यही वजह है कि ब्रिटेन में कोलेस्ट्रॉल की दवा लेने वालों की बहुत बड़ी तादाद है. पूरे यूरोप में कोलेस्ट्रॉल की दवा सबसे ज्यादा ब्रिटेन में ही बिकती है. और हो भी क्यों ना, फिश एंड चिप्स यानि तली हुई मछली और तले हुए आलू खाने का शौक भी सबसे ज्यादा ब्रिटेन के लोगों को ही होता है. और साथ में पी जाती है खूब सारी बीयर भी. इस तरह का खान पान दिल के लिए काफी बुरा है. इसी वजह से ब्रिटेन में 70 लाख लोग कोलेस्ट्रॉल की दवा ले रहे हैं. लेकिन अब यह बहस छिड़ गयी है कि क्या वाकई ये दवाएं असरदार होती हैं और क्या इन पर निर्भर करने से दूसरे नुकसान नहीं होते.
दिल के दौरे का डर
53 वर्ष के एलिन डेनियल दो साल से कोलेस्ट्रॉल की गोलियां ले रहे हैं. वे बताते हैं कि उनके पिता की 62 की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी. इसलिए जब वे अपने रुटीन चेक अप के लिए डॉक्टर के पास गए और उनका कोलेस्ट्रॉल थोड़ा बढ़ा हुआ मिला तो डॉक्टर ने उन्हें फौरन गोलियां शुरू करने की सलाह दी, "मुझे लगा इसमें हर्ज ही क्या है."
हर रोज सामने आ रहीं मिलावटी खाने और पर्यावरण परिवर्तन की खबरों के बीच कई लोग अब शाकाहारी जीवन की ओर रुख कर रहे हैं. हालांकि इसका सिर्फ यही उपाय नहीं है.
तस्वीर: DW/V. Kernभारत में लाखों टन अनाज सरकार की उपेक्षा और गोदामों में हो रही लापरवाही की वजह से खराब होता है. अनाज के खेत खलिहान से लेकर बाजार तक के सफर में कुल फसल का लगभग 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है.
तस्वीर: DWभारत में भंडारण की पर्याप्त क्षमता नहीं होने की वजह से भी अनाज बर्बाद होता है. अनुमान के मुताबिक चावल के मामले में 1.2 किलो प्रति क्विंटल और गेहूं के मामले में 0.95 किलो प्रति क्विंटल का नुकसान होता है.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesजर्मनी में हर साल 2 करोड़ टन खाना बर्बाद होता है वहीं दूसरी ओर एक दूसरे के साथ खाना बांटने का चलन भी अब सामने आ रहा है. रेस्त्रां और सब्जियों के स्टोर उस खाने को दान कर देते हैं जो उनके पास बचता है.
तस्वीर: Dietmar Gustहर रोज सामने आ रहीं मिलावटी खाने और पर्यावरण परिवर्तन की खबरों के बीच कई लोग अब शाकाहारी जीवन की ओर रुख कर रहे हैं.
तस्वीर: imago/Eibner70-80 के दशक में शुद्ध शाकाहारी खाने जिनमें अंडे का इस्तेमाल भी नहीं होता था, ज्यादा चलन में नहीं थे. लेकिन इन दिनों बहुत कुछ बदल रहा है. लोग अनेक तरह के मांस खा रहे हैं.
तस्वीर: DW/V. Kernशाकाहारी भोजन से दुनिया भर में कार्बन फुटप्रिंट और पानी के इस्तेमाल को कम किया जा सकता है. मांसाहारी भोजन के कारण दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का पांचवां हिस्सा मनुष्य के कारण होता है.
तस्वीर: Fotolia/Janis Smitsअगर सिर्फ आसपास के बाजार में मिलने वाले, करीब ही उगने वाले फल और सब्जियों का सेवन किया जाए तो इससे परिवहन के कारण होने वाले प्रदूषण और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से भी बचा जा सकता है.
तस्वीर: DW/E. Shoo'मोनोकल्चर' यानि एक ही जमीन पर ज्यादा समय तक एक ही प्रकार की फसल उगाते रहने का चलन भी भारी पड़ रहा है. इससे फसल में बीमारी और कीड़ों के पैदा होने की संभावना हो जाती है, जिससे बचने के लिए कीटनाशक इस्तेमाल किए जाते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaबड़े शहरों में भी अब खुद अपने लिए छोटे पैमाने पर खाने पीने की चीजें उगाना मुश्किल नहीं. जर्मनी के बर्लिन शहर के बीचोंबीच जैसे यह 'प्रिंसेस गार्डेन', जहां लोकल इस्तेमाल के लिए फसल उगाई जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaकुछ शोधों में यह भी बात सामने आई है कि मांस के कम इस्तेमाल से कैंसर, हृदय रोग और डायबिटीज की संभावना भी कम होती है.
तस्वीर: dream79 - Fotolia.com डेनियल की ही तरह ब्रिटेन में लाखों लोग कोलेस्ट्रॉल की गोलियां ले रहे हैं. एक दशक पहले ये दवाएं केवल उन लोगों को दी जाती थीं जिन्हें दिल का दौरा पड़ने का कम से कम 30 फीसदी खतरा हो. अब 20 प्रतिशत रिस्क वालों को भी यह दवा दी जाती है और माना जा रहा है कि जल्द ही 10 प्रतिशत खतरे पर भी गोलियों का सेवन करने की सलाह दी जाएगी. अगर ऐसा हुआ तो ब्रिटेन में कोलेस्ट्रॉल की दवा लेने वालों की संख्या 70 लाख से बढ़ कर एक करोड़ बीस लाख हो जाएगी.
गोली लेने में क्या हर्ज
ओईसीडी के आंकड़ों के अनुसार ब्रिटेन की एक चौथाई आबादी मोटापे का शिकार है. यूरोप के सभी देशों में ब्रिटेन में यह समस्या सबसे ज्यादा है और सभी विकसित देशों की सूची में वह सातवें स्थान पर है. हालांकि यहां के लोग कसरत करने और दौड़ भाग में काफी विश्वास रखते हैं, लेकिन इसके बावजूद दिल के दौरे पड़ने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है.
ऐसे में कई लोगों की दलील है कि अंडा, मक्खन, चीज और मांस पीढ़ियों से खाया जा रहा है. इसलिए स्थानीय खानपान में खामियां ढूंढना गलत है. डेनियल की ही तरह ज्यादातर लोगों का मानना है कि जो मन में आए वो खाएं और साथ में गोली लेते रहे, "हर दिन एक गोली लेने में कोई मेहनत तो नहीं लगती न!"
रिपोर्ट: ईशा भाटिया (एएफपी)
संपादन: आभा मोंढे