीच दुनिया भर के 2.5 से 5 करोड़ लोगों को लील लेने वाली महामारी स्पैनिश फ्लू कहलाई. इस महामारी में पहले विश्वयुद्ध से भी ज्यादा लोगों की जान गई जो कि इसके ठीक पहले ही थमा था.
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
रहस्य बनी रही शुरुआत की कहानी
एक दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी संक्रमण की शुरुआत के कारणों की पुष्टि नहीं हो पाई थी. 1930 के दशक में आते आते कुछ लोगों ने यह कहा कि इस पैथोजन को असल में जर्मन सेना ने एक हथियार के रूप में विकसित किया था और वह लीक हो गया. कोरोना के मामले में भी ऐसी एक थ्योरी निकली और खुद अमेरिकी राष्ट्रपति इसे "चीनी वायरस" कह चुके हैं.
तस्वीर: picture-alliance/akg
क्या कोरोना काल में फिर दोहराएगा इतिहास
अमेरिकी सेनाकर्मियों में 1918 में इसकी पुष्टि हुई. आगे चल कर दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी स्पैनिश फ्लू से संक्रमित हुई. मरने वालों में 5 साल से कम उम्र वालों और 65 से ऊपर की उम्र वाले लोगों की तादात अधिक थी जैसा कि कोरोना में भी है. लेकिन 20 से 40 साल की उम्र वालों का मरना स्पैनिश फ्लू् की खास बात रही.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Dana
क्वॉरंटीन, हाइजीन, डिसइन्फेक्टेंट और भीड़भाड़ पर रोक
यही सारी चीजें स्पैनिश फ्लू के समय भी काम आई थीं और कोरोना काल में भी इन्हीं सब कदमों से संक्रमण को रोकने में मदद मिल रही है. स्पैनिश फ्लू का कोई टीका नहीं बन पाया था और ना ही एंटीबायोटिक दवाएं काम आईं. हालांकि कोरोना वायरस का टीका बनाने में फिलहाल विश्व भर के रिसर्चर लगे हुए हैं.
तस्वीर: Unbekannt
स्पैनिश फ्लू वायरस की टाइमलाइन
102 साल पहले शुरु हुआ संक्रमण. 1930 में जाकर पता चला कि इसका कारण कोई बैक्टीरिया नहीं बल्कि वायरस है. 1960 में अमेरिका में इसके लिए ऐसी वैक्सीन उपलब्ध हुई जिसे फ्लू शॉट के रूप में हर साल फ्लू सीजन में लिया जा सकता है. सन 2005 में जाकर स्पैनिश फ्लू के वायरस की पूरी सीक्वेंसिंग हो पाई.
तस्वीर: picture-alliance/empics/The Canadian Press/J. McIntosh
सारे फ्लू से बचाने वाली वैक्सीन का रास्ता खुला
स्पैनिश फ्लू का वैक्सीन ही आज तक लोगों को सभी तरह के सीजनल फ्लू से बचाता आया है. 2009 में आए स्वाइन फ्लू फैलाने वाले एच1एन1 वायरस और बर्ड फ्लू फैलाने वाले एच5एन1 जैसे रोगों से भी इसी की वैक्सीन बचाती है.