पिछले कई वर्षों तक ऊंचाईयों को छूने वाली तुर्की की अर्थव्यवस्था अब हांफ रही है. बहस शुरू हो चुकी है कि क्या तुर्की उसी आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है जहां 10 साल पहले उसका पड़ोसी ग्रीस खड़ा था?
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2018 में तुर्की की मुद्रा लीरा की कीमतों में करीब 40 फीसदी की गिरावट देखी गई. सालाना महंगाई दर 100 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है. लोग रोजमर्रा की जरूरतों के बढ़ते दामों को लेकर परेशान हैं.
विदेशी कर्ज का बोझ
तुर्की के आर्थिक संकट को समझने के लिए एक दशक पहले जाना होगा. 2008 के वित्तीय संकट के बाद अमेरिका समेत दुनिया के तमाम विकसित देशों ने विकास के लिए ब्याज दरें घटाईं ताकि उद्योगों को आसानी से सस्ता कर्ज मिल सके. तुर्की को कई यूरोपीय व अमेरिकी बैंकों से सस्ता कर्ज मिला, जिसके बाद वहां के रियल एस्टेट और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा मिला. न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक चूंकि तुर्की विदेशी मुद्रा के कर्ज पर अधिक निर्भर था, इसलिए यही उसके मौजूदा आर्थिक संकट की एक वजह है. पश्चिमी एशिया के विशेषज्ञ और जेएनयू में प्रोफेसर आफताब कमाल पाशा ने डॉयचे वेले से कहा, ''तुर्की की अर्थव्यवस्था में विदेशी मुद्रा का दबदबा है और कुल कर्ज में 70 फीसदी से अधिक हिस्सा डॉलर में लिया गया कर्ज है.''
बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़ें बताते हैं कि स्पेन के बैंक ने तुर्की को 83 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज दिया है, जबकि फ्रांस का 38.4 अरब डॉलर, इटली के बैंकों का 17 अरब डॉलर और जापान के बैंकों का 14 अरब डॉलर तुर्की की अर्थव्यवस्था में लगा है.
इस बीच अमेरिका के कड़े रुख ने आग में घी का काम किया है. जुलाई 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तुर्की से आनेवाले स्टील और अल्युमिनियम पर आयात शुल्क दोगुना कर दिया. अब तक ईरान के तेल और गैस की पाइपलाइनों की बदौलत तुर्की को फायदा मिलता रहा था, लेकिन ईरान पर ट्रंप सरकार की सख्ती के बाद तुर्की को भी खामियाजा भुगतना पड़ा. इस तरह मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वजह से बढ़त हासिल कर रहे तुर्की पर अमेरिकी नीतियों की दोहरी मार पड़ी है. प्रो. पाशा कहते हैं कि आज की तारीख में तुर्की की अल्युमिनियम की फैक्टरियों के बंद होने का खतरा है. मजदूरों में रोजगार छिनने का डर है.
सारी शक्तियां एर्दोवान के पास
बारह साल प्रधानमंत्री रहे रेचेप तैयप एर्दोवान 2014 में राष्ट्रपति बने और 2018 में चुनाव जीतकर फिर पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन गए. अब तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है. राष्ट्रपति ही अब सरकार का प्रमुख होगा. तुर्की में नए सिस्टम के तहत राष्ट्रपति को ही बजट का मसौदा तैयार करना है. यानि राष्ट्रपति एर्दोवान पहले से ज्यादा शक्तिशाली हो गए हैं.
और ताकतवर हुए तुर्की के एर्दोवान, मिली ये शक्तियां
तुर्की में रेचेप तैयप एर्दोवान फिर पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं. तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है जिसमें एर्दोवान के पास पहले से कहीं ज्यादा शक्तियां होंगी. एक नजर उनकी ताकतों पर:
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पीएम पद खत्म
तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है. राष्ट्रपति ही अब कैबिनेट की नियुक्ति करेगा. साथ ही उसके पास उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का अधिकार होगा. कितने उपराष्ट्रपति नियुक्त करने हैं, यह राष्ट्रपति को तय करना है.
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नहीं चाहिए संसद की मंजूरी
मंत्रालयों के गठन और नियमन के लिए राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने में सक्षम होंगे. साथ ही नौकरशाहों की नियुक्ति और उन्हें हटाने का फैसला भी राष्ट्रपति करेंगे. इसके लिए उन्हें संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी.
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अध्यादेश की सीमाएं
राष्ट्रपति के ये अध्यादेश मानवाधिकार या बुनियादी स्वतंत्रताओं और मौजूदा कानूनों को खत्म करने पर लागू नहीं होंगे. अगर राष्ट्रपति के अध्यादेश कानूनों में हस्तक्षेप करते हैं तो इस स्थिति में अदालतें फैसला करेंगी.
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आलोचकों की चिंता
आलोचकों का कहना है कि कानूनी संहिता में स्पष्टता की कमी है. साथ ही देश की न्यायपालिका में निष्पक्षता की कमी झलकती है. ऐसे में, इस बात की उम्मीद नहीं है कि अदालतें स्वतंत्र हो कर फैसले दे पाएंगी.
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तो अमान्य होंगे अध्यादेश
राष्ट्रपति को कार्यकारी मामलों पर अपने अध्यादेशों के लिए संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन अगर संसद ने भी उसी मुद्दे पर कोई कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति का अध्यादेश फिर अमान्य हो जाएगा.
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इमरजेंसी
राष्ट्रपति देश में छह महीने तक इमरजेंसी लगा सकते हैं और इसके लिए उन्हें कैबिनेट से मंजूरी हासिल नहीं करनी होगी. इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति के अध्यादेश मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर भी लागू होंगे.
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इमरजेंसी में संसद अहम
इरमजेंसी के दौरान जारी होने वाले राष्ट्रपति के अध्यादेशों पर तीन महीने के भीतर संसद की मंजूरी लेना जरूरी होगी. संसद की मंजूरी के बिना अध्यादेशों की वैधता नहीं होगी.
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संसद का अधिकार
राष्ट्रपति छह महीने की इमरजेंसी तो लगा सकते हैं, लेकिन इस फैसले को उसी दिन संसद के पास भेजा जाएगा. संसद के पास इमरजेंसी की अवधि कम करने, उसे बढ़ाने या फिर इस फैसले को ही रद्द करने का अधिकार होगा.
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बजट
तुर्की में नए सिस्टम के तहत राष्ट्रपति को ही बजट का मसौदा तैयार करना है. अब तक यह जिम्मेदारी संसद के पास थी. अगर संसद राष्ट्रपति की तरफ से प्रस्तावित बजट को नामंजूर करती, तो फिर पिछले साल के बजट को ही "पुनर्मूल्यन दर" के हिसाब से बढ़ाकर लागू कर दिया जाएगा.
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राष्ट्रपति का शिकंजा
सरकारी और निजी संस्थाओं पर नजर रखने वाली संस्था स्टेट सुपरवाइजरी बोर्ड को प्रशासनिक जांच शुरू करने का अधिकार होगा. यह बोर्ड राष्ट्रपति के अधीन है. ऐसे में, सैन्य बलों समेत बहुत सारे समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति के अधीन होंगे.
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सांसद नहीं बनेंगे मंत्री
संसद की सीटों को 550 से बढ़ाकर 600 किया जाएगा. चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम उम्र अब 25 से घटाकर 18 साल कर दी गई है. कोई भी सांसद मंत्री नहीं बन पाएगा. यानी अगर किसी व्यक्ति को मंत्री बनना है तो उसे पहले अपनी संसदीय सीट छोड़नी होगी.
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समय से पहले चुनाव
राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने का अधिकार भी होगा. लेकिन अगर यह कदम उठाया जाता है तो इससे नई संसद के लिए चुनावों के साथ साथ राष्ट्रपति चुनाव भी निर्धारित समय से पहले कराने होंगे.
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दो कार्यकाल की सीमा
राष्ट्रपति अधिकतम पांच पांच साल के दो कार्यकाल तक पद पर रह सकता है. अगर संसद राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला करती है, तो मौजूदा राष्ट्रपति को अगले चुनाव में खड़े होने का अधिकार होगा.
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संसद का ताना बाना
संसद अपना स्पीकर खुद चुनेगी. इसका मतलब है कि अगर संसद में विपक्ष का बहुमत होगा तो वहां बनने वाले कानूनों में उनके नजरिए की झलक होगी. हालांकि फिलहाल संसद में भी एर्दोवान और उनके सहयोगियों का बहुमत है.
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रूढ़िवादी एर्दोवान की नीतियां आर्थिक मामलों में भी दिखती हैं. तुर्की ने मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की ठानी है. प्रो. पाशा के मुताबिक आज तुर्की का करीब आधा से ज्यादा व्यापार पूर्वी देशों में हो रहा है. पिछले एक दशक में एशियाई देशों की ओर रुझान बढ़ा है.
एर्दोवान की इस्लामी और रूढ़िवादी एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है. कभी धर्मनिरपेक्षता की मिसाल देने वाला तुर्की इन सालों में और ज्यादा धार्मिक हो गया है. जिस तुर्की में कभी बुरके और नकाब पहनने पर रोक थी वहां हिजाब की बहस के साथ सड़कों पर ज्यादा महिलायें सिर ढंके दिखने लगीं हैं. एकेपी के सत्ता में आने से पहले तुर्की की राजनीति में सेना का वर्चस्व था. देश की धर्मनिरपेक्षता की गारंटी की जिम्मेदारी उसकी थी. लेकिन एर्दोवान के शासन में सेना लगातार कमजोर होती गई. एर्दोवान के सत्ता में आने के शुरुआती दिनों में आर्थिक हालात तो बेहतर हुए, लेकिन नया धनी वर्ग भी पैदा हुआ जो रूढ़िवादी था.
यूरोपीय संघ से दूर होता तुर्की
1990 के दशक में जब रेचेप तैयप एर्दोवान इस्तांबुल के मेयर थे तो उन्होंने कहा था, "लोकतंत्र सड़क पर चलने वाली एक कार है. जब आपकी मंजिल आ जाती है तो आप उसमें से उतर जाते हैं." दो दशक बीत जाने के बाद आज तुर्की लोकतांत्रिक संरचना से लगातार दूर होता गया है. दरअसल तुर्की ने 2023 तक यूरोपीय संघ का सदस्य बनने का लक्ष्य रखा था, लेकिन अपनी संरचनाओं को ईयू के अनुरूप ढालने के बदले वह लगातार यूरोपीय देशों से लड़ रहा है. 2016 में तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद तुर्की में हजारों सैनिक और सरकारी अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया है और सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया है.
प्रो. पाशा मानते हैं कि ग्रीस और तुर्की के आर्थिक संकट की तुलना में यूरोपीय संघ की भूमिका अहम है. चूंकि ग्रीस यूरोपीय संघ का सदस्य है, इसलिए उसे नियम से बंधकर रहना है. आने वाले दिनों में भी ग्रीस को संघ से सहायता मिलती रहेगी. वह कहते हैं, ''तुर्की यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं है, इसलिए जर्मनी, स्पेन, फ्रांस समेत अऩ्य सरकारों को एर्दोवान सरकार पर निर्भर रहना पड़ेगा.''
आंकड़ों पर गौर करें तो 2000-2008 के बीच ग्रीस के कर्ज में साल-दर-साल 18.8 फीसदी की वृद्धि देखी गई.. वहीं 2010-2018 के बीच तुर्की का कर्ज हर साल 22.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ा. दोनों देशों में तुलना होना स्वभाविक है क्योंकि ग्रीस की तरह ही तुर्की के आर्थिक संकट का असर अन्य देशों में फैल सकता है. हालांकि कई विश्लेषक यह भी मानते हैं कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्था में अंतर है. तुर्की की अर्थव्यवस्था ग्रीस से चार गुना बड़ी है और इसकी आबादी भी ग्रीस के मुकाबले सात गुना है. ऐसे में तुलना करना फिलहाल जल्दबाजी होगी.
भारत पर असर
भारत और तुर्की के बीच द्विपक्षीय व्यापार 6.26 अरब डॉलर का है और व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में है. विशेषज्ञ मानते हैं कि लीरा के अवमूल्यन और रुपये की कीमत में गिरावट का एक दूसरे से कुछ लेना देना नहीं हैं. लेकिन चूंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था अमेरिका और चीन के बीच चल रहे कारोबारी युद्ध की चपेट में आ चुकी है, ऐसे में भारतीय निवेशकों में घबराहट और अनिश्चितता पैदा हो रही है. प्रो. पाशा कहते हैं, ''भारत के मामलों में कश्मीर को लेकर तैयप हस्क्षेप करते रहे हैं और यह भारत को नागवार गुजरा है. भारत से न्यूक्लियर तकनीक मिलने की उम्मीद तुर्की को थी, जिससे वह अपने थोरियम के भंडार को मैनेज कर सके, लेकिन भारत ने इससे मना कर दिया है.''
पड़ोस के देशों के साथ अमेरिका से झगड़ते एर्दोवान का एक भाषण दिलचस्प है. अमेरिकी प्रतिबंधों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, ''अगर अमेरिका के पास डॉलर है तो हमारे पास लोग हैं, हमारे पास अपने अधिकार हैं और हमारे पास अल्लाह हैं.'' सवाल है क्या एर्दोवान के लोकलुभावन भाषण तुर्की को आर्थिक संकट से बचा पाएंगे?
कितना बदल गया तुर्की
बीते 15 साल में तुर्की जितना बदला है, उतना शायद ही दुनिया का कोई और देश बदला होगा. कभी मुस्लिम दुनिया में एक उदार और धर्मनिरपेक्ष समाज की मिसाल रहा तुर्की लगातार रूढ़िवाद और कट्टरपंथ के रास्ते पर बढ़ रहा है.
तस्वीर: picture-alliance/Ap Photo/Y. Bulbul
एर्दोवान का तुर्की
इस्लामी और रूढ़िवादी एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है. बारह साल प्रधानमंत्री रहे रेचेप तैयप एर्दोवान 2014 में राष्ट्रपति बने और देश को राष्ट्रपति शासन की राह पर ले जा रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images/V. Rys
बढ़ा रूढ़िवाद
तुर्की इन सालों में और ज्यादा रूढ़िवादी और धर्मभीरू हो गया. जिस तुर्की में कभी बुरके और नकाब पर रोक थी वहां हेडस्कार्फ की बहस के साथ सड़कों पर ज्यादा महिलायें सिर ढंके दिखने लगीं.
तस्वीर: Reuters/O. Orsal
कमजोर हुई सेना
एकेपी के सत्ता में आने से पहले तुर्की की राजनीति में सेना का वर्चस्व था. देश की धर्मनिरपेक्षता की गारंटी की जिम्मेदारी उसकी थी. लेकिन एर्दोवान के शासन में सेना लगातार कमजोर होती गई.
तस्वीर: picture-alliance/AA/E. Sansar
अमीर बना तुर्की
इस्लामी एकेपी के सत्ता में आने के बाद स्थिरता आई और आर्थिक हालात बेहतर हुए. इससे धनी सेकुलर ताकतें भी खुश हुईं. लेकिन नया धनी वर्ग भी पैदा हुआ जो कंजरवेटिव था.
तस्वीर: picture-alliance/AA/H. I. Tasel
अक्खड़ हुआ तुर्की
एर्दोवान के उदय के साथ राजनीति में अक्खड़पन का भी उदय हुआ. खरी खरी बातें बोलने की उनकी आदत को लोगों ने इमानदारी कह कर पसंद किया, लेकिन यही रूखी भाषा आम लोगों ने भी अपना ली.
तस्वीर: Reuters/M. Sezer
नए सियासी पैंतरे
विनम्रता, शिष्टता और हया को कभी राजनीति की खूबी माना जाता था. लेकिन गलती के बावजूद राजनीतिज्ञों ने कुर्सी से चिपके रहना और दूसरों की खिल्ली उड़ाना सीख लिया. एर्दोवान के दामाद और उर्जा मंत्री अलबायराक.
तस्वीर: Reuters/M. Sezer
नेतृत्व की लालसा
कमालवाद के दौरान तुर्की अलग थलग रहने वाला देश था. वह दूसरों के घरेलू मामलों में दखल नहीं देता था. लेकिन एर्दोवान के नेतृत्व में तुर्की ने मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की ठानी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/K. Ozer
लोकतांत्रिक कायदों से दूरी
एकेपी के शासन में आने के दो साल बाद 2004 में यूरोपीय संघ ने तुर्की की सदस्यता वार्ता शुरू करने की दावत दी. तेरह साल बाद तुर्की लोकतांत्रिक संरचना से लगातार दूर होता गया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Rumpenhorst
ईयू से झगड़ा
तुर्की ने 2023 तक यूरोपीय संघ का प्रभावशाली सदस्य बनने का लक्ष्य रखा है. लेकिन अपनी संरचनाओं को ईयू के अनुरूप ढालने के बदले वह लगातार यूरोपीय देशों से लड़ रहा है.
तस्वीर: Reuters/F. Lenoir
तुर्की में धर पकड़
2016 में तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद तुर्की में हजारों सैनिक और सरकारी अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया है और सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Altan
एर्दोवान की ब्लैकमेलिंग?
2016 के शरणार्थी संकट के बाद एर्दोवान लगातार जर्मनी और यूरोप पर दबाव बढ़ा रहे हैं. पिछले दिनों जर्मनी के प्रमुख दैनिक डी वेल्ट के रिपोर्टर डेनिस यूशेल को आतंकवाद के समर्थन के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Arnold
इस्लामिक देश होगा तुर्की?
अप्रैल 2017 में तुर्की में नए संविधान पर जनमत संग्रह हुआ, जिसने देश को राष्ट्रपति शासन में बदल दिया. अब एर्दोवान 2034 तक राष्ट्रपति रह सकेंगे. सवाल ये है कि क्या तुर्की और इस्लामिक हो जाएगा.