एडीएचस बच्चों में होने वाला एक मनोरोग है और हर क्लासरूम में इसकी एक मिसाल जरूर मिलती है. इस बीमारी से गुजर रहे बच्चे क्लास में ठीक से मन नहीं लगा पाते और माता पिता को भी अक्सर उनकी दिक्कत समझ नहीं आती.
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शुरुआत एक साल पहले हुई. निकलास को स्कूल में मुश्किल होने लगी और मुश्किलें लगातार बढ़ती गई. वह स्कूल में ध्यान नहीं दे पाता, उसकी सोच हमेशा कहीं और होती और वह इतना बेकल रहता कि अक्सर अपनी कुर्सी से नीचे गिर जाता. शिक्षकों के लिए वह पढ़ाई में बाधा डालने वाला छात्र था. उनकी प्रतिक्रिया थी, उसे सजा देना. यह तब तक चलता रहा है जब एक दिन अचानक निकलास बेहोश हो गया और स्कूल को मेडिकल मदद लेनी पड़ी. वह बताता है, "मेरे स्कूल के शिक्षकों ने मेरे साथ कतई अच्छा बर्ताव नहीं किया. हर दिन मेरी नोटबुक में कुछ न कुछ बुरी टिप्पणी लिखी होती कि निकलास ने पढ़ाई में बाधा डाली, कि वह पढ़ाई पर ध्यान नहीं देता है और ये हर दिन. मेरी स्कूल डायरी सिर्फ लाल इंक की टिप्पणियों से भरी है."
बच्चोंकी सपनोंकीदुनिया
समस्या की जड़ थी एडीएचएस यानि अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी सिंड्रोम. इससे पीड़ित छात्रों को अपने विचारों को सिलसिलेवार ढंग से सजाने में कठिनाई होती है. निकलास भी हमेशा अपनी सपनों की दुनिया में खोया रहता. क्लास में टीजर क्या बोल रहे हैं, इस पर ध्यान देने के बदले वह रोमांचक अनुभवों और रहस्यात्मक कथाओं में खोया रहता. एडीएचएस से पीड़ित बच्चों के लिए हकीकत से ज्यादा दिलचस्प कल्पनालोक होता है. निकलास बताता है, "ज्यादातर मैं अपनी सोच के साथ कहीं और होता हूं, जहां मैं आग उगल सकूं या दूसरे चमत्कार कर सकूं. असली दुनिया तो कतई नहीं."
बच्चों को डिप्रेशन से बचाइए
आधुनिक समय में अवसाद से कारण बच्चों और किशोरों में आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. यह पता होना जरूरी है कि वे कौन सी बातें हैं जो बच्चों में अवसाद पैदा करती हैं.
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तनाव
वर्तमान जीवनशैली में बहुत से बच्चे तनाव की भेंट चढ़ रहे हैं. स्कूलों और खेलकूद के क्लबों में उन पर लगातार बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव है. घर वापस आकर भी ढेरों होमवर्क होता है. तनाव शारीरिक तंत्र को कमजोर करता है. तनाव से शरीर में लगातार कॉर्टिसॉल बनता है जो अवसाद की ओर ले जाता है.
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पारिवारिक बिखराव
परिवार में माता पिता के बीच तलाक या लगातार होने वाले झगड़ों का बच्चों पर बुरा असर पड़ता है. जर्नल ऑफ मैरिज एंड फैमिली में छपी रिपोर्ट के मुताबिक टूटे परिवारों से आने वाले बच्चों को अवसाद का ज्यादा खतरा होता है.
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कम खेलकूद
बच्चों के विकास में केलकूद की अहम जगह होती है. खेलकूद से दिमाग को काफी कुछ सीखने और विकास का मौका मिलता है. बच्चों को समस्याएं सुलझाने, क्षमता बढ़ाने और अपनी रुचि को समझने का मौका मिलता है. बच्चों में होने वाली मानसिक बीमारियों के विशेषज्ञ पीटर ग्रे कहते हैं, कम खेलकूद से बच्चों में समस्याओं को सुलझाने की क्षमता में कमी आती है.
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इलेक्ट्रॉनिक खेलों की लत
अमेरिकन जर्नल ऑफ इंडस्ट्रियल मेडिसिन के मुताबिक वे बच्चे जो दिन में पांच घंटे से ज्यादा कंप्यूटर स्क्रीन के सामने बैठकर गेम खेलते हैं, टैबलेट या स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें अवसाद होने की ज्यादा संभावना होती है.
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चीनी का ज्यादा इस्तेमाल
इन दिनों खाने पीने की कई ऐसी चीजें बाजार में मिलती हैं जिनके कारण चीनी का इस्तेमाल बढ़ गया है, जैसे केक, मिठाइयां, कोक और पेप्सी जैसी कार्बोनेटेड ड्रिंक्स. रिसर्चरों के मुताबिक चीनी की ज्यादा मात्रा का संबंध डिप्रेशन और स्कित्जोफ्रेनिया से है. चीनी दिमाग के विकास के हार्मोन को भी प्रभावित करती है. डिप्रेशन और स्कित्जोफ्रेनिया के मरीजों में इस हार्मोन का स्तर कम पाया जाता है.
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एंटीबायोटिक का इस्तेमाल
मैकमास्टर यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने चूहों को एंटीबायोटिक देकर उनपर टेस्ट किया और पाया कि ऐसे चूहे आसानी से बेचैनी के शिकार हो जाते हैं और उनके दिमाग का वह हिस्सा प्रभावित होता है जो भावनाओं के लिए जिम्मेदार होता है.
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टॉक्सिन से बचें
हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित है. फसलों में इस्तेमाल होने वाले पेस्टिसाइड, सफाई के लिए इस्तेमाल हो रही सामग्री, खाद्य सामग्री में मिलावट और गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण, सभी हमारे शरीर को विषैला कर रहे हैं. इन विषैले तत्वों के शरीर में पहुंचने से बेचैनी और अवसाद की समस्याएं बढ़ती हैं.
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माता-पिता और टीचरों की जिम्मेदारी
बाल और किशोर मनोचिकित्सक प्रोफेसर मिषाएल शुल्टे मार्कवोर्ट ने निकलास का इलाज किया. वे मरीजों के दिमाग के अंदर झांकते हैं. वे बताते हैं, "मेरे विचार में एडीएचएस से पीड़ित मरीज के नजरिए से दुनिया अत्यंत रोमांचक और दिलचस्प उत्तेजना से भरी है. वे एकदम चौकन्ने होते हैं और एक आग से दूसरी आग में कूदते रहते हैं, वे कुछ भी पूरा नहीं कर सकते और किसी काम को शांति में अंत तक नहीं कर सकते."
एडीएचएस सिर्फ इससे पीड़ित बच्चों के लिए ही बोझ नहीं होता. उनके माता-पिता और टीचर भी बच्चे के दिखने वाले व्यवहार से परेशान रहते हैं. लेकिन इस पर काबू पाने के रास्ते भी हैं. प्रोफेसर मार्कवोर्ट का कहना है, "एडीएचएस को डील करने का पहला कदम है उसके बारे जानना. माता-पिता को पता होना चाहिए कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है. शिक्षकों को भी. जरूरत होती है कि बच्चों को गाइड किया जाए, उसके दिन को एक संरचना दी जाए."
दुनिया भर की कक्षाएं
बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं, यह एक सर्वमान्य तथ्य है. बेहतर प्राथमिक शिक्षा तय करती है कि देश की प्रगति कैसी होगी. एक नजर दुनिया भर के प्राथमिक स्कूलों की कक्षाओं पर.
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स्कूल का अर्थ
दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं? हर जगज टीचर ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में अंतर दिखता है. कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाऊ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कहीं लैपटॉप के सामने.
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डिजिटल टेक्स्टबुक
दक्षिण कोरिया की शिक्षा प्रणाली में डिजिटल मीडिया का अत्यधिक चलन है. हर कक्षा में कंप्यूटर और इंटरनेट मौजूद होता है. सरकार किताबों की जगह ई-बुक्स इस्तेमाल करना चाहती है. इसे बढ़ावा देने के लिए गरीब से गरीब परिवार को भी टेबलेट पर्सनल कंप्यूटर मुफ्त दिये जा रहे हैं.
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देहाती इलाकों को नुकसान
किताबों और चार्टों को डिजिटलाइज किया जा सकता है लेकिन सीखने का तरीका मानव स्वभाव का हिस्सा है और इसे डिजिटलाइज नहीं किया जा सकता. छह साल तक स्कूली पढ़ाई मुफ्त करने के बाद घाना में अब सारक्षता का स्तर काफी ऊंचा हो चुका है. वैसे तो वहां स्कूल की पढ़ाई नौ साल की है, लेकिन देहाती इलाकों के स्कूली बच्चे पढ़ाई के बावजूद आधिकारिक भाषा अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं.
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मुश्किल शुरूआत
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी के आरोप लगते हैं, लेकिन आरोप लगाने वाले भी जानते हैं कि हालात आज भी बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं. ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों की दशा दयनीय है, ज्यादातर स्कूलों में शौचालय तक नहीं हैं. कई इलाकों में एक से पांचवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए सिर्फ एक या दो शिक्षक मौजूद रहते हैं.
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टचपैड पर लिखने की सीख
जर्मनी के इस स्कूल में नन्हे बच्चे पेंसिल से कॉपी पर लिखना नहीं सीखते. यहां लिखने के लिए स्मार्टबोर्ड का इस्तेमाल किया जाता है. कोशिश है कि बच्चे तकनीक के साथ घुलें मिलें.
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औद्योगिक देशों में प्राथमिक शिक्षा
औद्योगिक देशों में स्कूल का मतलब प्राथमिक शिक्षा से कहीं ज्यादा है. अमेरिका के आयोवा में ये चार साल के बच्चे अपने टीचर को ध्यान से सुन रहे हैं. औद्योगिक देशों में 70 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूल से पहले किंडरगार्डेन में कुछ कुछ सीखना शुरू कर देते हैं. कम आय वाले देशों में 20 में से सिर्फ तीन ही बच्चों को ऐसी सुविधा मिल पाती है.
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पैसे की कमी का असर
केन्या में सभी बच्चों के लिए आठ साल की स्कूली शिक्षा नि:शुल्क है. लेकिन इसके बावजूद सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. कई अभिभावकों के लिए स्कूल की पोशाक, जूते, किताबें, कॉपिया और पेन जुटाना मुश्किल होता है. सरकारी स्कूलों में भारी भीड़ के बावजूद पढ़ाई लिखाई के लिए अच्छा माहौल नहीं है. ठीक ठाक कमाई वाले लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.
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पढ़ाई स्कूल की यूनिफॉर्म में
इंग्लैंड में ज्यादातर बच्चे यूनिफॉर्म में स्कूल जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि यूनिफॉर्म के जरिए बच्चे खुद को स्कूल की पहचान से जोड़ पाते हैं और बेहतर ढंग से सीखते हैं. लेकिन विकास करते देशों में जो लोग अपने बच्चों के लिए यूनिफॉर्म नहीं खरीद सकते, वो सरकारी मदद की आस में रहते हैं.
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खुले में कक्षा
स्कूल तो बच्चे तब जाएंगे जब स्कूल होगा. पाकिस्तान के कुछ इलाकों में बच्चों को सार्वजनिक पार्कों में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तान ने शिक्षा पर खर्च घटाया है. देश शिक्षा के बजाए सेना पर ज्यादा खर्च करता है.
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आधारभूत शिक्षा के लिए संघर्ष
अफगानिस्तान की आबादी का अच्छा खासा हिस्सा बिना किसी शिक्षा के बड़ा हुआ है. देश में तालिबान के शासन के दौरान छिड़े गृह युद्ध के चलते ऐसा हुआ. अफगानिस्तान की सिर्फ 25 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं. पुरुषों में सारक्षता 52 फीसदी है. देश में अब भी पर्याप्त स्कूल, शिक्षक और सामग्री का अभाव है.
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पिछड़ती बेटियां
ऐसे ही हालात दक्षिण सूडान में भी हैं, जहां सिर्फ 16 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं. विदेशी मदद संगठन यहां लड़कियों को शिक्षित करने पर जोर दे रहे हैं. लंबे गृह युद्ध का असर यहां के स्कूलों पर पड़ा है. कुछ ही स्कूल सुरक्षित बचे हैं और उनमें भी फर्नीचर का अभाव है. किताबें भी आधे स्कूलों के पास हैं.
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विशाल अंतर
ब्राजील के दूर दराज के इलाकों के स्कूल भी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. ब्राजील को तेजी से औद्योगिक होता देश कहा जाता है लेकिन इसके बावजूद वहां अमीर और गरीब का फासला फैलता जा रहा है. पूर्वोत्तर ब्राजील में खेती करने वाले आज भी बेहद गरीबी में जी रहे हैं.
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दवाओं से इलाज मुमकिन
अपने खाली समय में निकलास अपनी अतिरिक्त ऊर्जा से छुटकारा पा सकता है, खेलकूद के जरिए उसका इस्तेमाल कर सकता है. हरकत में रहने के उतावलेपन को रोक कर वह स्कूल में शांत रहता है. दवाएं विचारों को सजाने में उसकी मदद करती हैं जिससे वह अपना ध्यान क्लास में पढ़ाई पर लगा सकता है. चिकित्सीय देखभाल और स्कूल बदलने से वह अपनी मुश्किलों से बेहतर तरीके से निबट पा रहा है, "ऐसी चीजें भी हैं जो मैं पूरे मन के साथ करता हूं. मसलन फुटबॉल के खेल के दौरान मुझे पूरी तरह एकाग्र रहना होता है. वियोला बजाते समय या फिर फिल्म देखते समय भी."
पहली नजर में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे लगे कि निकोलास एडीएचएस से पीड़ित है. वह संगीत बजाता है, अच्छा स्टोरीटेलर है और उसमें कई और प्रतिभाएं भी हैं. एक युवा हीरो जो सपनों की दुनिया से असली दुनिया में लौटने में कामयाब रहा है. एक दुनिया जो उसके लिए अभिशाप भी थी और आसरा भी.
एमजे/आईबी
क्यों खास है फिनलैंड का शिक्षा मॉडल
शिक्षा और साक्षरता के मामले में विकसित देशों में फिनलैंड का स्थान काफी ऊंचा है. इसका कारण फिनलैंड की असाधारण शिक्षा प्रणाली को बताया जाता है. देखिए क्या हैं वे खास बातें.
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देर से शुरुआत
अंतरराष्ट्रीय स्कूलों की रैंकिंग में लगातार टॉप पर रहने वाले फिनलैंड के स्कूलों की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को आदर्श माना जाता है. पहला कारण बच्चों को ज्यादा लंबे समय तक बच्चे बने रहने देना है. यहां बच्चे करीब सात साल की उम्र में स्कूल जाना शुरु करते हैं जबकि भारत में 3 साल में.
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खेल खेल में पढ़ाई
बच्चों को हर घंटे के हिसाब से कम से कम 15 मिनट खेल के मैदान में बिताने ही होते हैं. ऐसा पाया गया है कि खेल के बाद बच्चों का पढ़ाई में काफी ध्यान लगता है. जिसको ध्यान में रखते हुए फिनलैंड में बच्चों को लगातार कक्षा में नहीं बैठाया जाता.
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परीक्षा का बोझ नहीं
फिनलैंड का राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड बताता है कि "शिक्षा का जोर परखने से अधिक सिखाने पर है." यहां हाई स्कूल में स्कूल छोड़ने के पहले एक अनिवार्य परीक्षा देनी होती है. उसके पहले की क्लासों में शिक्षक बच्चों के असाइनमेंट पर विस्तार से केवल अपना फीडबैक देते हैं, कोई ग्रेड या अंक नहीं.
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शिक्षक का सम्मान
फिनलैंड में शिक्षकों को नए नए प्रयोग करने की पूरी आजादी होती है. शिक्षक का पेशा बहुत इज्जत से देखा जाता है और इसके लिए आपको कम से कम मास्टर्स डिग्री लेना जरूरी होता है. ओईसीडी का सर्वे दिखाता है कि शिक्षक बच्चों पर होमवर्क का बोझ भी नहीं डालते. फिनलैंड के किशोर हफ्ते में औसतन 2.8 घंटे ही होमवर्क में लगाते हैं.
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हर हुनर की कीमत
फिनलैंड में 1960 के दशक में नए शिक्षा सुधार लाए गए. यह सबके लिए मुफ्त और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराने के सिद्धांत पर आधारित है. यहां हर बच्चे पर ध्यान देकर उसके किसी खास हुनर को पहचानने और उसे बढ़ावा देने पर जोर होता है.
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डिजिटल दुनिया के लिए तैयार
दुनिया में कुछ ही देशों में बच्चों को डिजिटल युग के लिए ठीक से तैयार किया जा रहा है. फिनलैंड उनमें से एक है क्योंकि 2016 तक ही यहां के सभी प्राइमरी स्कूलों में कोडिंग उनके पाठ्यक्रम का एक मुख्य विषय होगा. कोडिंग की मदद से ही कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, ऐप और वेबसाइटें बनाई जाती हैं.
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मुफ्त पर बहुमूल्य शिक्षा
फिनलैंड में केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कॉलेज की पढ़ाई भी मुफ्त है. यहां प्राइवेट स्कूल नहीं होते. धीमी गति से सीखने वाले बच्चों के लिए खास संस्थान हैं. सालाना करीब दो प्रतिशत बच्चे इन विशेष संस्थानों में जाते हैं.