भारतीयों के लिए तुर्की और तुर्क राष्ट्रपति रेचेप एर्दोवान का नया चेहरा तब सामने आया जब उन्होंने यूएन महासभा में कश्मीर मुद्दा उठाया और पाकिस्तान का समर्थन किया. लेकिन राष्ट्रपति एर्दोवान का सपना इससे कहीं बड़ा है.
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वैसे एर्दोवान का पाकिस्तान प्रेम नया नहीं था. वे पिछले कुछ सालों से इस्लामी दुनिया में तुर्क इस्लाम का झंडा बुलंद करने में लगे हैं. उनके इन प्रयासों में पाकिस्तान और मलेशिया के साथ मिलकर अंग्रेजी में एक टेलिविजन चैनल बनाने का प्रस्ताव तो नया है, लेकिन इस्लामी देशों में प्रभाव जमाने की उनकी कोशिश नई नहीं है.
दुनिया में हर देश विश्व स्तर पर अपना असर और रसूख बढ़ाना चाहता है. तुर्की की भी यही कोशिश है. लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है. तुर्की 21वीं सदी में भी 20वीं सदी के अपने गौरवशाली अतीत का बोझ ढोता लगता है. तुर्की कभी उस उस्मानी साम्राज्य का केंद्र था जिसकी सीमाएं इराक के बसरा से लेकर यूरोप में बेलग्रेड तक और अफ्रीका में काहिरा से लेकर अल्जीरिया तक फैली थीं. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने सब छिन्न भिन्न कर दिया. एक विशाल साम्राज्य सिर्फ लुटे पिटे देश तुर्की में सिमट कर रह गया.
कमाल अतातुर्क पाशा ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर एक आधुनिक देश की बुनियाद रखी. इस घटना को सौ साल बीत चुके हैं. लेकिन प्रभाव और ताकत खोने की कसक आसानी से नहीं जाती. बीते सौ साल में तुर्की कई अंदरूनी संकटों के झेलने के बावजूद एक मजबूत देश के तौर पर उभरा है. राष्ट्रपति एर्दोवान ने उसे आर्थिक मोर्चे पर कामयाबी देशों की कतार में लाकर खड़ा किया है. राजनीतिक मोर्चे पर भी उसका प्रभाव बढ़ रहा है. एर्दोवान के बहुत से समर्थक सोचते हैं कि तुर्क राष्ट्रपति देश को उस्मानिया साम्राज्य जैसा प्रभावशाली बनाएंगे.
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कितना बदल गया तुर्की
बीते 15 साल में तुर्की जितना बदला है, उतना शायद ही दुनिया का कोई और देश बदला होगा. कभी मुस्लिम दुनिया में एक उदार और धर्मनिरपेक्ष समाज की मिसाल रहा तुर्की लगातार रूढ़िवाद और कट्टरपंथ के रास्ते पर बढ़ रहा है.
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एर्दोवान का तुर्की
इस्लामी और रूढ़िवादी एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है. बारह साल प्रधानमंत्री रहे रेचेप तैयप एर्दोवान 2014 में राष्ट्रपति बने और देश को राष्ट्रपति शासन की राह पर ले जा रहे हैं.
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बढ़ा रूढ़िवाद
तुर्की इन सालों में और ज्यादा रूढ़िवादी और धर्मभीरू हो गया. जिस तुर्की में कभी बुरके और नकाब पर रोक थी वहां हेडस्कार्फ की बहस के साथ सड़कों पर ज्यादा महिलायें सिर ढंके दिखने लगीं.
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कमजोर हुई सेना
एकेपी के सत्ता में आने से पहले तुर्की की राजनीति में सेना का वर्चस्व था. देश की धर्मनिरपेक्षता की गारंटी की जिम्मेदारी उसकी थी. लेकिन एर्दोवान के शासन में सेना लगातार कमजोर होती गई.
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अमीर बना तुर्की
इस्लामी एकेपी के सत्ता में आने के बाद स्थिरता आई और आर्थिक हालात बेहतर हुए. इससे धनी सेकुलर ताकतें भी खुश हुईं. लेकिन नया धनी वर्ग भी पैदा हुआ जो कंजरवेटिव था.
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अक्खड़ हुआ तुर्की
एर्दोवान के उदय के साथ राजनीति में अक्खड़पन का भी उदय हुआ. खरी खरी बातें बोलने की उनकी आदत को लोगों ने इमानदारी कह कर पसंद किया, लेकिन यही रूखी भाषा आम लोगों ने भी अपना ली.
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नए सियासी पैंतरे
विनम्रता, शिष्टता और हया को कभी राजनीति की खूबी माना जाता था. लेकिन गलती के बावजूद राजनीतिज्ञों ने कुर्सी से चिपके रहना और दूसरों की खिल्ली उड़ाना सीख लिया. एर्दोवान के दामाद और उर्जा मंत्री अलबायराक.
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नेतृत्व की लालसा
कमालवाद के दौरान तुर्की अलग थलग रहने वाला देश था. वह दूसरों के घरेलू मामलों में दखल नहीं देता था. लेकिन एर्दोवान के नेतृत्व में तुर्की ने मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की ठानी.
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लोकतांत्रिक कायदों से दूरी
एकेपी के शासन में आने के दो साल बाद 2004 में यूरोपीय संघ ने तुर्की की सदस्यता वार्ता शुरू करने की दावत दी. तेरह साल बाद तुर्की लोकतांत्रिक संरचना से लगातार दूर होता गया है.
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ईयू से झगड़ा
तुर्की ने 2023 तक यूरोपीय संघ का प्रभावशाली सदस्य बनने का लक्ष्य रखा है. लेकिन अपनी संरचनाओं को ईयू के अनुरूप ढालने के बदले वह लगातार यूरोपीय देशों से लड़ रहा है.
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तुर्की में धर पकड़
2016 में तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद तुर्की में हजारों सैनिक और सरकारी अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया है और सैकड़ों को जेल में डाल दिया गया है.
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एर्दोवान की ब्लैकमेलिंग?
2016 के शरणार्थी संकट के बाद एर्दोवान लगातार जर्मनी और यूरोप पर दबाव बढ़ा रहे हैं. पिछले दिनों जर्मनी के प्रमुख दैनिक डी वेल्ट के रिपोर्टर डेनिस यूशेल को आतंकवाद के समर्थन के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.
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इस्लामिक देश होगा तुर्की?
अप्रैल 2017 में तुर्की में नए संविधान पर जनमत संग्रह हुआ, जिसने देश को राष्ट्रपति शासन में बदल दिया. अब एर्दोवान 2034 तक राष्ट्रपति रह सकेंगे. सवाल ये है कि क्या तुर्की और इस्लामिक हो जाएगा.
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एर्दोवान अनुदारवादी मुस्लिम नेता हैं और तुर्की में अपने 16 साल के शासन के दौरान उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि देकर न सिर्फ इस्लाम को मजबूत किया है बल्कि उसकी मदद से अपनी स्थिति भी पुख्ता की है और निरंकुशता की तरफ बढ़े हैं. लोकतंत्र की मदद से सत्ता में आकर निरंकुशता की ओर बढ़ने के उनके रवैये से तुर्की ने यूरोप का समर्थन खोया है. शरणार्थी मुद्दे पर उनकी धमकियों, मानवाधिकार की खुली अवहेलना और आलोचना करने वाले पत्रकारों की गिरफ्तारियों ने यूरोप में उनके लिए दोस्त की जगह आलोचक पैदा किए हैं.
यूरोप से नजदीकी का इस्तेमाल एर्दोवान ने अपनी हैसियत बढ़ाने और अनुदारवादी इस्लाम को फैलाने में किया है. सालों तक प्रधानमंत्री रहने के बाद राष्ट्रपति बनने का फैसला करने वाले एर्दोवान ने अपने लिए विशाल राष्ट्रपति भवन बनवाया. यूरोपीय संघ की सदस्यता में बाधाओं से निराश होकर एर्दोवान ने पुराने उस्मानी साम्राज्य के रिश्तों को नया रंग देने की सोची.
एर्दोवान की इस चाहत को एक ओर सीरिया संकट और दूसरी ओर सऊदी अरब के बदलते रवैये ने भी हवा दी. सीरिया में विद्रोहियों की मदद कर और कभी अमेरिका, कभी यूरोप और कभी रूस के साथ जाकर एर्दोवान ने कूटनीति की नई इबारत लिखी है, जिसमें स्थायी दोस्ती और स्थायी दुश्मनी नहीं होती. हाल में जब तुर्की ने सीरिया पर हमला किया तो यूरोपीय प्रतिक्रिया का उन्हें अंदाजा रहा होगा. लाखों शरणार्थियों के लिए यूरोप का दरवाजा खोलने की धमकी देकर उन्होंने यूरोप को चुप करा दिया. यूरोपीय देशों को देर से पता चल रहा है कि एर्दोवान यूरोप के लोकतांत्रिक सहयोगी नहीं हैं.
और ताकतवर हुए तुर्की के एर्दोवान, मिली ये शक्तियां
तुर्की में रेचेप तैयप एर्दोवान फिर पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन गए हैं. तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है जिसमें एर्दोवान के पास पहले से कहीं ज्यादा शक्तियां होंगी. एक नजर उनकी ताकतों पर:
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पीएम पद खत्म
तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है. राष्ट्रपति ही अब कैबिनेट की नियुक्ति करेगा. साथ ही उसके पास उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का अधिकार होगा. कितने उपराष्ट्रपति नियुक्त करने हैं, यह राष्ट्रपति को तय करना है.
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नहीं चाहिए संसद की मंजूरी
मंत्रालयों के गठन और नियमन के लिए राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने में सक्षम होंगे. साथ ही नौकरशाहों की नियुक्ति और उन्हें हटाने का फैसला भी राष्ट्रपति करेंगे. इसके लिए उन्हें संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी.
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अध्यादेश की सीमाएं
राष्ट्रपति के ये अध्यादेश मानवाधिकार या बुनियादी स्वतंत्रताओं और मौजूदा कानूनों को खत्म करने पर लागू नहीं होंगे. अगर राष्ट्रपति के अध्यादेश कानूनों में हस्तक्षेप करते हैं तो इस स्थिति में अदालतें फैसला करेंगी.
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आलोचकों की चिंता
आलोचकों का कहना है कि कानूनी संहिता में स्पष्टता की कमी है. साथ ही देश की न्यायपालिका में निष्पक्षता की कमी झलकती है. ऐसे में, इस बात की उम्मीद नहीं है कि अदालतें स्वतंत्र हो कर फैसले दे पाएंगी.
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तो अमान्य होंगे अध्यादेश
राष्ट्रपति को कार्यकारी मामलों पर अपने अध्यादेशों के लिए संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन अगर संसद ने भी उसी मुद्दे पर कोई कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति का अध्यादेश फिर अमान्य हो जाएगा.
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इमरजेंसी
राष्ट्रपति देश में छह महीने तक इमरजेंसी लगा सकते हैं और इसके लिए उन्हें कैबिनेट से मंजूरी हासिल नहीं करनी होगी. इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति के अध्यादेश मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर भी लागू होंगे.
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इमरजेंसी में संसद अहम
इरमजेंसी के दौरान जारी होने वाले राष्ट्रपति के अध्यादेशों पर तीन महीने के भीतर संसद की मंजूरी लेना जरूरी होगी. संसद की मंजूरी के बिना अध्यादेशों की वैधता नहीं होगी.
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संसद का अधिकार
राष्ट्रपति छह महीने की इमरजेंसी तो लगा सकते हैं, लेकिन इस फैसले को उसी दिन संसद के पास भेजा जाएगा. संसद के पास इमरजेंसी की अवधि कम करने, उसे बढ़ाने या फिर इस फैसले को ही रद्द करने का अधिकार होगा.
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बजट
तुर्की में नए सिस्टम के तहत राष्ट्रपति को ही बजट का मसौदा तैयार करना है. अब तक यह जिम्मेदारी संसद के पास थी. अगर संसद राष्ट्रपति की तरफ से प्रस्तावित बजट को नामंजूर करती, तो फिर पिछले साल के बजट को ही "पुनर्मूल्यन दर" के हिसाब से बढ़ाकर लागू कर दिया जाएगा.
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राष्ट्रपति का शिकंजा
सरकारी और निजी संस्थाओं पर नजर रखने वाली संस्था स्टेट सुपरवाइजरी बोर्ड को प्रशासनिक जांच शुरू करने का अधिकार होगा. यह बोर्ड राष्ट्रपति के अधीन है. ऐसे में, सैन्य बलों समेत बहुत सारे समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति के अधीन होंगे.
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सांसद नहीं बनेंगे मंत्री
संसद की सीटों को 550 से बढ़ाकर 600 किया जाएगा. चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम उम्र अब 25 से घटाकर 18 साल कर दी गई है. कोई भी सांसद मंत्री नहीं बन पाएगा. यानी अगर किसी व्यक्ति को मंत्री बनना है तो उसे पहले अपनी संसदीय सीट छोड़नी होगी.
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समय से पहले चुनाव
राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने का अधिकार भी होगा. लेकिन अगर यह कदम उठाया जाता है तो इससे नई संसद के लिए चुनावों के साथ साथ राष्ट्रपति चुनाव भी निर्धारित समय से पहले कराने होंगे.
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दो कार्यकाल की सीमा
राष्ट्रपति अधिकतम पांच पांच साल के दो कार्यकाल तक पद पर रह सकता है. अगर संसद राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में समय से पहले चुनाव कराने का फैसला करती है, तो मौजूदा राष्ट्रपति को अगले चुनाव में खड़े होने का अधिकार होगा.
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संसद का ताना बाना
संसद अपना स्पीकर खुद चुनेगी. इसका मतलब है कि अगर संसद में विपक्ष का बहुमत होगा तो वहां बनने वाले कानूनों में उनके नजरिए की झलक होगी. हालांकि फिलहाल संसद में भी एर्दोवान और उनके सहयोगियों का बहुमत है.
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बोसनिया और कोसोवो के संकट के समय तुर्की के मुस्लिम भाई की भूमिका को एर्दोवान ने बढ़ाना शुरू किया है. पूर्व युगोस्लाविया के टूटने के बाद बने देशों में तुर्की ने अपने आर्थिक हित भी मजबूत किए हैं. कोसोवो की राजधानी प्रिश्टीना में हवाई अड्डे में उसकी भागीदारी है तो इलाके में हाइवे बनाने में भी वह निवेश कर रहा है. अपने उस्मानी साम्राज्य के अतीत का इस्तेमाल कर एर्दोवान सर्बिया और कोसोवो के बीच सुलह कराने की भी कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में एर्दोवान ने सर्बिया का दौरा किया था जहां सर्बिया के राष्ट्रपति अलेक्जांडर वुचिच ने दोनों देशों के रिश्तों को इतिहास में सबसे अच्छा बताया था. तुर्की ने बालकान के देशों में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. ऑर्थोडॉक्स ईसाई सर्बिया के साथ वह ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग कर रहा है तो इलाके के मुस्लिम देशों में वह इस्लामी शिक्षा में मदद देकर अपना प्रभाव बढ़ा रहा है.
एर्दोवान के नेतृत्व में इस्लाम तुर्की की विदेश नीति का प्रमुख पाया बन गया है. लैटिन अमेरिका से लेकर अफ्रीकी देशों तक वह जगह जगह मस्जिद बनाने में मदद कर रहा है, धार्मिक शिक्षा के लिए सहायता दे रहा है और उस्मानी अवशेषों का पुनरोद्धार कर रहा है. कट्टरपंथी सलाफी विचारधारा के प्रचार और प्रसार पर सालों की आलोचना के बाद एक ओर सऊदी अरब इन इलाकों से पीछे हट रहा है तो तुर्की उसकी जगह लेने के प्रयास में है.
पिछले सालों में पाकिस्तान में भी तुर्की की सक्रियता बढ़ी है. वहां सामाजिक क्षेत्रों में मदद के अलावा अब सैनिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ रहा है. पाकिस्तान की नौसेना इस समय तुर्की की नौसेना के साथ पूर्वी भूमध्यसागर में एक सैनिक अभ्यास में भाग ले रही है. पाकिस्तान का दौरा कर रहे तुर्की के सेना प्रमुख यासर गुलेर ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा से मुलाकात की है और रक्षा सहयोग बढ़ाने का फैसला किया है. तुर्की ने 2016 में पाकिस्तान को टी 37 विमान भेंट किए थे और 2018 में पाकिस्तानी नौसेना ने तुर्की की कंपनी के सहयोग से बनाए गए 17000 टन वाले टैंकर को कमीशन किया था. अंकारा पाकिस्तान से सुपर मुशशक विमान खरीद रहा है.
सैनिक सहयोग को बढ़ावा देने के साथ ही तुर्की पाकिस्तान में अपना सामाजिक प्रभाव भी बढ़ा है. इसमें तुर्की के टेलिविजन सीरियलों का बड़ा योगदान है. भारत के साथ लगातार खराब होते रिश्तों के बीच पाकिस्तान में तुर्की के सिरीयल और फिल्म लोकप्रिय हो रहे हैं. और जब से तुर्की के सीरियल पाकिस्तान में दुखाए जाने लगे हैं, तुर्क भाषा और संस्कृति में भी दिलचस्पी बढ़ रही है. 2013 में सिर्फ 34000 पाकिस्तानी तुर्की की यात्रा की थी, इस बीच ये संख्या बढ़कर करीब सवा लाख हो गई है. पाकिस्तानी टेलिविजन तुर्की के रेडियो और टेलिविजन कंपनी टीआरटी के साथ सहयोग कर रहा है.
लेकिन तुर्की की धार्मिक कूटनीति में एक महत्वपूर्ण रोड़ा उसका राष्ट्रवाद है. तुर्क राष्ट्रपति के राष्ट्रवादी रवैये ने यूरोप को तो नाराज किया ही है, उसने मध्यपूर्व में भी ध्रुवीकरण को हवा दी है. विदेशों में रहने वाले तुर्क नागरिक एर्दोवान के धार्मिक राष्ट्रवाद से एर्दोवान समर्थकों और विरोधियों में बंट गए हैं. तुर्की की सरकार के हाल के कदमों ने दुनिया भर में विभिन्न तबकों और देशों में आशंकाओं को जन्म दिया है. और यही आशंकाएं उसकी कूटनीति की सफलता में रुकावट है.