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क्या अमेरिका-तालिबान संधि भारत के हित में है?

२८ फ़रवरी २०२०

दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति संधि पर हस्ताक्षर होने वाले हैं और खबर है कि वहां भारत का एक प्रतिनिधि मौजूद रहेगा. ये लगभग दो दशकों में भारत की अफगानिस्तान के प्रति नीति में बड़ा बदलाव है.

Afghanistan Symbolbild Taliban-Kämpfer
तस्वीर: picture alliance/Photoshot

उम्मीद जताई जा रही है कि शनिवार 29 फरवरी को अमेरिका और तालिबान एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे जिसके तहत तालिबान अफगानिस्तान में हिंसा बंद कर देगा और अमेरिका वहां तैनात अपने सिपाहियों की संख्या और कम कर देगा.

दोनों पक्ष मानते हैं कि यह संधि दोनों के हितों को पूरा करेगी, लेकिन इस संधि के प्रति भारत के रवैये में एक बड़ा बदलाव आया है. खबर है कि कतर की राजधानी दोहा में जब इस संधि पर हस्ताक्षर होंगे तब वहां भारत का एक प्रतिनिधि मौजूद रहेगा. अगर ऐसा होता है तो ये लगभग दो दशकों में पहली बार होगा जब भारत का कोई प्रतिनिधि तालिबान के साथ एक ही कमरे में मौजूद हो.

2018 में मॉस्को में इसी शांति वार्ता को लेकर हुई एक बैठक में भारत के दो पूर्व राजनयिकों ने हिस्सा लिया था. लेकिन यह पहली बार होगा जब भारत का एक सेवारत राजनयिक तालिबान के साथ इस तरह की प्रक्रिया का एक हिस्सा बनेगा. बताया जा रहा है कि कतर सरकार के निमंत्रण पर कतर में भारत के राजदूत पी कुमारन संधि पर हस्ताक्षर के समय वहां मौजूद रहेंगे.

अगर यह इस बात का संकेत है कि भारत ने भी अब इस शांति प्रक्रिया को स्वीकार कर लिया है, तो यह अफगानिस्तान की तरफ भारत की नीति में बड़ा बदलाव है. भारत अफगानिस्तान का सिर्फ एक पड़ोसी देश ही नहीं है, बल्कि अफगानिस्तान के सूरतेहाल में एक अहम हिस्सेदार है. अगर वहां किसी भी तरह की अशांति फैलती है तो उसका असर भारत में होना स्वाभाविक है.

अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सेना की तादाद में भारी कमी करने का लक्ष्य है.तस्वीर: Reuters

भारत कई सालों से युद्ध की वजह से उजड़े हुए अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए हर तरह की मदद देता आया है, चाहे वह वित्तीय सहायता हो, स्कूलों, अस्पतालों और इमारतों का निर्माण हो या सैन्य और प्रशासनिक प्रशिक्षण.

भारत का शुरू से मानना रहा है कि अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा मिलना चाहिए और वहां आगे की राजनितिक प्रक्रिया का नेतृत्व अफगान मुख्यधारा के लोग ही करें. अमेरिका ने जब "अच्छा तालिबान, बुरा तालिबान" की बात शुरू की थी और कहा था कि अच्छे तालिबानी गुट से बातचीत की जा सकती है, भारत तब से इस सिद्धांत का विरोध करता आया है.

फिर कैसे अब भारत तालिबान के साथ एक संधि का समर्थन कर रहा है, इस पर भारत के पूर्व विदेश सचिव शशांक ने डॉयचे वेले को बताया कि भारत के पास कोई विकल्प भी नहीं था क्योंकि भारत इस इलाके में बहुत बड़ी ताकत नहीं है. उन्होंने बताया कि भारत अफगानिस्तान में वास्तविक और सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में करीब तीन अरब डॉलर खर्च कर चुका है. इसके अलावा वहां कई तरह के संस्थानों को भारत हर तरह का समर्थन दे रहा है. अगर यह सब खत्म हो गया तो भारत दुनिया को क्या मुंह दिखाएगा.

जानकार मानते हैं कि भारत की सहमति के पीछे राष्ट्रपति ट्रंप की भी बड़ी भूमिका है. उन्होंने हाल ही में हुए अपने भारत के दौरे के अंत में कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अफगानिस्तान के बारे में बात की है और भारत इस प्रक्रिया का पूरी तरह से समर्थन कर रहा है.

विदेशी मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं कि अमेरिका के साथ साथ और भी सभी देशों ने इस प्रक्रिया को मंजूरी दे दी है और सबकी मंजूरी के बाद भारत के लिए इस से मुंह मोड़े रखना संभव नहीं था. आगा भी इस बात को मानते हैं कि भारत ने यह निर्णय अफगानिस्तान में किए गए अपने निवेश को बचाने के लिए लिया है.

इसी बीच, संधि पर हस्ताक्षर होने के ठीक पहले भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला एक दिन की यात्रा पर अफगानिस्तान पहुंच चुके हैं. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने ट्वीट करके बताया कि श्रृंगला अफगानिस्तान के नेताओं से मिल रहे हैं और उन्होंने कहा है कि भारत अफगानिस्तान के लोगों द्वारा किये जा रहे दीर्घकालिक शांति, सुरक्षा और विकास के प्रयासों का समर्थन करता है.

अब देखना यह होगा कि शांति समझौते का यह रास्ता अफगानिस्तान और उसके भविष्य से जुड़े सभी देशों के लिए कितना कारगर सिद्ध होता है.

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