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'वापस जाने के बजाय मैं मर जाना चाहूंगा'

आदित्य शर्मा
१८ जून २०२१

भारतीय जेल में बंद कई राजनीतिक कैदियों का आरोप है कि उन्हें बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं. गंभीर स्थिति होने पर भी अस्पताल ले जाने में कोताही बरती जा रही है. उन्हें बार-बार अदालत का दरवाजा खटखटकाना पड़ रहा है.

भारतीय जेलों की स्थिति महामारी के दौरान यह और बदतर हो गई हैतस्वीर: Anindito Mukherjee/dpa/picture alliance

स्टेन स्वामी पिछले आठ महीनों से जेल में बंद है. 84 वर्षीय स्वामी पार्किंसन्स रोग से ग्रस्त हैं और उन्हें सुनने में काफी समस्या होती है. उन्होंने शिकायत की है कि वे सही तरीके से खाना तक नहीं खा पा रहे हैं और उनका शरीर ‘धीरे-धीरे हार मान रहा' है. स्वामी ऐसे राजनीतिक कैदियों के समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने जेल में स्वास्थ्य बिगड़ने और पर्याप्त देखभाल में कमी की शिकायत की है. आलोचकों का कहना है कि स्वामी का मामला भारतीय जेलों की बिगड़ती स्थिति को उजागर करता है जो कि कोरोनोवायरस महामारी में भी जारी है. इसके अतिरिक्त, जेल में बंद स्वामी सहित कई अन्य कैदियों की कोरोना रिपोर्ट भी पॉजिटिव आई है.

स्वामी कहते हैं कि उन्हें कई बार जेल के अस्पताल में भर्ती करवाया गया है, इसके बावजूद उनकी सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है. पिछले महीने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बॉम्बे हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान स्वामी ने कहा, "मुझे इलाज के तौर पर कुछ दवाइयां दी जाती हैं, लेकिन इससे मेरी सेहत में सुधार नहीं हो सकता." उन्होंने स्वास्थ्य के आधार पर जमानत की मांग करते हुए एक भावनात्मक याचिका दायर की और कहा कि वह जेल अस्पताल में वापस जाने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे. सुनवाई के बाद उन्हें निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया जहां उनकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई.

‘बनाया हुआ' मामला

स्वामी ईसा मसीह के रॉयल कैथलिक समाज के पुजारी और आदिवासियों के अधिकार के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उन्हें भारत सरकार को उखाड़ फेंकने की कथित साजिश में शामिल माओवादी विद्रोहियों से संबंध होने के संदेह में जेल भेजा गया था. आतंकवाद से जुड़े अपराध के मामलों की जांच करने वाली संस्था राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने उन्हें गिरफ्तार किया था. एनआईए ने उनके ऊपर 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में शामिल होने और नक्सलियों के साथ संबंध होने के आरोप लगाए हैं. साथ ही, उन पर गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धाराएं भी लगाई गई है. इस मामले में स्वामी के अलावा अन्य 15 लोगों को भी गिरफ्तार किया गया है. इन सभी को एक साथ बीके (भीमा कोरोगांव)-16 राजनीतिक बंदी कहा जाता है. यूएपीए लगने की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बिना ट्रायल के इन्हें जेल में रखा जा सकता है.

प्रसिद्ध नागरिक अधिकार एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं कि स्वामी का मामला बनाया हुआ दिखता है. उन्होंने डॉयचे वेले से कहा, "अगर वाकई किसी अपराध की जांच की जा रही है, तो शालीनता और पेशेवर तरीके से समय पर उसकी जांच होगी और उसका ट्रायल होगा. स्वामी जैसे बुजुर्ग लोगों को हाउस अरेस्ट भी किया जा सकता है. लेकिन यह सरकार इन राजनीतिक बंदियों को जेल में रखना चाहती है, उन्हें अपमानित करना चाहती है, और उनके स्वास्थ्य को गंभीर खतरे में डालना चाहती है."

मूलभूत सुविधाएं भी नहीं

पार्किंसन्स रोग की वजह से सेंट्रल नर्वस सिस्टम कमजोर हो जाता है और हाथ कांपते हैं. इस रोग से पीड़ित होने की वजह से स्वामी को खाने-पीने में काफी समस्या होती है. पिछले साल, कथित तौर पर स्वामी ने खाने-पीने के लिए स्ट्रॉ और सिपर की मांग की थी जो उन्हें नहीं दिया गया था. करीब चार सप्ताह के इंतजार के बाद उन्हें ये चीजें मिलीं. इस बीच कई लोगों ने सोशल मीडिया पर उनके इलाज में होने वाली लापरवाही को लेकर तीखी आलोचना की थी.

स्वामी इस समय मुंबई के तलोजा जेल में बंद हैं. यहां के अधिकारियों ने तमाम आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि स्वामी को न सिर्फ स्ट्रॉ दिए गए, बल्कि घूमने के लिए एक छड़ी और व्हीलचेयर भी उपलब्ध कराई गई. नाम न छापने की शर्त पर जेल के एक अधिकारी ने डॉयचे वेले को बताया, "उन्हें एक अलग बेड दिया गया है. दो सेवादार हमेशा उनके साथ रहते हैं. स्वामी के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद, हमने सभी सेवादारों की भी जांच कराई थी. दोनों के रिजल्ट निगेटिव आए." ये दोनों सेवादार वहां रहने वाले कैदी थे जिन्होंने स्वेच्छा से स्वामी की देखभाल की.

पर्याप्त इलाज न मिलने का आरोप

जाति-विरोधी गतिविधियों के लिए काम करने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैनी बाबू भी पिछले साल जुलाई महीने से जेल में बंद हैं. वे भी बीके-16 समूह के सदस्य हैं. एनआईए ने उनके ऊपर भी भीमा कोरेगांव हिंसा में साजिशकर्ता के तौर पर शामिल होने का आरोप लगाया है. मई महीने की शुरुआत में, बाबू के परिवार ने आरोप लगाया कि उनकी एक आंख में गंभीर संक्रमण हो गया है लेकिन उनका उचित इलाज नहीं हुआ. परिवार का कहना है कि यह संक्रमण आंख से फैलकर मस्तिष्क तक पहुंच सकता है जो जानलेवा साबित हो सकता है. 

बाबू के परिवार ने मीडिया को दिए बयान में कहा, "सूजन की वजह से उन्हें एक आंख से ना के बराबर दिखाई दे रहा है. यह सूजन उनके गले, कान, और सिर तक फैल सकती है. दर्द की वजह से वह ना सो पा रहे हैं और ना ही अपना दैनिक काम कर पा रहे हैं. आंख धोने के लिए बाबू को साफ पानी भी नहीं मिला. उन्हें भीगा हुआ तौलिया पहनने पर मजबूर किया गया. इससे संक्रमण के बढ़ने का खतरा है."

बाबू की वकील पायोशी रॉय कहती हैं कि आठ दिनों तक वह आंख के संक्रमण से जूझते रहे लेकिन उन्हें किसी तरह की चिकित्सा सहायता नहीं मिली. रॉय ने डॉयचे वेले को बताया, "हमने जेल अधीक्षक को कई ईमेल लिखे और कई बार फोन किया लेकिन किसी तरह की मदद नहीं मिली. इसके बाद हम कोर्ट पहुंचे, तब जाकर मदद मिली." रॉय आगे बताती हैं, "साधारण मेडिकल जांच के लिए हमें कोर्ट जाना पड़ता है. जेल के अधिकारी वकीलों की कोई बात नहीं सुनते हैं." रॉय कहती हैं कि बाबू की गंभीर स्थिति के बावजूद अधिकारियों ने उन्हें अस्पताल ले जाने के दो विजिट के बीच काफी देर की. साथ ही, दलील दी कि सुरक्षा गार्डों की कमी की वजह से वे बाबू को समय पर अस्पताल नहीं ले जा सके. अस्पताल में भर्ती होने के बाद बाबू की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई. इसके बाद, ‘ब्लैक फंगस' के इलाज के लिए उन्हें निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया.

‘पूरी प्रक्रिया ही सजा जैसी है'

स्वामी और बाबू को नवी मुंबई स्थिति एक ही जेल में रखा गया था. यहां बीके-16 के तीन और कैदियों की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई. रॉय के मुताबिक, इसके पीछे की वजह यह है कि यहां ‘काफी ज्यादा भीड़' है. महामारी को देखते हुए पिछले साल कई जेलों में बंद कैदियों को रिहा किया गया था. हालांकि, रॉय का कहना है कि ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं.

रॉय कहती हैं, "अधिकारियों का कहना है कि जेल में सामाजिक दूरी के नियम का पालन करने के लिए जेलों को अपनी आधिकारिक क्षमता के दो-तिहाई कैदियों को ही रखना होगा. तलोजा सेंट्रल जेल की क्षमता करीब 2100 कैदियों की है लेकिन अभी यहां 3000 से ज्यादा कैदी हैं. और ऐसा तब है जब कई कैदियों को रिहा किया गया है."

फिलहाल, स्वामी और बाबू दोनों का अस्पताल में इलाज हो रहा है. सीतलवाड़ कहती हैं, "उनकी टीम और समर्थकों की कानूनी लड़ाई के बाद दोनों को राहत मिली है. भारतीय जेलों की स्थिति पहले से ही बदतर है. महामारी के दौरान यह और बदतर हो गई है. हमारी जेलों में क्षमता से काफी ज्यादा कैदी बंद हैं. साफ-सफाई की स्थिति दयनीय है. इलाज को लेकर पर्याप्त सुविधा नहीं है."

साल 2019 के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत की जेलों की आधिकारिक क्षमता करीब चार लाख चार हजार है. यहां कुल चार लाख 79 हजार लोग कैद हैं. कई जेलों में तो क्षमता से 150 प्रतिशत ज्यादा कैदी हैं. सीतलवाड़ कहती हैं, "राजनीतिक कैदियों को अंतत: अदालत से कुछ राहत मिल सकती है लेकिन इसमें काफी ज्यादा वक्त लगता है जो सजा की तरह है."

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