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क्या अमेरिका की निवेश की उम्मीदों पर खरा उतरेगा भारत?

राहुल मिश्र
४ मई २०२०

कोरोना महामारी फैलने में चीन की जिम्मेदारी का सवाल गंभीरता से उठाया जा रहा है. बहुत सी कंपनियां चीन छोडकर दूसरे देशों में जाने पर भी विचार कर रही हैं. क्या भारत चीन से निकलने वाले निवेश को अपने यहां आकर्षित कर पाएगा?

Indien Mumbai Skyline Wirtschaft Industrie Symbolbild
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Paranjpe

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के बयानों को उनके बड़बोलेपन और बदजबानी की वजह से अक्सर गंभीरता से नहीं लिया जाता है लेकिन कोविड महामारी के बीच चीन पर उनकी प्रतिक्रियाओं की गूंज दुनिया के कई देशों में सुनाई दे रही है. ऐसा लग रहा है कि सब कुछ ठीक होते ही दुनिया के तमाम देश चीन पर जवाबदेही के लिए कूटनीतिक दबाव बनाएंगे. हाल ही में जर्मनी, इटली, आस्ट्रेलिया, और ब्रिटेन में इनसे मिलती जुलती कई बातें सामने आयी. बीते दिनों अमेरिका और जापान की कंपनियों ने चीन से अपने निवेश को दूसरी जगहों पर ले जाने की मंशा भी जाहिर की है. साफ है कि चीन-अमेरिका संबंधों में तल्खियों का एक लंबा दौर शुरू हो चुका है.

सिर्फ संयोग नहीं विदेशी निवेश की बहस

इसी पृष्ठभूमि में पिछले हफ्ते अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और अमेरिकी कंपनियों के भारत-प्रतिनिधियों के बीच अमेरिकी चेम्बर ऑफ कामर्स की बैठक में इस पर गहन चर्चा हुई. यहां उन कंपनियों को ख़ास नसीहत दी गई जिन्होंने चीन से अपना बिजनेस हटाने का मन बना लिया है. चीन और अमेरिका के व्यापार-युद्ध के मद्देनजर पिछले साल से ही इन कदमों की सुगबुगाहट हो रही है. भारत अमेरिका स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप फोरम ने भी कहा है कि लगभग 200 अमेरिकी कम्पनियां चीन से बाहर निकलने को इच्छुक हैं और भारत में निवेश उनके लिए एक अच्छा अवसर होगा.

तस्वीर: DW/P. Samanta

भारत इस हलचल से अनजान नहीं है. हालांकि अभी तक औपचारिक तौर पर कोई घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह महज संयोग नहीं है कि एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी ने राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों से अपनी ऑनलाइन मीटिंग में उनसे सहज और सरल विदेशी निवेश-संबंधी रणनीतियां बनाने को कहा है तो दूसरी ओर केंद्र सरकार की व्यापार को बढ़ावा देने वाली कमेटी अमेरिकी निवेश-संबंधी नीति बनाने में लग गई है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी उम्मीद जताई है कि कोविड से चीन की घटती विश्वसनीयता के चलते जो अमेरिकी कम्पनियां वहां से पलायन कर रही हैं उन्हें साझा निवेश के रास्ते भारत लाया जा सकता है, जिसके चलते अकेले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ही 20-25 लाख करोड़ का निवेश हो सकता है.

मुक्त व्यापार समझौता निवेश की आधारशिला

घटती आर्थिक वृद्धि दर और रेमिटेंस के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये निस्संदेह एक अच्छी खबर है. भारत-अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता इन निवेशों के लिए एक अच्छा रास्ता बना सकता था. ट्रंप की हाल की भारत यात्रा से पहले एक मसौदे की संभावना भी व्यक्त की जा रही थी, लेकिन इसपर विचार-विमर्श अभी भी जारी है.इसमें दो राय नहीं है कि पिछले एक दशक में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय आर्थिक संबंध मजबूत हुए हैं और आज यह आंकड़ा 142 अरब डॉलर को पार कर चुका है. लेकिन चीन-अमेरिका के 660 अरब डॉलर के आंकड़े के मुकाबले यह कुछ भी नहीं है. अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत अमेरिकी कंपनियों को निवेश के लिए लुभा पाएगा?

तस्वीर: Handout Office Prime Minister of India

विदेशी निवेश मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में रहा है और मेक इन इंडिया नीति के तहत निवेश के तमाम रास्ते सरकार ने खोले हैं. पिछले छह सालों में निवेश भी हुआ है, खासकर हाईवे और रोड ट्रांसपोर्ट, ऊर्जा, और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में, लेकिन चीन और वियतनाम के मुकाबले भारत की गति धीमी ही रही है. कहते हैं, "मंजिल के रास्ते में अड़चनें तमाम." भारत में विदेशी निवेश का मामला भी कुछ ऐसा ही है. सरकारों के पास नीतियां तो हैं लेकिन उनका कोऑर्डिनेशन नहीं है, लालफीताशाही है, और है पेपरवर्क का अंतहीन मकड़जाल. ये इसी बात स्पष्ट है कि पिछले सालों में कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्टों को इस दलदल से बचाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को सीधे दखल देना पड़ा है और जहां पीएमओ मदद को नहीं आता वहां बड़े-बड़े प्रोजेक्ट क्षेत्रीय राजनीति और बाबूगिरी की बलि चढ़ जाते हैं.

केंद्र और राज्य सरकारों में सहयोग की दरकार

भारत में विदेशी निवेशकों के अविश्वास की लंबी परंपरा है. राजनीतिक और व्यक्तिगत हित, गैरजिम्मेदाराना निवेश और आर्थिक नीतियां, प्रोजेक्टों के आवंटन में दूरदर्शिता के अभाव ने इसमें ख़ासा योगदान दिया है. चाहे वो उडीसा में दक्षिण कोरिया का पोस्को निवेश हो या आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती के विकास में सिंगापुरी निवेश, राजनेताओं और नौकरशाही के रवैए ने भारत में विदेशी निवेश की छवि को धूमिल किया है. यही वजह है कि चाहने के बावजूद आज सिंगापुर और दक्षिण कोरिया भारत में सिर्फ चुने सेक्टर से बाहर निवेश नहीं करना चाहते. हालांकि अमेरिकी कंपनियों के साथ सिंगापुर जैसा बर्ताव तो शायद ना हो लेकिन वो भारत में निवेश सुविधाओं की तुलना चीन से करेंगे जिसने इन कंपनियों के लिए हर संभव सुविधा दे रखी थी.

मोदी सरकार ने बार-बार "ईज ऑफ बिजनेस” और "मेक इन इंडिया” की बात की है, और कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली है, लेकिन बड़े पैमाने पर अमेरिकी कंपनियों को भारत लाने का लक्ष्य गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारने जैसा है जिसके लिए नीति निर्धारण और उसके पालन में केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा. साथ ही बिना किसी दलगत राजनीति के एक निश्चित, दूरगामी, और कामयाबी पर पहुंचाने वाली नीति बनानी होगी, ऐसी नीति जिसका हर सिरा सुलझा हो और हर कार्यान्वयन प्रक्रिया सरल. भारत के नीतिनिर्धारक इसके लिए कितने सजग हैं, इसका पता रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने में उनकी कामयाबी से चलेगा.

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