सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की वजह से शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के एक विशेष पहलू पर फिर से बहस शुरू हो गई है. अदालत ने अनुसूचित जातियों की कुछ उपश्रेणीयों के लिए कोटा के अंदर कोटा की अनुमति दे दी है.
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पांच जजों की पीठ ने कोटा के अंदर कोटा के सिद्धांत को मंजूरी तो दे दी, लेकिन मामले को सात जजों की एक पीठ को भी सौंप दिया.ऐसा इसलिए क्योंकि 2005 में पांच जजों की ही एक पीठ ने इसके खिलाफ फैसला दिया था और एक पीठ के फैसले को उलटने का अधिकार केवल उससे बड़ी पीठ को ही होता है. सात जजों की नई पीठ का गठन अभी नहीं हुआ है. जब भी बड़ी पीठ का गठन होता है, वो इन दोनों फैसलों पर फिर से विचार करेगी.
कई राज्यों का कहना है कि अनुसूचित जातियों में कुछ जातियां दूसरों के मुकाबले पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल नहीं कर पाती हैं. कई राज्य इस विषय पर पहले ही कदम उठा चुके हैं. जैसे बिहार सरकार ने 2007 में महादलित आयोग बना कर अनुसूचित जातियों में भी 21 जातियों को सबसे पिछड़ा बताया और उनके लिए कई सरकारी योजनाएं शुरू कीं. तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों के लिए कोटा के अंदर अरुंधतियार जाति के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है.
इसी तरह आंध्र प्रदेश विधान सभा ने 2000 में एक कानून पारित कर 57 अनुसूचित जातियों को उपसमूहों में बांट दिया था और उनकी आबादी के अनुपात में अनुसूचित जातियों के लिए उपलब्ध 15 प्रतिशत कोटा को बांट दिया था. हालांकि इस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने उसी 2005 के फैसले में गैरकानूनी ठहरा दिया था जिसमें उसने अनुसूचित जातियों और जनजातियों में उपश्रेणियों के लिए कोटा के अंदर कोटा के खिलाफ फैसला दिया था.
बहस के केंद्र में भारत के संविधान में लिखे हुए आरक्षण के प्रावधान हैं, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को एक ही समूह के रूप में देखते हैं. पिछले कुछ दशकों में "क्रीमी लेयर" का एक सिद्धांत सामने आया है, जिसके तहत अलग अलग जातियों से जुड़े परिवारों की आय के आधार पर उन जातियों की कम वंचित या ज्यादा वंचित के रूप में पहचान की जाती है.
क्रीमी लेयर सिद्धांत सबसे पहले अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी में कम पिछड़े और ज्यादा पिछड़े वर्गों में अंतर करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. हालांकि सितंबर 2018 में पदोन्नति में आरक्षण पर एक मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में भी इस सिद्धांत को मान्य ठहराया. केंद्र सरकार ने इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी, लेकिन उस पर अभी तक फैसला नहीं आया है.
इस विषय का केंद्र सरकार द्वारा स्थापित उषा महरा आयोग ने भी अध्ययन किया था और 2008 में दी गई अपनी रिपोर्ट में अनुसूचित जातियों में उपश्रेणियां बनाने के लिए संविधान संशोधन करने का प्रस्ताव दिया था. जब केंद्र ने इस प्रस्ताव पर सभी राज्यों से राय मांगी, तब सिर्फ सात राज्यों ने इस से सहमति जताई जबकि 14 राज्यों ने समर्थन नहीं किया.
पांच राज्यों और दो केंद्र-शासित प्रदेशों की राय का अभी भी इंतजार है, इसलिए केंद्र ने संविधान संशोधन की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया है.अब मामला अदालत के हाथ में है. जब मुख्य न्यायाधीश सात सदस्यों की एक पीठ को यह मामला सौंपेंगे, तब देखना होगा कि बड़ी पीठ क्या निर्णय करती है.
लंबे समय तक हाशिए पर रहा दलित समाज अब राजनीतिक रूप से जागरुक नजर आने लगा है. पिछले कुछ समय में ऐसे कई मौके आए जब दलितों ने अपनी आवाज बुलंद की और विरोध प्रदर्शन भी किए. एक नजर दलित आंदोलनों पर
तस्वीर: AP
दलित-मराठा टकराव (जनवरी 2018)
महाराष्ट्र में साल 2018 की शुरुआत दलित-मराठा टकराव के साथ हुई. भीमा-कोरेगांव लड़ाई की 200वीं सालगिरह के मौके पर पुणे के कोरेगांव में दलित और मराठा समुदायों के बीच टकराव हुआ जिसमें एक युवक की मौत हो गई. मामले ने तूल पकड़ा और पूरे महाराष्ट्र में इसकी लपटें नजर आने लगीं. दलितों संगठनों ने 3 जनवरी को महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया. इस बीच प्रदेश के अधिकतर इलाकों से हिंसा, आगजनी की खबरें आती रहीं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. Maqbool
सहारनपुर में ठाकुर-दलित हिंसा (मई 2017)
साल 2017 में उत्तर प्रदेश का सहारनपुर दलित विरोध का केंद्र बना रहा. क्षेत्र में दलित-ठाकुरों के बीच महाराणा प्रताप जयंती कार्यक्रम के बीच टकराव हुआ. इसके चलते दोनों पक्षों के बीच पथराव, गोलीबारी और आगजनी भी हुई. विरोध इतना बढ़ा कि मामला दिल्ली पहुंच गया. जातीय हिंसा के विरोध में दिल्ली के जंतर-मंतर पर दलितों की भीम आर्मी ने बड़ा प्रदर्शन किया.
तस्वीर: Reuters/A. Dave
गौ रक्षकों के खिलाफ गुस्सा (जुलाई 2016)
जुलाई 2016 में गुजरात के वेरावल जिले के ऊना में कथित गौ रक्षकों ने गाय की खाल उतार रहे चार दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी. इनमें से एक युवक की मौत हो गई थी. घटना का वीडियो वायरल हुआ. गुजरात में दलित समुदायों ने इसका जमकर विरोध किया. विरोध प्रदर्शन के दौरान करीब 16 दलितों ने आत्महत्या की कोशिश भी की. इस मामले की गूंज संसद तक पहुंची.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky
कोपर्डी गैंगरेप केस (जुलाई 2016)
यह एक ऐसा मामला था जिसमें मराठा समुदाय की ओर से एससी/एसटी कानून को खत्म किए जाने की मांग की गई. 13 जुलाई 2016 को मराठा समुदाय की एक 15 साल वर्षीय लड़की को अगवा कर उसका गैंगरेप किया गया. जिसके बाद उसकी हत्या कर दी गई. महाराष्ट्र में इस घटना के खिलाफ काफी प्रदर्शन हुआ था जिसने बाद में मराठा आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया. मामले में तीन दलितों को दोषी करार दिया गया जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई.
तस्वीर: Reuters/S. Andrade
रोहित वेमुला की आत्महत्या (जनवरी 2016)
हैदराबाद यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देश में दलितों और छात्रों के बीच एक नया आंदोलन छेड़ दिया. यूनिवर्सिटी के छात्र संगठनों ने प्रशासन पर भेदभाव का आरोप लगाया. रोहित ने अपने सुसाइड नोट में विश्वविद्यालय को जातिवाद, चरमपंथ और राष्ट्रविरोधी तत्वों का गढ़ बताया था. इसके बाद देश भर में दलित आंदोलन हुए और मामला देश की संसद तक पहुंचा.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
खैरलांजी हत्याकांड (सितंबर 2006)
जमीनी विवाद के चलते महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में 29 सितंबर को एक दलित परिवार के 4 लोगों की हत्या कर दी गई थी. परिवार की दो महिला सदस्यों को हत्या के पहले नंगा कर शहर भर में घुमाया गया था. इस घटना के विरोध में पूरे महाराष्ट्र में दलित प्रदर्शन हुए थे. सीबीआई ने अपनी जांच में गैंगरेप की बात को नकार दिया था. दोषियों को मौत की सजा मिली थी, जिसे बंबई हाईकोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया.