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क्या टूट गया लालू के जातीय ध्रुवीकरण का तिलस्म

५ जून २०१९

भारत की राजनीति में मनोरंजक और चुटीले बयानों के लिए विख्यात राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद हाल के लोकसभा चुनाव में नहीं दिखे. लोगों की नब्ज पहचानने वाले नेता की अनुपस्थिति का खामियाजा उनके दल को उठाना पड़ा.

Indien Lalu Prasad Yadav
तस्वीर: imago/Hindustan Times

केंद्र में कभी 'किंगमेकर' की भूमिका निभाने वाले लालू आज उस बिहार से करीब 350 दूर झारखंड की राजधानी रांची की एक जेल में सजा काट रहे हैं, जहां उनकी खनक सियासी गलियारे से लेकर गांव के गरीब-गुरबों तक में सुनाई देती थी. लोकसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीतने वाली राजद के साथ बिना शर्त गठबंधन करने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता भी अब राजद पर सवाल उठाने लगे हैं. इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने जातीय समीकरण की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद के इस तिलस्म को तोड़ दिया है.

बिहार की राजनीति पर नजदीकी नजर रखने वाले संतोष सिंह की चर्चित पुस्तक 'रूल्ड ऑर मिसरूल्ड द स्टोर एंड डेस्टिनी ऑफ बिहार' में कहा गया है कि बिहार में 'जननायक' कर्पूरी ठाकुर की मौत के बाद लालू प्रसाद ने उनकी राजनीतिक विरासत संभालने वाले नेता के रूप में पहचान बनाई और उन्हें काफी सफलता भी मिली. सिंह कहते हैं कि उन्होंने गरीबों के बीच जाकर अपनी खास पहचान बनाई और गरीबों के नेता के रूप में खुद को स्थापित किया. इससे पहले लालू प्रसाद ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन में सक्रिय भाग लेकर अपनी राजनीति का आगाज किया था. 1977 के चुनाव में लालू यादव को जनता पार्टी से टिकट मिला और वह पहली बार संसद पहुचे. सांसद बनने के बाद लालू का कद राजनीति में बड़ा होने लगा और वह साल 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.

2014 के बाद लालू ने भाजपा विरोधी मोर्चेबंदी की थी.तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Hussain

अपनी पार्टी अपनी सरकार

वर्ष 1997 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने राजद का गठन किया. इस दौरान लालू से उनके विश्वासपात्र और बड़े नेता उनका साथ छोड़ते रहे पर 2015 तक बिहार की सत्ता पर उनकी भूमिका रही. सिंह ने अपनी पुस्तक में कहा है, "भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम मतदाता जहां कांग्रेस से बिदककर राजद की ओर बढ़ गए, वहीं यादव मतदाता स्वजातीय लालू को अपना नेता मान लिया." इसी दौरान चर्चित चारा घोटाले में आरोपपत्र दाखिल होने के कारण लालू को बड़ा झटका लगा.

इस बीच, नीतीश कुमार ने भी नए 'सोशल इंजीनियरिंग' का तानाबाना बुनकर उसमें सुशासन और विकास को जोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से गठबंधन कर बिहार की सत्ता से लालू को उखाड़ फेंका. राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र किशोर कहते हैं, "लालू प्रसाद का वह स्वर्णिम काल था. इस समय में वह किंगमेकर तक की भूमिका में आ गए थे. हालांकि 1997 में चारा घोटाला मामले में आरोपपत्र दाखिल हुआ और 2013 में लालू को जेल भेज दिया गया. उसके बाद उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लग गई." किशोर कहते हैं, "इसके बाद बिहार के लोगों को विकल्प के तौर पर नीतीश कुमार मिल गए. जब मतदाता को स्वच्छ छवि का विकल्प उपलब्ध हुआ तो मतदाता उस ओर खिसक गए."

लालू के बेटे तेजस्वी के नेतृत्व में लोकसभा में राजद का खाता भी नहीं खुल सका.तस्वीर: Imago/Hindustan Times/A. Yadav

नीतीश का सहारा छूटा

हालांकि विधानसभा चुनाव 2015 में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की पार्टी गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरी और विजयी भी हो गई, परंतु कुछ ही समय के बाद लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे और नीतीश को लालू का साथ छोड़ देना पड़ा. नीतीश का अलग होना लालू के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था. रातों रात लालू प्रसाद एक बार फिर राज्य की सत्ता से बाहर हो गए और उनकी पार्टी विपक्ष की भूमिका में आ गई. इसके बाद लालू पर पुराने चारा घोटाले के कई अन्य मामलों में भी सजा हो गई.

इस साल के लोकसभा चुनाव से पार्टी को बड़े परिणाम की आशा थी, मगर जातीय गणित का तिलस्म भी इस चुनाव में काम नहीं आया और 'किंगमेकर' की भूमिका निभाने वाले लालू को एक अदद सीट के भी लाले पड़ गए. लालू को नजदीक से जानने वाले किशोर कहते हैं कि इस चुनाव में मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी राजद से दूर हो गए. यही कारण है कि कई मुस्लिम बहुल इलाकों में भी राजद को कारारी हार का सामना करना पड़ा. लालू के जेल जाने के बाद दोनों बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप में विरासत की लड़ाई शुरू हो गई. लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप की 2018 में शादी हुई, पर कुछ दिन के बाद ही तेजप्रताप तलाक के लिए अदालत की शरण में पहुंच गए. राजद की स्थिति यह हो गई है कि लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से दो बार हार का समाना करना पड़ा.

रिपोर्ट: मनोज पाठक (आईएएनएस)

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