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क्या तुर्क राष्ट्रपति इस्लामी दुनिया का नेतृत्व कर रहे हैं

महेश झा
१९ नवम्बर २०१९

भारतीयों के लिए तुर्की और तुर्क राष्ट्रपति रेचेप एर्दोवान का नया चेहरा तब सामने आया जब उन्होंने यूएन महासभा में कश्मीर मुद्दा उठाया और पाकिस्तान का समर्थन किया. लेकिन राष्ट्रपति एर्दोवान का सपना इससे कहीं बड़ा है.

Erdogan während Pressekonferenz
तस्वीर: picture-alliance/AA/M. Cetinmuhurdar

वैसे एर्दोवान का पाकिस्तान प्रेम नया नहीं था. वे पिछले कुछ सालों से इस्लामी दुनिया में तुर्क इस्लाम का झंडा बुलंद करने में लगे हैं. उनके इन प्रयासों में पाकिस्तान और मलेशिया के साथ मिलकर अंग्रेजी में एक टेलिविजन चैनल बनाने का प्रस्ताव तो नया है, लेकिन इस्लामी देशों में प्रभाव जमाने की उनकी कोशिश नई नहीं है.

दुनिया में हर देश विश्व स्तर पर अपना असर और रसूख बढ़ाना चाहता है. तुर्की की भी यही कोशिश है. लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है. तुर्की 21वीं सदी में भी 20वीं सदी के अपने गौरवशाली अतीत का बोझ ढोता लगता है. तुर्की कभी उस उस्मानी साम्राज्य का केंद्र था जिसकी सीमाएं इराक के बसरा से लेकर यूरोप में बेलग्रेड तक और अफ्रीका में काहिरा से लेकर अल्जीरिया तक फैली थीं. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने सब छिन्न भिन्न कर दिया. एक विशाल साम्राज्य सिर्फ लुटे पिटे देश तुर्की में सिमट कर रह गया.

कमाल अतातुर्क पाशा ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर एक आधुनिक देश की बुनियाद रखी. इस घटना को सौ साल बीत चुके हैं. लेकिन प्रभाव और ताकत खोने की कसक आसानी से नहीं जाती. बीते सौ साल में तुर्की कई अंदरूनी संकटों के झेलने के बावजूद एक मजबूत देश के तौर पर उभरा है. राष्ट्रपति एर्दोवान ने उसे आर्थिक मोर्चे पर कामयाबी देशों की कतार में लाकर खड़ा किया है. राजनीतिक मोर्चे पर भी उसका प्रभाव बढ़ रहा है. एर्दोवान के बहुत से समर्थक सोचते हैं कि तुर्क राष्ट्रपति देश को उस्मानिया साम्राज्य जैसा प्रभावशाली बनाएंगे.

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एर्दोवान अनुदारवादी मुस्लिम नेता हैं और तुर्की में अपने 16 साल के शासन के दौरान उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि देकर न सिर्फ इस्लाम को मजबूत किया है बल्कि उसकी मदद से अपनी स्थिति भी पुख्ता की है और निरंकुशता की तरफ बढ़े हैं. लोकतंत्र की मदद से सत्ता में आकर निरंकुशता की ओर बढ़ने के उनके रवैये से तुर्की ने यूरोप का समर्थन खोया है. शरणार्थी मुद्दे पर उनकी धमकियों, मानवाधिकार की खुली अवहेलना और आलोचना करने वाले पत्रकारों की गिरफ्तारियों ने यूरोप में उनके लिए दोस्त की जगह आलोचक पैदा किए हैं.

यूरोप से नजदीकी का इस्तेमाल एर्दोवान ने अपनी हैसियत बढ़ाने और अनुदारवादी इस्लाम को फैलाने में किया है. सालों तक प्रधानमंत्री रहने के बाद राष्ट्रपति बनने का फैसला करने वाले एर्दोवान ने अपने लिए विशाल राष्ट्रपति भवन बनवाया. यूरोपीय संघ की सदस्यता में बाधाओं से निराश होकर एर्दोवान ने पुराने उस्मानी साम्राज्य के रिश्तों को नया रंग देने की सोची.

तस्वीर: DW/B. Gökkus

एर्दोवान की इस चाहत को एक ओर सीरिया संकट और दूसरी ओर सऊदी अरब के बदलते रवैये ने भी हवा दी. सीरिया में विद्रोहियों की मदद कर और कभी अमेरिका, कभी यूरोप और कभी रूस के साथ जाकर एर्दोवान ने कूटनीति की नई इबारत लिखी है, जिसमें स्थायी दोस्ती और स्थायी दुश्मनी नहीं होती. हाल में जब तुर्की ने सीरिया पर हमला किया तो यूरोपीय प्रतिक्रिया का उन्हें अंदाजा रहा होगा. लाखों शरणार्थियों के लिए यूरोप का दरवाजा खोलने की धमकी देकर उन्होंने यूरोप को चुप करा दिया. यूरोपीय देशों को देर से पता चल रहा है कि एर्दोवान यूरोप के लोकतांत्रिक सहयोगी नहीं हैं.

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बोसनिया और कोसोवो के संकट के समय तुर्की के मुस्लिम भाई की भूमिका को एर्दोवान ने बढ़ाना शुरू किया है. पूर्व युगोस्लाविया के टूटने के बाद बने देशों में तुर्की ने अपने आर्थिक हित भी मजबूत किए हैं. कोसोवो की राजधानी प्रिश्टीना में हवाई अड्डे में उसकी भागीदारी है तो इलाके में हाइवे बनाने में भी वह निवेश कर रहा है. अपने उस्मानी साम्राज्य के अतीत का इस्तेमाल कर एर्दोवान सर्बिया और कोसोवो के बीच सुलह कराने की भी कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में एर्दोवान ने सर्बिया का दौरा किया था जहां सर्बिया के राष्ट्रपति अलेक्जांडर वुचिच ने दोनों देशों के रिश्तों को इतिहास में सबसे अच्छा बताया था. तुर्की ने बालकान के देशों में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. ऑर्थोडॉक्स ईसाई सर्बिया के साथ वह ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग कर रहा है तो इलाके के मुस्लिम देशों में वह इस्लामी शिक्षा में मदद देकर अपना प्रभाव बढ़ा रहा है.

एर्दोवान के नेतृत्व में इस्लाम तुर्की की विदेश नीति का प्रमुख पाया बन गया है. लैटिन अमेरिका से लेकर अफ्रीकी देशों तक वह जगह जगह मस्जिद बनाने में मदद कर रहा है, धार्मिक शिक्षा के लिए सहायता दे रहा है और उस्मानी अवशेषों का पुनरोद्धार कर रहा है. कट्टरपंथी सलाफी विचारधारा के प्रचार और प्रसार पर सालों की आलोचना के बाद एक ओर सऊदी अरब इन इलाकों से पीछे हट रहा है तो तुर्की उसकी जगह लेने के प्रयास में है.

तस्वीर: DW/Aida Cama/DWCOM

पिछले सालों में पाकिस्तान में भी तुर्की की सक्रियता बढ़ी है. वहां सामाजिक क्षेत्रों में मदद के अलावा अब सैनिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ रहा है. पाकिस्तान की नौसेना इस समय तुर्की की नौसेना के साथ पूर्वी भूमध्यसागर में एक सैनिक अभ्यास में भाग ले रही है. पाकिस्तान का दौरा कर रहे तुर्की के सेना प्रमुख यासर गुलेर ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा से मुलाकात की है और रक्षा सहयोग बढ़ाने का फैसला किया है. तुर्की ने 2016 में पाकिस्तान को टी 37 विमान भेंट किए थे और 2018 में पाकिस्तानी नौसेना ने तुर्की की कंपनी के सहयोग से बनाए गए 17000 टन वाले टैंकर को कमीशन किया था. अंकारा पाकिस्तान से सुपर मुशशक विमान खरीद रहा है.

सैनिक सहयोग को बढ़ावा देने के साथ ही तुर्की पाकिस्तान में अपना सामाजिक प्रभाव भी बढ़ा है. इसमें तुर्की के टेलिविजन सीरियलों का बड़ा योगदान है. भारत के साथ लगातार खराब होते रिश्तों के बीच पाकिस्तान में तुर्की के सिरीयल और फिल्म लोकप्रिय हो रहे हैं. और जब से तुर्की के सीरियल पाकिस्तान में दुखाए जाने लगे हैं, तुर्क भाषा और संस्कृति में भी दिलचस्पी बढ़ रही है. 2013 में सिर्फ 34000 पाकिस्तानी तुर्की की यात्रा की थी, इस बीच ये संख्या बढ़कर करीब सवा लाख हो गई है. पाकिस्तानी टेलिविजन तुर्की के रेडियो और टेलिविजन कंपनी टीआरटी के साथ सहयोग कर रहा है.

लेकिन तुर्की की धार्मिक कूटनीति में एक महत्वपूर्ण रोड़ा उसका राष्ट्रवाद है. तुर्क राष्ट्रपति के राष्ट्रवादी रवैये ने यूरोप को तो नाराज किया ही है, उसने मध्यपूर्व में भी ध्रुवीकरण को हवा दी है. विदेशों में रहने वाले तुर्क नागरिक एर्दोवान के धार्मिक राष्ट्रवाद से एर्दोवान समर्थकों और विरोधियों में बंट गए हैं. तुर्की की सरकार के हाल के कदमों ने दुनिया भर में विभिन्न तबकों और देशों में आशंकाओं को जन्म दिया है. और यही आशंकाएं उसकी कूटनीति की सफलता में रुकावट है.

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