उद्योग फिर शुरू करने के लिए श्रम कानूनों के पालन से छूट
८ मई २०२०तालाबंदी से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आर्थिक गतिविधि फिर से शुरू करने के लिए हर संभव प्रोत्साहन देना चाह रही हैं. लेकिन इन कोशिशों में श्रम कानूनों को जिस तरह ताक पर रखा जा रहा है, उससे लग रहा है कि सरकारें सिर्फ व्यवसायियों के बारे में सोच रही हैं और श्रमिकों के हितों को नजरअंदाज कर रही हैं. अभी तक कम से कम दो राज्यों में ऐसे नियमों की घोषणा की गई है जिन्हें संज्ञा तो श्रम-सुधार की दी जा रही है लेकिन उनकी असलियत कुछ और है.
उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने एक अध्यादेश पास कर प्रदेश में सभी उद्योगों को तीन साल तक सिर्फ चार श्रम कानूनों को छोड़ कर बाकी सभी श्रम कानूनों के पालन से छूट दे दी है. जिन चार का पालन करना होगा वो हैं बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स एक्ट, पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट का सेक्शन पांच, वर्कमेन कंपनसेशन एक्ट और बॉन्डेड लेबर एक्ट. कम से कम 14 ऐसे महत्वपूर्ण कानून हैं जिनके पालन से उद्योगों को छूट मिल जाएगी.
जानकारों का मानना है कि इससे उद्योगों को श्रमिकों के साथ हर तरह की मनमानी करने का मौका मिल जाएगा. फैक्ट्री मालिक अपनी शर्तों पर लोगों को नौकरी या ठेके पर रख सकेंगे, अपने हिसाब से उनका वेतन तय करेंगे, अपने हिसाब से वेतन में कटौती की शर्तें भी बनाएंगे और अपनी सुविधानुसार और अपनी शर्तों पर लोगों को नौकरी से निकाल भी सकेंगे. इसके अलावा कार्यस्थल पर सुरक्षा में मानकों का पालन करने में भी उद्योग मनमानी कर पाएंगे.
न्यूनतम वेतन के मानकों का पालन नहीं होगा, श्रमिकों को यूनियन बनाने और यूनियनों की गतिविधियों में भाग लेने की छूट नहीं होगी, औद्योगिक विवादों का निपटारा कानूनी तरीके से नहीं हो पाएगा, श्रमिक बोनस की मांग नहीं कर पाएंगे, उनकी सामजिक सुरक्षा का ध्यान रखना भी उद्योग मालिकों के लिए आवश्यक नहीं होगा.
इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार ने भी प्रदेश में कई श्रम कानूनों के पालन से नियोक्ताओं को 1,000 दिन यानी ढाई साल से ज्यादा समय के लिए छूट दे दी है. कर्मचारियों के काम करने के घंटों को प्रतिदिन आठ घंटों से बढ़ा के 12 घंटे तक बढ़ा देने की छूट दे दी गई है. यहां भी फैक्ट्री मालिकों को श्रमिकों और कर्मचारियों को अपनी शर्तों पर नौकरी या ठेके पर रखने की और निकाल देने की भी छूट दे दी गई है. नई फैक्ट्रियां को श्रम विभाग के इंस्पेक्शन से, सालाना रिटर्न्स भरने से और राज्य श्रम कल्याण बोर्ड में योगदान देने से भी छूट मिलेगी.
20 से कम कर्मचारियों को रखने वाले ठेकेदारों को पंजीकरण से भी छूट दे दी गई है. कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार फैक्ट्री मालिकों को कर्मचारियों को कार्यस्थल पर रोशनी, वेंटिलेशन, शौचालय, बैठने की व्यवस्था, फर्स्ट एड की व्यवस्था, साप्ताहिक अवकाश जैसी न्यूनतम सुविधाएं देना भी अनिवार्य नहीं होगा. राज्य अपने स्तर पर इनमें से जितनी रियायतें लागू कर सकते थे, वो कर चुके हैं. चूंकि श्रम संविधान की कॉन्करेन्ट सूची में आता है, इसलिए कई बड़े निर्णयों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति मांगी गई है.
श्रम कानून के विशेषज्ञ इन निर्णयों की निंदा कर रहे हैं और ट्रेड यूनियनों में इन्हें लेकर बहुत आक्रोश है. श्रम मामलों के अधिवक्ता अशोक अग्रवाल ने डीडब्ल्यू से बातचीत में इन निर्णयों को "भारत के गरीब लोगों के साथ किया जाने वाला सबसे बड़ा छल बताया." उन्होंने कहा, "केंद्र सरकार भी हायर एंड फायर और ऐसी चीजें पहले से लागू करना चाह रही थी. इस अवधि में गरीब श्रमिकों को संरक्षण देने की बजाय उनके हालात का फायदा उठा कर वही एजेंडा लागू किया जा रहा है."
ट्रेड यूनियन इन रियायतों की कड़ी निंदा कर रहे हैं. सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के सदस्य अनुराग सक्सेना ने डीडब्लू से बातचीत में कहा कि हम इनका पुरजोर विरोध कर रहे हैं. अनुराग ने सीटू द्वारा जारी वक्तव्य के बारे में भी बताया जिसमें संगठन ने इसे सरकार द्वारा कामगारों पर गुलामी जैसे नियम थोपने का कदम बताया है. सीटू ने आशंका जताई है कि संभव है कि आने वाले दिनों में अधिकतर राज्य सरकारें यही रास्ता अपनाएं और इसीलिए इसका मुकाबला करने के लिए सीटू ने सभी श्रम संगठनों को एकजुट होने के लिए कहा है.
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